शनिवार, दिसंबर 26, 2009

कुछ लाइनें माता-पिता के लिए...




शुक्रवार की रात को मैं एक किताब पढ़ रहा था। उस किताब का नाम है `एक पुस्तक माता पिता के लिए...। किताब के लेखक हैं सोवियत शिक्षाशास्त्री अंतोन सेम्योनोविच माकारेंको (1888-1939)। अंतोन माकारेंकों ने अपनी इस किताब को पारवारिक लालन पालन को समिर्पत किया है। उसमें लिखीं कुछ बातों ने मेरे अंदर एक सोच पैदा कर दी और उसी का नतीज़ा है कि मैं उन बातों का उल्लेख इस ब्लॉग में कर रहा हूं...
आप भी पढ़ें...

उन्होंने इस किताब में परिवार में बच्चों के भरण पोषण में आने वाली कठिनाइयों और उन पर काबू पाने के तरीकों का विश्लेषण किया है।

इस किताब में लिखी तमाम बातें बेहद गहराई से महसूस करते हुए लिखी गईं हैं। लेखक ने इन सब बातों को दिल की गहराइयों से एनालाइज किया है और बताया है कि माता-पिता को अपने बच्चे या बच्चों को पालने के लिए कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और किस तरह नेक माता-पिता सभी परेशानियों का हंसकर सामना करते हैं और अपने बच्चों को खुद से भी बेहतर बनाते हैं।

किताब के एक पैराग्राफ में माकारेंको लिखते हैं : यह नितांत आवश्यक है कि सभी माता-पिता अपने बच्चों को सुखी देखना चाहते हैं, लेकिन उनमें से सभी लोग यह नहीं समझ पाते कि सुख, सबसे पहले वैयक्तिक और सामाजिक के बीच सामंजस्य है और यह सामंजस्य एक दीर्घकालिक, कुशलतापूर्ण तथा कष्टसाध्य लालन-पालन के ज़रिए ही हासिल हो सकता है।

उन्होंने यह भी लिखा कि जो माता-पिता इस तथ्य से समझौता नहीं करना चाहते कि विवाह बंधन में बंधकर और मात्र एक ही बच्चे को जन्म देकर भी वे शिक्षक बन चुके हैं। उन माता-पिताओं का व्यापक रूप से प्रयुक्त बहाना `समय की कमी` होता है, लेकिन उनकी पसंद का दायरा काफ़ी संकीर्ण होता है। या तो वे हर कठिनाई के बावजूद अपने बच्चों का अच्छी तरह लालन पालन कर सकते हैं या बहाने की शक्ल में तरह तरह की `वस्तुगत कठिनाइयों` का हवाला देकर खराब ढंग से यह काम पूरा कर सकते हैं।

इसके बाद उन्होंने उल्लेख किया कि अनुभवहीन माता-पिता की सबसे बड़ी ग़लती यह होती है कि वे हर प्रकार के नैतिक प्रवचनों पर भरोसा करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि इस तरह के माता-पिता बच्चों को हर समय एक ज़जीर में बांधे रखते हैं। उनके बच्चों का हर कदम, कोई भी हऱकत, सविस्तार अनुदेशों का विषय बन जाती है। इस यह कोई ता़ज्जुब की बात नहीं है कि बच्चे का स्वस्थ शरीर भी इस मौखिक दबाव को बर्दाश्त नहीं कर पाता और वैसे भी बच्चे तो हैं ही...

फलत: एक दिन उनका बच्चा `ज़ंजीर` तोड़ देता है और जिसका उसके माता-पिता को सर्वाधिक डर था, उसी बुरी सोहबत में जा फंसता है। माता और पिता दोनों भयाक्रांत हो उठते हैं। वे सहायता के लिए पुकारते हैं, वे मांग करते हैं कि उनके बच्चे को ``शिक्षा की ज़ंजीर`` से बांध दिया जाए, जिसके बिना वे बच्चे का लालन पालन नहीं कर सकते...

वे आगे लिखते हैं कि इस प्रकार के लालन पालन के लिए मुक्त समय की ज़रूरत होती है और साफ ज़ाहिर कि यह समय बर्बाद किया जाता है।

अंत में उन्होंने अपनी सारी की सारी विश्लेषण और पूरे अनुभव का प्रयोग करते हुए लिखा कि सफल पारिवारिक लालन पालन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण शर्त है बच्चों की आवश्यकताओं का सही नियमन करने की माता-पिता की दक्षता..। बच्चे की हर सनक को उसकी ज़रूरत नहीं समझा जाना चाहिए। बच्चों को ऐसी सुख सुविधाएं पेश करना अननुज्ञेय है, जिन्हें माता-पिता कष्टसाध्य श्रम से प्राप्त करते हैं..।

शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009

सपने में भगवान...

एक दिन मेरे आराध्य देव मेरे सपने में आए और कहने लगे - वत्स! तुम कैसे हो ?

पहले तो मैं चौंका, फिर ज़रा संभला और बोला - आप कौन हैं? इतनी रात को कैसे? कोई विशेष काम है क्या?



उन्होंने कहा - आज मुझे नींद नहीं आ रही थी, तो सोचा थोडा तफरीह हो जाए. सोचा किस "मूर्ख" को इतनी रात को जगाऊँ? सब के सब "बेवकूफ" गहरी नींद में सो रहे होंगे, मेरी लिस्ट में सबसे अव्वल दर्जे के मूर्ख तुम ही हो, तो चला आया तुम्हारे पास, कुछ बात करनी है तुमसे, कहो तुम्हारे पास टाइम है क्या?


मैंने कहा - पहले तो ये बताइए कि आप मुझे "मूर्ख" (वो भी अव्वल दर्जे का) क्यों कह रहे हैं, मैंने क्या मूर्खता कर दी है प्रभु?


उन्होंने कहा - यार देखो मेरा सिंपल सा फंडा है. दुनिया मे ऐसे बहुत से लोग हैं जो मुझसे रोज़-रोज़ अनगिनत शिकायत करते हैं. कोई कहता है मैं बहुत परेशान हूँ, कोई अपने दुःख गिनाता है, कोई भी मुझे ऐसा नहीं दिखता जो काहे प्रभु आप आगे जाओ, मुझे कुछ नहीं चाहिए मैं तो बेहद खुश हूँ...


एक तू ही दिखा "मूर्ख" जिसने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा, कभी कोई शिकायत नहीं कि तूने... मैंने जब भी तुझे देखा, खुश ही पाया, इसीलिए मेरी लिस्ट में तू सबसे बड़ा "मूर्ख" बन गया... और यही वज़ह थी कि इतनी रात को मैं तेरे सपने में आ पहुंचा...


उन्होंने कहा - चलो कुछ बातें करते हैं...


मैं अवाक होकर उनकी बातें सुन रहा था और सोच रहा था कि आज दिन में मैंने ऐसा कौन सा बेहतर काम कर दिया है जिससे मैं ऐसा सपना देख रहा हूँ कि स्वयं मेरे आराध्य ही मेरे सपनों में आए हुए हैं...


मैं ये सोच ही रहा था कि अचानक उन्होंने जम्हाई लेनी शुरू कर दी... मैंने पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं... उन्होंने उत्तर दिया अरे "मूर्ख" मुझे नींद आ रही है, चल उठ, अब मुझे सोने दे...
मैंने आश्चर्य से कहा कि आप तो भगवान् हैं, आपको भला नींद कैसे आ सकती है...

वो जोर से हँसे और बोले - "मूर्ख", तू बहुत बड़ा "मूर्ख" है, मेरे यहाँ, तेरे पास आने का प्रयोजन तू अभी तक नहीं समझ नहीं पाया... मैंने तुझसे बातें करने को कहा और तू है कि इस सोच में पड़ा है कि तुने दिन भर में ऐसा कौन सा बेहतर काम किया है कि मैं यहाँ आ पहुंचा... तू बोर कर रहा है यार, इसलिए मुझे नींद आने लगी...


अरे पागल! तुझे मुझसे बात करना चाहिए, तू खुशकिस्मत है कि मैं खुद तेरे सामने बैठकर तुझसे बात कर रहा हूँ, मैं ऐसे हर किसी से बात नहीं करता... तू मुझे अच्छा लगता है इसलिए ही तो मैं तेरे पास आया हूँ, अगर मैं सच में तेरे सामने आता तो तू घोर आश्चर्य के मारे बेहोश हो जाता, इसलिए मैं तेरे सपनों में आया हूँ...


चल शुरू हो जा और बता कि तुझे क्या चाहिए?


मैंने कहा - प्रभु सबसे पहले तो मुझे एक उचित कारण बताइए कि आपने मेरे पास आना ही ठीक क्यों समझा?


उन्होंने कहा कि मैं ऐसे हर किसी के पास नहीं जा सकता क्योंकि कोई मेरी क़दर नहीं करता, कोई मुझसे बात करना तक पसंद नहीं करता... सब मुझे केवल दुःख में ही याद करते हैं... और खुशियों में किसी को मेरी खबर ही नहीं होती... सब मुझे भूल जाते हैं... एक तू ही है जो मुझे हर पल याद करता है... यही नहीं तुने मुझे अपने "बटुए" और अपनी "लोकेट" में भी जगह दे रखी है... वैसे ये बटुए और लोकेट वाला काम कई लोग करते हैं, मगर वो महज़ उनका शौक होता है... लेकिन मैं जानता हूँ कि तू ये सब शौक या दिखावे के लिए नहीं बल्कि खुद की श्रृद्धा के चलते करता है... इसीलिए मैं तेरे पास आया... और मेरा तेरे पास आना सार्थक भी हुआ। तूने मेरा सम्मान किया और मुझे "प्रभु" कहकर भी बुलाया, मैंने तुझे "मूर्ख" कहा फिर भी तूने कुछ नहीं कहा बल्कि तूने बड़े आदर से पूछा की मैं तुझे "मूर्ख" क्यों कहा रहा हूँ?


अब तू समझ गया न, कि मैंने तुझे ही क्यों चुना?


अब लोगों के मन में मेरे लिए जगह नहीं बची बेटे, वो मुझे भूल चुके हैं, उनका सारा का सारा ध्यान मात्र "लक्ष्मी" की ओर है, वो पूरी तरह से व्यावसायिक हो चुके हैं, तभी तो अब मेरा और मेरे नाम का ता व्यवसाय करने लगे हैं... पर मुझे ख़ुशी है कि तुझ जैसे चंद लोग अभी दुनिया में हैं, तुम जैसे "मूर्खों" के बल पर ही मैं "उचक" रहा हूँ...

तेरा भला हो गौतम...


उन्होंने इतना कहा और चल दिए...

शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009

पल दो पल की शायरी...



जो बीत गई वो बात गई
सूरज निकला और रात गई

अब जीने की ख्वाहिश क्या करना
मरने की तमन्ना कौन करे


जब प्यास बुझाने की खातिर
प्यासा पनघट को जाता है



ऐसे में प्यासा क्यों मरना
और... पानी-पानी कौन करे!...

शनिवार, दिसंबर 12, 2009

अपनी मर्जी से कहां अपनी मर्जी के हम हैं...

वक्त बदलता है और बदलता रहेगा... किसी के रोकने से न तो रुका है और न ही रुकेगा... जिसने भी रोकने की कोशिश की वह इसके प्रवाह में आकर बह गया।

किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि इंसान पैदा होने के बाद बच्चा बनेगा, फिर जवान और अंत में बूढ़ा होकर वक्त की बनाई हुई जंजीरों में कैद हो जाएगा। यह शाश्वत सत्य है कि जिसने जन्म लिया है उसे मरना भी है और जो जन्म लेता है उसे मरने से पहले बहुत सारे काम करने पड़ते हैं... काम कई तरह के हो सकते हैं। कोई अच्छा काम करता है तो कोई बुरा और कुछ ऐसे भी होते हैं जो बहुत अच्छे काम कर जाते हैं और बन जाते हैं गांधी, नेहरू, लिंकन या ओबामा!...

ये वो लोग हैं जो कभी एक दायरा बनाकर नहीं रखते। इनकी नजर ज़िन्दगी केवल जीने का नाम नहीं होता, बल्कि ये मानते हैं कि ज़िन्दगी हमेशा कुछ न कुछ बेहतर करते रहने का काम है और यही वजह कि हमें हमारे पड़ोसी तक ढंग से नहीं जानते और इन्हें पूरी दुनिया जानती है और तब तक जानती है जब तक वक्त चलता है।

कौन जानता था कि 4 अगस्त 1961 को होनोलूलू में किन्याई मूल के एक साधारण से परिवार में जन्मे बराक हुसैन ओबामा को 20 जनवरी 2009 से पूरी दुनिया, दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में (अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति, अश्वेत मूल के पहले) जानने लगेगी। मामला साफ है कि ओबामा ने अपने जीवनकाल में बहुतेरे असाधारण कार्य किए हुए होंगे और वक्त के आगे चलना पसंद किया होगा, न कि वक्त के साथ।

आज की वर्तमान पीढ़ी से अगर उनके चहेते या उन्हें चाहने वाले आधुनिकता से बचने की सलाह देते हैं तो उनका एक ही साधारण और रटा-रटाया ज़वाब होता है `इंसान को वक्त के साथ चलना चाहिए!` शायद यही वजह है कि `वक्त के साथ चलना` उनका दायरा बन जाता है और तमाम उम्र वो इसी दायरे को अपना संपूर्ण जीवन मानकर जीते हैं। एक दिन आता है जब उन्हें पता चलता है कि हम जिस दायरे को अपना जीवन समझ रहे थे वह एक धोखे और छलावे के सिवाय और कुछ नहीं था। पर जब वो इस दायरे को तोड़ने की कोशिश करने का प्रयास करते हैं तब तक रेलगाड़ी पटरी छोड़कर काफी दूर जा चुकी है यानि वक्त बदल चुका होता है।

कहने का मतलब साफ है कि वक्त बदलाता है और बदलता ही रेहगा और जिसने इसे पकड़ने की कोशिश की वह इसकी गिरफ़्त में जकड़ गया। कहा भी गया है `कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदलग गए, कुछ लोग हैं जो वक्त के सांचे में ढल गए!` स्पष्ट है कि वक्त के सांचे बदलने वाले गांधी, नेहरू, लिंकन और ओबामा बन जाते हैं, वक्त के सांचे में तो कोई भी ढल सकता है।वक्त को बदला जा सकता है अपने चरित्र से। इसे रोका नहीं जा सकता। रोकने की कोशिश तो महाज्ञानी, महापराक्रमी और महाबलशाली रावण ने भी की थी, अंजाम रामायण में लिखा है, जानने के लिए पढ़ सकते हैं। मैंने पढ़ी है इसलिए बता रहा हूं कि रावण भी वक्त को नहीं रोक पाया। श्रीराम ने वक्त को बदला था, अपने चरित्र से, अपने पौरुष से और अपने स्वाभाव से। इसलिए श्रीराम हमारे हीरो हैं और रावण विलेन... श्रीराम की हम पूजा करते हैं और रावण का पुतला जलाते हैं।

वक्त बदलने का काम हममें से कोई भी या हम सभी कर सकते हैं। अब ये मत पूछिएगा कि कैसे?... मैं नहीं जानता क्योंकि मैंने वक्त नहीं बदला है और न ही अभी सोच रहा हूं फिलहाल तो मैं कोशिश में हूं कि वक्त से मेरी दोस्ती या फिर मुझसे उसे प्यार हो जाए ताकि उसे कहीं डेट पर ले जा सकूं और दिल की बात कह दूं।

फ़िर शायद मुझे वक्त बदलने की जरूरत ही न पड़े। पर ये भी सच है न कि हम जो चाहते हैं ठीक वही नहीं हो सकता। ठीक वैसा ही पाने के लिए हमें बहुतेरे जतन करने पड़ते हैं, और वैसे भी `अपनी मर्जी से कहां अपनी मर्जी के हम हैं, वक्त ले जाए जहां भी वहीं के हम हैं!...`

बुधवार, दिसंबर 09, 2009

क्षणिकाएं

एक...

कभी हवा के झोके से तेरे छूने का अहसास होता है
कभी दूर होने पर भी तू मेरे दिल के पास होता है
बेशक कलम मेरी, स्याही मेरी, ये अहसास मेरा है
पर कभी कभी इनमे तेरी आवाज़, तेरा ही हर अल्फाज़ होता है।

दो...

न कोई शिकवा है खुदा से और न ही जमाने से
दर्द और भी बढ़ जाता है जख्म छुपाने से
शिकायत तो खुद से है के मैं कुछ न कर सका
वरना मैं जानता हूँ आता मेरे बुलाने
से।

तीन...

गर कभी तन्हा हो तो याद करना
गर कोई परेशानी हो तो बात करना
बातें करना कभी हमारी भी
कभी खुद से कभी लोगों साथ करना।

मंगलवार, दिसंबर 08, 2009

मुंबई ब्लॉगर मीट

पांचवा खम्बा: मुंबई ब्लॉगर मीट

शनिवार, दिसंबर 05, 2009

सिगरेट के डिब्बों में फ्री कूपन जल्द...


हाल ही में एक खबर आई है कि अब सिगरेट के पैकेटों में एक फ्री कूपन मिलेगा जो किसी भी कैंसर अस्पताल में फ्री कैंसर चैकअप में मददगार होगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह पहल सिगरेट के पैकेट्स के 40 प्रतिशत भाग में पूर्व दिए गए 'स्मोकिंग किल्स' के विज्ञापन की असफलता के बाद शुरू की है।

उल्लेखनीय है कि भारत में हर साल करीब 9 लाख लोग सिगरेट की वजह से कैंसर के शिकार होकर दम तोड़ देते हैं। अब भारत के आंकड़ों में हम हर साल 9 लाख लोगों को स्वर्गीय बनता देख रहे हैं तो पूरे विश्व के आंकड़े तो हमें बेहोश ही कर देंगे। शायद यही वजह कि मैं दुनिया भर में सिगरेट की वजह से मरने वालों के आंकड़े पेश नहीं कर रहा हूं।

स्वास्थ्य मंत्रालय और परिवार कल्याण मंत्रालय ने मिलकर इस मुहीम को शुरू किया है। मेनका गांधी ने सुझाव दिया है कि सिगरेट बेचने वाली कंपनियों को पैकेट में फ्री कूपन देना चाहिए। इससे पहले लोगों को तम्बाकू उत्पादों के खतरे से आगाह करने के लिए डिब्बों पर बिच्छू की तस्वीर छापने का फैसला किया जा चुका है लेकिन ये तरीका भी बहुत कारगर साबित नहीं हुआ। ज्यादातर लोगों का मानना है कि सिर्फ तस्वीरें दिखाकर किसी को खतरे का एहसास नहीं कराया जा सकता। हो सकता है सरकार की इस नई पहल से लोग सिगरेट से होने वाले खतरों के प्रति जागरूक हो जाएं और सिगरेट छोड़ दें।

खैर!... खुदा खैर करे इन सिगरेट पीने वालों की!... और सद्बुद्धि दे ताकि ये सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना छोड़ें और एक बेहतर भविष्य का जाला बुनने की ओर ध्यान दें!...


तमाम शुभकामनाओं के साथ

राम कृष्ण गौतम

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009

मीडिया : द फोर्थ कॉलम!...

कुछ दिनों पहले तक लोकतंत्र के केवल तीन ही स्तंभ थे। उनके साथ कदम से मिलाकर जिम्मेदारपूर्वक कार्य करते हुए मीडिया ने अपने हाथ दिखाए और शामिल हुआ चौथे स्तंभ के रूप में! और... कहलाने लगा लोकतंत्र का चौथा स्तंभ... लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ ने देश, दुनिया ही नहीं बल्कि गांव और शहरों के भी छोटे-छोटे इलाकों को कवर करते हुए समाज में अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई।

शायद! यही वजह थी कि इसे संविधान के चौथे स्तंभ का दर्जा दिया गया और कहा जाने लगा... मीडिया : द फोर्थ कॉलम! इसने हर अच्छे और बुरे समय में घर के एक लायक बड़े बेटे की भूमिका निभाई। यही वजह है कि इसे घर के मुखिया यानि देश के संविधान ने बड़े बेटे की ताकत और रुतबा प्रदान किया... लेकिन हाल के कुछ दिनों से देखने में आ रहा है कि यह बड़ा बेटा अब शायद पहले की तरह अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रहा है। मेरा मतलब खबरों के प्रस्तुतिकरण से है।

वर्तमान में मीडिया के पास क्या समुचित खबरों की कमी है जो वह अश्लीलता, फूहड़पन और भूत-प्रेत आधारित खबरों को बहुत ही प्रधानता से प्रस्तुत कर रहा है। क्या वज़ह कि अब शायद यह बड़ा बेटा अपनी जिम्मेदारियों को भूलने लगा है?

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

अरे! तुम कब आए...

सुबह के लगभग सवा पांच बज रहे थे, हवा की सरसराहट सीधे कानों से टकरा रही थी, पक्षियों का झुण्ड नीले आसमान की सुन्दरता बढ़ा रही थी, सूरज की लालिमा अपने चरम पर थी और आसपास के वातावरण में स्वर्णिम प्रकाश फ़ैल रहा था, ऊपर आसमान में नज़रें उठाकर देखने पर एसा लग रहा था मानो धरती और आकाश के बीच का दायरा ही ख़त्म हो गया है, सारा का सारा आकाश धरती की आगोश में नज़र आ रहा था, पेड़ों की पत्तियों की आवाज़ कानों के पर्दों से होकर सीधे ह्रदय में स्पंदन कर रही थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सूर्यदेव ने अभी-अभी ही आकाश में अपने घोड़े विचरण के लिए छोड़े हों...

ठीक उसी वक़्त केशव अपनी बहन और बहनोई के घर के गलियारे में दाखिल हुआ। अपनी बहन और बहनोई के मुखमंडल को देखने के लिए उत्साहित उसका मन, मन ही मन खुश हो रहा था और होगा भी क्यों नहीं, वो पूरे दो साल और सात महीनों के बाद अपनी कीर्ति और सचिन से मिलने जो वाला था। उसकी दूसरी ख़ुशी का राज़ तो पूछिए ही मत। उसकी इस ख़ुशी के आगे फिलहाल तो कोई भी दूसरी ख़ुशी टिक ही नहीं सकती और उसकी यह ख़ुशी है ही खुश होने लायक। आज वो अपने प्यारे भांजे से भी मिलेगा जो आज पूरे दो साल का हो गया है. इन्ही खुशियों को मन के एक कोने में संजोए केशव दबे क़दमों से धीरे-धीरे अपनी बहन के कमरे की ओर बढ़ रहा था।

उसके हाथ में एक झोला था जिसमे बहन और बहनोई के लिए कपडे और प्यारे भांजे के लिए मुंहदिखाई और जन्मदिन के तोहफे, खिलौने इत्यादि थे. मन में भांजे की सुन्दर सूरत की कल्पना और दिल में बहन से मिलने का उत्साह केशव को भीतर ही भीतर एक अनुपम ख़ुशी दे रहा था... वह ख़ुशी और उत्साह की इन्ही बातों को सोचते हुए अपनी बहन के कमरे के दरवाजे के सामने पहुंचा... वह दरवाज़े की कुण्डी बजाने ही वाला था कि... उसकी सारी कि सारी खुशी, सारा का सर उत्साह धुआं हो गया, एक ही पल में उस पर वज्रपात सा हो गया, हे! भगवान क्या मैंने इतनी खुशी और इतना उत्साह इसी दुरूह क्षण के लिए संजोया था, उसका ह्रदय एक अनकहे दर्द की चोट से कराह उठा।

उसने सुना कि उसकी प्यारी बहन कीर्ति अपने पति पर ज़ोरों से चिल्ला रही है और उससे भी जोर से उसका बहनोई सचिन दहाड़ मार रहा है. उनके बीच सुबह-सुबह छिड़े इस संवाद ने केशव की तमाम खुशियों को धता बता दिया। ऐसी स्थिति में केशव का मन व्याकुल हो उठा। इधर केशव के मन में कशमकश जारी था तो उधर उसकी बहन और बहनोई का संवाद... उसका बहनोई उसकी बहन से कह रहा था कि देखो तुम्हारे परिवार को तुम्हारी कोई चिता तो है नहीं, आज पूरे ढाई साल हो रहे हैं, किसी ने यह भी नहीं जानना चाहा कि हम मर गए या जिंदा हैं. कम से कम इस नन्हे को तो देखने कोई आ जाता. तुम्हारा भाई तो बस अपनी बीवी की पल्लू में ही छिपा रहता है. उसे तुम्हारी फिक्र क्यों होगी॥? इस पर कीर्ति ने ज़वाब दिया- खबरदार! जो मेरे पिता समान भाई और मेरी भाभी के बारे में कुछ बुरा-भला कहा तो! मैं फिर ये भूल जाउंगी कि आप मेरे पति हैं।

इन सब बातों ने केशव को जैसे प्राणहीन बना दिया था. उसका शरीर किसी पत्थर के स्तम्भ की तरह जड़ हो गया था लेकिन उसके कान अभी भी सतर्क थे, वह सचिन और कीर्ति दोनों के संवाद सुन रहा था. उन दोनों के संवाद ने केशव को उसके अतीत की और धकेल दिया जब नन्ही सी कीर्ति को महज़ चार साल की उम्र में उसके पिता और कुछ ही दिन बाद उसकी माँ भी चल बसीं. फिर कीर्ति की पूरी ज़वाबदारी केशव पर ही थी. उसे याद आ रहा था कि कैसे उसने दिन-रात, हर एक पल मेहनत-मजूरी करके कीर्ति का पेट भरा, उसे पढे और समाज में रहने लायक संस्कार दिए।

वह याद कर रहा था कि किस तरह शादी के बाद केशव ने अपनी पत्नी कृष्णा के साथ कड़ी मेहनत करते हुए कीर्ति का ध्यान रखा, उसने और उसकी पत्नी ने कीर्ति के पैर तक ज़मीन में न पड़ने दिए. किस तरह उन दोनों ने एक आदर्श माँ और पिता की भूमिका निभाई. कीर्ति को विदा करने के लिए केशव ने अपनी आजीविका का एकमात्र साधन अपनी एक एकड़ ज़मीन तक बेच डाली. इन सब कुरबानियों के बाद भी केशव ने कभी यह नहीं सोचा कि वह कितने कष्ट सह रहा है कीर्ति के लिए... इसके बावजूद भी वह कीर्ति की ख़ुशी के लिए ही सोचता रहा. दामाद को भी उसने वो हर वस्तु दी जो उसने मांग की थी।

कहने का मतलब है कि केशव ने वो हर जिम्मेदारी निभाई जो अपनी बेटी के लिए एक पिता करता है। केशव अपने अतीत में ही खोया हुआ था कि अचानक उसकी बहन चीखती हुई दरवाजे से बाहर की ओर भागी और उसका हाथ केशव के झोले पर तेजी से लगा, केशव का झोला ज़मीन पर गिरा और बच्चे के खिलौने टूटकर धरती बिखर गए। खिलौनों के टूटने की आवाज से उसका बहनोई बाहर आया, उसने केशव को एक कोने पर खड़ा पाया और केशव के कानों को चीरने वाली आवाज में बोला - अरे! तुम कब आए...

इन आंखों की मस्ती के...









जिनकी ये ख़ूबसूरत आँखें हैं, उन्हें आप सब बहुत बेहतरी से जानते हैं। अब जानना ये है कि क्या आप इन खूबसूरत आंखों की मलिका-ऐ-हुस्न का नाम बता पाते हैं या नही..?

शनिवार, नवंबर 28, 2009

जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई...

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत ना हुई!
जिसको चाहा उसे अपना ना सके जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई!!

जिससे जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फसाना बदला!
रस्में दुनिया की निभाने के लिए हमसे रिश्तों की तिज़ारत ना हुई!!

दूर से था वो कई चेहरों में पास से कोई भी वैसा ना लगा!
बेवफ़ाई भी उसी का था चलन फिर किसीसे भी शिकायत ना हुई!!

वक्त रूठा रहा बच्चे की तरह राह में कोई खिलौना ना मिला!
दोस्ती भी तो निभाई ना गई दुश्मनी में भी अदावत ना हुई!...

पहचानों तो जानें!...










हिंट : ये तस्वीर एक ख्यात फिल्म कलाकार की है!...








रविवार, नवंबर 15, 2009

बाप की कमाई...

मेरा एक दोस्त है, मेरे ही नाम का... सीधा-सादा... कोई तड़क भड़क नहीं... एकदम साधारण... अगर कोई व्यसन है तो वो है उसका सीधापन... वो उसे छोड़ ही नहीं पाता... कपडे भी एकदम साधारण ही पहनता है... अभी हाल ही में मेरे ही प्रयासों से उसने मोबाईल रखना शुरू किया है... दरअसल उसके पिताजी या उसके भैया मेरे ही नंबर पर काल करके उससे बात किया करते थे... चूंकि मैं हर वक़्त उसके साथ नहीं होता था इसलिए उससे उसके घर वालों को बात करा पाना संभव नहीं हो पाता था... हालाँकि उसका सम्बन्ध एक समृद्ध घर से है... लेकिन उसे इससे चिढ है कि वो अपनी समृद्धता जग ज़ाहिर करे... इसलिए एकदम साधारण ही रहता है... हम दोनों एक बात पर बिलकुल Similar हैं... और वो ये है कि हमारी सोच, हमारे विचार एकदम मेल खाते हैं... इसलिए इतने दिनों से साथ रहते हुए भी हम दोनों के बीच कभी वैचारिक टकराव नहीं हुआ... घर, परिवार, भविष्य, रिश्ते-नाते, दोस्ती, दुनिया, टीम इंडिया, भारत की अर्थव्यवस्था, डॉ. मनमोहन सिंह का दोबारा प्रधानमंत्री बनना, राहुल का युवा ब्रिगेड... ये ऐसे मुद्दे हैं जिस पर हम दोनों बेहद बहस करते हैं... ताज्जुब की बात तो ये है कि इन मुद्दों पर हम दोनों घंटों बातें करते रहते हैं और नतीजा जब आता है तो उस पर हम दोनों की जुबान एक ही शब्द कहती है... यानि निष्कर्ष पर दोनों के विचार एक जैसे होते हैं... एक दिन हम दोनों अपने-अपने घर और परिवार के सदस्यों की चर्चा कर रहे थे... उसे अक्सर अपने बड़े भाई से शिकायत रहती है कि वो आज भी अपने "पिता की कमाई" पर ही निर्भर हैं... पत्नी और दो बच्चे होने के बाद भी... और तो और... घर से अलग रहते हुए... उसके पिता जी उनके और उनके परिवार के खर्च के लिए हर महीने 12,000 रूपए देते हैं... ऐसा उसने मुझे बताया... उसने मुझे यह भी बताया की भाभी को ये सब कतई पसंद नहीं है... उसकी भाभी उसके भैया को हमेशा कहती हैं अब पिता की ज़िम्मेदारी पूरी हो गई है... अब तो आप कमाना धमाना शुरू करो... अगर उनको कुछ दे नहीं सकते तो कम से कम लो तो मत... वो आपके पिता हैं... उनके बुढापे का कुछ तो ख्याल रखो... उसकी भाभी के ये ख्याल मुझे बेहद पसंद आए... इसी कारण मैं उनसे मिल भी आया हूँ... खैर! आगे सुनिए... मेरे हमनाम को अपने बड़े भैया की ये बात रास नहीं आती... वैसे उसका उसके बड़े भैया के प्रति ये रवैया उचित भी है... मैं उसकी जगह होता तो मैं भी शायद यही कहता... एक बात तो है... मेरे हमनाम का यह कहने मुझे तब आश्चर्य में डाल देता है जब मुझे ये पता चलता है कि वह अपना खर्च अपने पिताजी से नहीं लेता... और उसका मासिक खर्च मात्र... 200 रूपए है... माकन किराया और खाना छोड़कर... आप भी आश्चर्य में पड़ गए न... कि आज के समय में एक ज़वान लड़के का खर्च मात्र 200 रूपए महिना... वैसे ये सच है... मैं गवाह हूँ इसका... उसने अपने घर किसी से भी नहीं बताया है कि वो Part Time Job करता है... उसके पिता एक सहकारी बैंक के मैनेजर हैं... इसके बावजूद भी वह से घर से कोई आर्थिक सहयोग नहीं लेता... वैसे वो बताता है कि जॉब करने कि प्रेरणा उसे मुझसे मिली... क्या पाता सच कह रहा है या... हाँ! पर एक बात है कि मुझसे मिलने के कुछ समय तक वह किसी जॉब में नहीं था... मुझसे मिलने के बाद ही उसने एक प्राइवेट बैंक में काम करना शुरू किया... Well... उसके विचार मुझे बेहद अच्छे लगते है... हालाँकि उम्र में मुझसे एक साल छोटा है... लेकिन हम दोनों का एक दूसरे के प्रति व्यवहार दोस्ताना है... वो मुझे नाम लेकर पुकारता है और मैं भी उसे उसके नाम के आगे "जी" लगाकर संबोधित करता हूँ... एक दिन मैंने उससे कहा कि यार तू इतना साधारण सी ज़िन्दगी क्यों जीता है जबकि तेरा परिवार तो संपन्न है... तू कम से कम ज़रुरत की चीज़ें तो बढ़िया तरह से रख... कपडे ठीकठाक पहन... एक अच्छा सा मोबाइल लेले... जूते बढ़िया से लेले... इस पर उसने जो कहा उसे सुनकर मैं आज तक दंग हूँ... उसने मुझसे कहा... "यार... बाप के पैसों पर तो सब ऐश करते हैं... पर मेरी राय कुछ अलग है... मैं जब तक खुद अपने पैरों पर खडा नहीं हो जाता... ठाटबाट से नहीं रह सकता... क्योंकि ठाटबाट से रहने के लिए पैसे चाहिए... और ये सब मैं अपने पिता के पैसों से नहीं कर सकता... उनके पैसे इस तरह खर्च करना मुझे गंवारा नहीं..." वाह! दोस्त क्या बात कही थी तुमने... आपको सुनकर ताज्जुब होगा कि महज़ 21 साल की उम्र में उसने मुझसे वो बात कह दी... जो शायद एक बुजर्ग या अनुभवी व्यक्ति मुझे समझा पाता... आपको पाता है उसकी इस बात से मैं भी प्रेरित हुआ और मैंने अब हर महीने मुझे मिलने वाली रक़म से 2000 रूपए महीने बचाने शुरू कर दी हैं... जब भी घर जाता हूँ... कुल बचाई हुए रक़म मम्मी के हाथ में देकर पैर पड़ता हूँ... उस वक़्त मम्मी की आँखों में आंसू आ जाते हैं... लेकिन पैसों को देखकर नहीं मुझे देखकर... वो देखती हैं जिस बच्चे को हमने गोद में खिलाया है... आज वही इतना बड़ा हो गया है... वो ये भी कहती हैं कि "किशन! तू बड़ा सयाना हो गया है..."

गुलमुहर है ज़िन्दगी...

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी
डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साये में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी
रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी
दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी।

रविवार, नवंबर 08, 2009

यादें...

बात आज से लगभग पंद्रह साल पुरानी है। तब मैं महज़ आठ साल का था। उस वक़्त मैं अपने होम टाऊन (डिंडोरी) में अपने पिताजी के साथ रहता था। पिताजी के साथ था इसलिए सुबह जल्दी उठ जाता था या यूँ कही कि उठना पड़ना था। एक दिन तडके हमारा दूध वाला दूध देने आया। उस दिन उसका बिल भी पेड करना था। इसलिए उसने पिताजी को आवाज़ लगाई- महाराज, ओ! महाराज (हमारे यहाँ ब्राह्मणों को महाराज बुलाते हैं, और महाराज बुलाने की दूसरी वज़ह यह भी है कि मेरे दादा जी अपने समय के ज़मींदार थे।) पिता जी स्नान के लिए नर्मदा जी गए हुए थे इसलिए दूध वाले से मैं ही रु-ब-रु हुआ। उसने मुझसे पूछा "छोट महाराज, तुम्हार बाप कहाँ हैं?" (ये हमारे गाँव की बोली है) मुझे ये बात कुछ ठीक नहीं लगी इसलिए मैंने उससे कहा- क्या हुआ? इस बार तो उसने हद कर दी और कहा -डुक्कर को बुलाओ, आज हिसाब करना है। इतना सुनते ही मैं गुस्से से आगबबूला हो गया। मुझे कुछ न सूझा सो मैंने वहीँ पर रखा हुआ दूध का डिब्बा उठाया और उसके सिर पर जोर से दे मारा। पलभर में उसका सिर खून से लाल हो गया। वो तुरंत ही सबकुछ छोड़कर वहां से भागा। कुछ देर बाद पिताजी आए। मैंने उनसे कुछ नहीं बताया। जब उन्होंने मुझसे चाय बनाने को कहा तो मैंने ज़वाब दिया कि काली चाय बनाऊं? पिताजी ने कहा -क्यों, दूध नहीं आया क्या? मैंने कहा- नहीं! ऐसी बात नहीं है, दूध वाला आया था लेकिन...
इतना कहना हुआ ही था, सामने से दूध वाला सर पर पट्टी बांधे चला आ रहा था. मुझे देखकर थोडा ठिठका लेकिन पिताजी के बैठे होने से उसकी हिम्मत बनी रही. पिताजी ने उसकी चोट का कारण पूछा तो उसने झूठ कह दिया कि भैंस ने लात मार दी. इसके बाद मैंने भी कुछ नहीं कहा. उसने दूध का हिसाब किया और अपने इलाज के लिए पिताजी कुछ अतिरिक्त रूपए लिए, फिर वहा से चला गया. तकरीबन नौ साल तक ये बात पिताजी से छिपी रही. न मैंने बताया और न ही उस दूध वाले ने. वो आज भी हमारे यहाँ दूध पहुंचाता है. नौ साल बाद उसकी चोट देखकर अचानक पिताजी ने वो वाकया पूछ लिया. इत्तेफाक देखिए कि उस वक़्त भी मैं वहीँ था. इस बार उससे पहले मैंने ही अपनी जुबान खोल दी और सब सच-सच बता दिया. पहले पिताजी काफी नाराज़ हुए, खूब फटकारा उन्होंने, फिर उन्होंने मेरी उस नादानी के लिए दूध वाले से माफ़ी मांगी. जब दूध वाला चला गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि "बेटा! ऐसा करना ठीक नहीं, अब मेरी इतना उम्र ही इतनी हो गई है तो कोई भी मुझे बूढा या सयाना कहेगा." इसके बाद मैंने कभी पिताजी से उस मुद्दे पर बात नहीं की. अब सोचता हूँ कि अगर सही मायनों में देखा जाए तो मेरा बचपना मेरी आज की अवस्था से काफी बेहतर था. आज मैं अपने पिताजी से, अपनी माँ से, अपने परिवार से कोसों दूर हूँ... मैं चाह कर भी उनके साथ हरपल नहीं गुजार सकता...

तुम याद आए...

जब दिन निकला
तुम याद आए
जब सांझ ढली
तुम याद आए
जब चलूँ अकेले
तन्हा मैं
सुनसान सड़क के
बीचों बीच
धड़कन भी जोरों
से भागे
लगता मुझको
कि यहीं कहीं
अब भी तुम हो
मेरे आसपास
जब कोयल
मेरे कानों में
एक मधुर सी तान
सुना जाए
लगता मुझको ऐसा जैसे
तुम याद आए
तुम याद आए

ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई

ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई
हो सकी जो न वो मेरी आस बनकर रह गई
कुछ दिनों तक ये थी मेरी बंदगी
अब महज़ एक अनकही एहसास बनकर रह गई
जुस्तजूं थी ये मेरी उम्मीद थी
गुनगुनाता था जिसे वो गीत थी
अब तमन्नाओं के फूल भी मुरझा गए
नाउम्मीदी की झलक विश्वास बनकर रह गई
सोचता हूँ तोड़ दूँ रश्में ज़माने ख़ास के
ज़िन्दगी भी लेकिन इनकी दास बनकर रह गई
एक अज़नबी मिला था मुझको
राह-ऐ-महफ़िल में कहीं
ज़िन्दगी भर साथ रहने का सबब वो दे गया
एक दिन ऐसे ही उसने मुझसे नाता तोड़कर
संग किसी अनजान के वो हँसते-हँसते हो गया
अब फ़क़त इस टूटे दिल में याद उसकी रह गई
ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई

मंगलवार, नवंबर 03, 2009

इस जहाँ में मेरे सिवा पागल कई और भी हैं...

इस जहाँ में मेरे सिवा पागल कई और भी हैं
खामोशियाँ हैं कहीं तो कहीं कहीं शोर भी हैं
मनचला या आवारा बन जाऊँ ये सोचता हूँ
लेकिन मेरे इस दिल में किसी और का ज़ोर भी है
तन्हाइयों से टूटना शायद मैंने सीखा ही नहीं
इसीलिए शायद मेरा ये दिल कठोर भी है
हर रोज़ उसी चिलमन का आड़ है नज़रों पर
वही मेरी दुल्हन है और वही मेरी चितचोर भी है
आ गले लगा लूं तुझे सभी ग़मों को भुलाकर
मैं जितना पागल हूँ मेरा दिल उतना कमज़ोर भी है
अहसास तेरी चाहत का मेरी धड़कनों में अब भी है
मगर तू क्यों समझेगी इसे तू तो मग़रूर भी है!

शनिवार, अक्टूबर 31, 2009

मुझे कुछ और कहना था...


वो सुनता तो मैं कुछ कहता, मुझे कुछ और कहना था।
वो पल को जो रुक जाता, मुझे कुछ और कहना था।


कहाँ उसने सुनी मेरी, सुनी भी अनसुनी कर दी।
उसे मालूम था इतना, मुझे कुछ और कहना था।


रवां था प्यार नस-नस में, बहुत क़ुर्बत थी आपस में।
उसे कुछ और सुनना था, मुझे कुछ और कहना था।


ग़लतफ़हमी ने बातों को बढ़ा डाला यूँही वरना
कहा कुछ था, वो कुछ समझा, मुझे कुछ और कहना था।
मुझे कुछ और कहना था...

गुरुवार, अक्टूबर 22, 2009

बोले तो! एकदम झक्कास...!

बहुत दिनों से सोच रहा था कि क्या लिखूं? कुछ सूझ ही नहीं रहा था. अभी कुछ दिन पहले ही मैंने रेडियो पर एफएम सुनना शुरू किया. जबसे सुन रहा हूँ तबसे दिन भर मज़े के साथ बस सुनता ही रहता हूँ. कभी रेड एफएम पर "बड़बोले चाचा" की "चाचा बतोले" सुनाई देता है तो कभी धमाल पर दे दना दन गाने. कभी रेडियो मिर्ची पर "बड्डा भैया" के साथ होता हूँ तो कभी माई एफएम पर बढ़िया संगीत का तड़का लगाता हूँ. वैसे एफएम's के मामले में मैंने कोई दायरा नहीं बनाया है कि कौन सा एफएम चैनल मेरा सबसे प्रिय चैनल है या किसे सर्वाधिक सुनता हूँ लेकिन फिर भी इससे हटकर मैंने रेड एफएम को चुना है. रेड एफएम मेरी पहली पसंद है. वो इसलिए क्योंकि जब यह पहले पहल हमारे शहर में एस एफएम के नाम से आया था तब इसके लिए आरजे's की व्यवस्था की जा रही थी यानि Interview चल रहा था और इस एक शुरूआती दौर का मैं भी हिस्सा बना था यानि मैंने भी Interview दिया था. इसलिए यह तो मेरा Favorite रहेगा ही. दूसरे इसे मैं इसलिए भी पसंद करता हूँ क्योकि इसमें मेरे बड़े भाई (जैसे) भी हैं. हालाँकि एफएम सुनते मुझे अभी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ है लेकिन सुनने में ऐसा लगता है कि जैसे मेरा इनसे बहुत पुराना नाता है. हालाँकि ऐसा नहीं है कि मनोरंजन की गाड़ियों को लगातार खींचते रहने वाले इन एफएम's को सुनने के केवल फायदे ही हैं. इनके नुकसान भी बराबर हैं. मैं भी एक श्रोता हूँ और श्रोता होने के नाते मैंने इसकी समीक्षा की है. उस समीक्षा में ये सामने आया है कि इनमे पेश किये जाने वाले कई प्रोग्राम's कहीं न कहीं आम जन को कु-प्रभावित करती हैं. मेरे सर्वाधिक प्रिय एफएम के एक प्रोग्राम का ज़िक्र करना चाहूँगा. इसमें रात के वक़्त एक शो आता है जिसका सम्बन्ध लोगों के "सीक्रेट" से है. इस शो में लोगों के सीक्रेट's शहरवासियों के सामने उजागर किये जाते हैं और इस शो को होस्ट करने वाली आरजे मोहतरमा अपनी आकर्षक अंदाज़ में चुटकियाँ लेते हुए उस सीक्रेट को ठीक उसी अंदाज़ में पेश करती हैं जैसे कि वह है. हालाँकि मैं उन मोहतरमा की इस अदा का इस्तकबाल करता हूँ. यह एक बेहतर आरजे का परिचय भी है. लेकिन जिस चैनल को मैं सुनता हूँ उसके और भी बहुत से श्रोता होंगे. अन्य श्रोताओं ने भी यह चीज़ महसूस कि होगी जिसे मैं अपने ब्लॉग पर लिख रहा हूँ. ये शो या इस तरह के तमाम ऐसे शो'z हैं जिससे आम लोगों के बीच फूहड़ता भरा सन्देश जाता है. हालाँकि हर दिन ऐसा सन्देश नहीं जाता लेकिन कई प्रस्तुतियां ऐसी भी होती हैं जिन्हें सुनने के बाद हंसी कम क्रोध अधिक आता है. अब हंसने वाले सीक्रेट's पर क्रोध क्यों आता है ये बताना तो मुस्किल है लेकिन आता है. हालाँकि शो के दौरान ये ऐलान ज़रूर किया जाता है कि "इन तमाम फूहड़ताओं का उद्देश्य महज़ मनोरंजन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. लेकिन आप ही बताइए कि सिगरेट के पैकेट में "Its Injirious to Health" लिख देने से क्या सिगरेट का कु-प्रभाव कम हो जाता है. नहीं न? ठीक इसी तरह इन प्रोग्राम्स के सम्बन्ध में भी सम्पुट नहीं बैठता. अगर ऐसा कुछ होता है तो मैं भी लिख देता हूँ कि "मेरे इस लेख से अगर किसी व्यक्ती या एक समूह को ज़रा भी कष्ट हुआ हो तो मैं अपने दोनों हाथ जोड़कर माफ़ी चाहता हूँ."

दिल की बात...

मैंने ज़माने के एक बीते दौर को देखा है,
दिल के सुकून और गलियों के शोर को देखा है,

मैं जानता हूँ की कैसे बदल जाते हैं इंसान अक्सर,
मैंने कई बार अपने अंदर किसी और को देखा है!!!

बुधवार, अक्टूबर 14, 2009

गिरीश जी का आभार...

आज से कुछ महीने पहले तक में अपने ब्लॉग पर एकदम निष्क्रिय सा हो गया था. ये कहा जा सकता है कि मैने ब्लॉगिंग लगभग बंद ही कर दी थी. एक दिन अचानक गिरीश जी (गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल') मेरे दफ़्तर आए. उन्होने मुझसे मुलाक़ात की और मेरे ब्लॉग पर निष्क्रियता का कारण पूछा! मैने कहा कि दफ़्तर के काम व्यस्तताओं के कारण में ब्लॉग परा समय नही दे पा रहा हूँ. इस पर उन्होने मुझे ब्लॉग और ब्लॉगिंग का महत्‍व बताते हुए कहा कि मैं हर दिन भले एक पोस्ट ही करूँ, पर लगातार ब्लॉग पर बना रहूं. साथ ही मुझे उन्होंने मुझे आने वेल समय मे ब्लॉग के महत्‍व से भी अवगत कराया. उन्होने ही मुझे लगातार ब्लॉग पर बने रहने के लिए प्रेरित किया था. तब से मैं लगातार अपने ब्लॉग पर सक्रिय हूँ. मैं सदा उनका आभारी रहूँगा कि उन्होने मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया और हमेशा ही कुछ न कुछ सिखाते रहते हैं. धन्यवाद गिरीश जी!

रविवार, अक्टूबर 11, 2009

चार दिन की ज़िन्दगी...

ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी

खुदा को पा गया वाईज़, मगर है
जरुरत आदमी को आदमी की

मिला हूं मुस्कुरा कर उस से हर बार
मगर आंखों में भी थी कुछ नमी सी

मोहब्बत में कहें क्या हाल दिल का
खुशी ही काम आती है ना गम ही

भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आंखों ने मुझसे बात कर ली

रकीब-ए-गमजदा अब सब्र कर ले
कभी उस से मेरी भी दोस्ती थी



बुधवार, अक्टूबर 07, 2009

न अब हौसला है न अब रस्ते हैं

रुखसत होकर बैठे हैं ऐसे
के खुशियाँ मिली हों ज़माने की जैसे,
नुमाइश भी कोई नहीं करने वाला
सूरत भी नहीं मेरी दीवाने के जैसे,
मैं चुपचाप सहमा हूँ बैठा कहीं पे
कोई भी नहीं है मुझे सुनने वाला,
सभी पूछते हैं हुआ क्या है तुझको
तेरी शक्ल क्यों है रुलाने के जैसे,
जब निकला था घर से बहुत हौसला था
के पा लूँगा मंजिल डगर चलते-चलते,
न अब हौसला है न अब रस्ते हैं
सफर भी लगे अब फसाने के जैसे!

सोमवार, अक्टूबर 05, 2009

ज़हन में कौंधती एक सोच...

कहते हैं कि दुनिया में इंसानों को कभी भी मन माफ़िक चीज़ें नहीं मिलतीं क्योंकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है. सामाजिक प्राणी होने का इंसानों के लिए यह दायरा बहुत सोच समझकर बनाया गया है. अगर इंसानों को उनकी मांग के हिसाब से चीज़ें मिलने लगें तो यह दायरा सिमटने लगता है और शायद यह सही नहीं है इसलिए ऐसा नहीं होता कि इंसान अपनी मन मांगी चीज़ पा ले. इंसान ही एक ऐसा प्राणी है जो सोच सकता है और उस सोच को सच में बदलने के लिए प्रयास कर सकता है. इसलिए उसके मन में कुछ या शायद बहुत सारी तमन्नाएं पनपती हैं. उन्ही इच्छाओं की पूर्ति के लिए उसे सारे अच्छे या बुरे या फिर या फिर दोनों काम करने पड़ते हैं. गणितीय अवधारणा के मुताबिक अच्छी सोच या तमन्ना अच्छे काम के और बुरी तमन्ना बुरे काम के समानुपाती होते हैं. इसी तरह अच्छी सोच और बुरे काम एक-दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती होंगे. यही वज़ह है कि चोरी करने वाले को सज़ा और कहीं पर पड़ी मिली रक़म को उसके मालिक तक पहुँचने वाले को तारीफें या संभवतः इनाम मिलता है. हालाँकि अच्छी सोच के साथ काम करने में बुरी सोच के साथ किए गए काम की अपेक्षा ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. लेकिन अच्छे काम के बाद के सुकून और बुरे काम के बाद के सुकून में भी भारी फर्क होता है. जैसे अच्छे काम के बाद हमारी नज़रें आसमान की ओर होती हैं जबकि बुरे काम के बाद हम शायद ही आँखें खोलना पसंद करेंगे..? जो हमेशा से ही नीम के स्वाद का आदी होता है उसे शक्कर की मिठास का पता तक नहीं होता. ठीक इसी तरह हमेशा गुड़ की खान में रहने वाला कड़वाहट पसंद नहीं करेगा. कहने का अर्थ स्पस्ट है कि अच्छाई और बुराई में ज़मीन और आसमान का फासला तो है, साथ ही ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी भी हैं. मुझे नहीं पता कि मैं इनमे से किसके साथ जीवन बिता रहा हूँ लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि कोई भी काम खत्म करने के बाद मुझे बेहद आश्चर्यजनक और अद्वितीय सुकून मिलता है..!!!

किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी...

इन आँखों से दिन-रात बरसात होगी
अगर ज़िंदगी सर्फ़-ए-जज़्बात होगी

मुसाफ़िर हो तुम भी, मुसाफ़िर हैं हम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी

सदाओं को अल्फाज़ मिलने न पायें
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी

चराग़ों को आँखों में महफूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी

अज़ल-ता-अब्द तक सफ़र ही सफ़र है
कहीं सुबह होगी कहीं रात होगी


रचनाकार: बशीर बद्र

देखा है ज़िन्दगी को...

देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना क़रीब से ।

चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से ।।


कहने को दिल की बात जिन्हें ढूंढ़ते थे हम,

महफ़िल में आ गए हैं वो अपने नसीब से ।


नीलाम हो रहा था किसी नाज़नीं का प्यार,

क़ीमत नहीं चुकाई गई एक ग़रीब से ।


तेरी वफ़ा की लाश पर ला मैं ही डाल दूँ,

रेशम का यह कफ़न जो मिला है रक़ीब से ।


रचनाकार: साहिर लुधियानवी

रविवार, अक्टूबर 04, 2009

मौत तू एक कविता है...

मौत तू एक कविता है...
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझे
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लेकर जब चाँद उफ़क़ तक पहुंचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के क़रीब
न अँधेरा न उजाला हो, न अभी रात न दिन
ज़िस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आये
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझे!!!

(इस कविता को हिन्दी फ़िल्म "आनंद" में डा. भास्कर बैनर्जी नामक चरित्र के
लिये लिखा गया था। इस चरित्र को फ़िल्म में अमिताभ बच्चन ने निभाया था)

शनिवार, अक्टूबर 03, 2009

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया...

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया ।

बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ॥


हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को ।

क्या हुआ आज, यह किस बात पे रोना आया ?


किस लिए जीते हैं हम, किसके लिए जीते हैं ?

बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया ॥


कौन रोता है किसी और की ख़ातिर, ऐ दोस्त !

सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया ॥


रचनाकार: साहिर लुधियानवी

मंगलवार, सितंबर 22, 2009

दिल में इक लहर सी उठी है अभी..!

दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी

शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी

कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी

भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या
हम-सुख़न तेरी ख़ामोशी है अभी

याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी

शहर की बेचराग़ गलियों में
ज़िन्दगी तुझ को ढूँढती है अभी

सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी

तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी

वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी

कौन घूंघट उठाएगा सितमगर कह के..?

ज़िन्दगी को न बना दें वो सज़ा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद

कौन घूंघट उठाएगा सितमगर कह के
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद

हाथ उठते हुए उनके न देखेगा
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद

फिर ज़माना-ए-मुहब्बत की न पुरसिश होगी
रोएगी सिसकियाँ ले-ले के वफ़ा मेरे बाद

वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूं
उसका क्या जानिए, क्या हाल हुआ मेरे बाद

रचनाकार: नासिर काज़मी

सोमवार, सितंबर 21, 2009

...क्योंकि सपना है अभी भी!

कभी-कभी ज़िन्दगी हमें एक पल में इतना सिखा देती है कि शायद उतना सीखना पूरे उम्र में संभव न हो पाए. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ. इंसान तमाम उम्र एक छलावे में जीता है. अगर उसके सामने कुछ बेहतर है तो वो उसी को सबसे बेहतर मानकर जीता चला जाता है. वो फिर यह नहीं सोच पाता कि इससे भी कुछ बेहतर होता है. उसके लिए महज़ "बेहतर" ही "सबसे बेहतर" होता है. खुशियाँ, आंसू, हंसी, ग़म ये सब वो मुसाफिर हैं जो हमें ज़िन्दगी के सफ़र में मिलते हैं. खैर! कुछ भी हो पर मैंने भी कुछेक महीने एक छलावे को लेकर गुज़ारा है. वैसे छलावा वाकई सबसे बेहतर था. मुझे नहीं लगता कि इससे बेहतर छलावा अब कभी मुझे मिल पाएगा. हालाँकि उस छलावे ने मुझे यह सिखा दिया है कि "कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल, किन्तु कायम खुद का संकल्प है अपना अभी भी, ...क्योंकि सपना है अभी भी!" उसने मुझे सिखाया कि हज़ार चाहने वालों से एक न चाहने वाला ही बेहतर होता है, क्योंकि हज़ार चाहने वाले आपको अपनी चाहत जब तक देते हैं तब तक ही आप खुद को खुश रख पाते हैं जबकि न चाहने वाला कमसे कम आपके विचारों, आपकी भावनाओं को बदलता तो नहीं. वह हमेशा एक ही बात की गारंटी देता है और वो यह कि वो आपको कभी नहीं चाहेगा. जबकि आपके हज़ार चाहने वाले इस बात की गारंटी कतई नहीं देते कि वो आपको हमेशा ही चाहते रहेंगे!
जब छोटे थे तो बड़े होने की बड़ी तमन्ना थी, लेकिन बड़े होकर जाना कि अधूरे अहसास और टूटे हुए सपनों से बेहतर अधूरे होम वर्क और टूटे हुए खिलौने ही थे...

शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का...

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का

ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का

ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का

वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का

ज़मीं पे किस लिये ज़ंजीर हो गये साये
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का

रचनाकार: शहरयार

बुधवार, सितंबर 16, 2009

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे...

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हूज़ूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे

कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे

रचनाकार: अहमद फ़राज़

मंगलवार, सितंबर 15, 2009

उम्र भर का सहारा बनो तो बनो...

ऐ मेरे हमनशीं
चल कहीं और चल
इस चमन में
हमारा गुज़ारा नहीं
बात होती गुलों तक
तो सह लेते हम
अब तो काँटों पे भी
हक हमारा नहीं
आज आए हो और
कल चले जाओगे
ये मोहब्बत को मेरी
गंवारा नहीं
उम्र भर का सहारा
बनो तो बनो
चार दिन का सहारा
सहारा नहीं
है मुझे ये यकीं
हम मिलेंगे
किसी न किसी
मोड पर
राहें गुलशन में होंगी
सदा ही खुली
वो यक़ीनन सुनेगा
दुआएं मेरी
क्या ख़ुदा है तुम्हारा
हमारा नहीं..!

रविवार, सितंबर 13, 2009

हिंदी-दिवस..! एक दर्पण...

साल के प्रत्येक 14 सितम्बर को "हिंदी-दिवस" मनाया जाता है... क्यों मनाया जाता है, कहना मुश्किल है... लेकिन मनाया जाता है... शायद इसीलिए मनाया जाता है क्योंकि 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी... इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये सन् 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष "हिन्दी-दिवस" के रूप में मनाया जाता है... स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान की धारा 343(1) में लिखा है: संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी... संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा... और हर सरकारी संस्था अपने लेखन कार्यों में इसका उपयोग करेगी... बस यहीं आकर बात ख़त्म हो जाती है... संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिए जाने के कारण ही हम "हिंदी-दिवस" मनाते आ रहे हैं... और 14 सितम्बर के दिन सरकारी कार्यालयों का आलम तो देखने लायक होता है... हर सरकरी दफ्तर में हिदी से संदर्भित ढेर सारे आयोजन किये जाते हैं... भाषण, निबंध लेखन, परिचर्चा इत्यादि... चलिए कुछ भी हो... एक दिन ही सही लेकिन "बेचारी हिंदी" की लज्जा तो रख ली जाती है... मैं यह नहीं कहना चाहता की "हिंदी-दिवस" महज़ सरकारी दफ्तरों का एक तामझाम है... मैं तो सरकारी कर्मचारियों का ह्रदय से आभारी हूँ... कि वो कम से कम हमारी मातृभाषा की इतनी इज्ज़त तो कर रहे हैं... ये सभी पूरे एक दिन हिंदी की पूजा करते हैं... पूरे एक दिन हिंदी पर ही इनका ध्यान होता है... लेकिन ज़रा सोचिए कि हमारे देश की यह कैसी विडंबना है कि हिंदी यानि राष्ट्रभाषा की महत्ता महज़ सरकारी दफ्तरों तक ही सीमित है... क्यों बजरंग दल, शिवसेना और ऐसे ही तमाम "कथित समाज सुधारक दल" इसका प्रचार प्रसार नहीं करते... ये दल और सेना जिस तरह से मंत्रियों का पुतला जलाते हैं... जिस तरह से Velentines Day का विरोध करते हैं उस तरह से हिंदी भाषा की महत्ता का गुणगान क्यों नहीं करते..? आज नौकरी के हर क्षेत्र में हिंदी को प्रधानता क्यों नहीं दी जाती..? क्यों हिंदी भाषियों की उपेक्षा की जाती है..? अन्य जगहों पर भी "हिंदी-दिवस" क्यों नहीं मनाया जाता..? क्यों हम एक दूसरे से मिलने पर केवल अंग्रेजी के शब्दों को संबोधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं..? बस यही तो समस्या है... इन प्रश्नों के उत्तर अगर मिल जाएँ तो आप समझ जाएँगे कि केवल 14 सितम्बर ही हिंदी के गुणगान का दिन नहीं है... फिर तो हर एक दिन "हिंदी-दिवस" मनाया जाने लगेगा... महज़ एक दिन नहीं!

उफ़! ये विवशता...

संविधान के जाल में हिरनी सी लाचार...
किसी अँधेरी नीति की हिंदी हुई शिकार...

शनिवार, सितंबर 12, 2009

ये कोई तुम सा है के तुम हो..?

जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है के तुम हो
ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है के तुम हो

ये ख़्वाब है ख़ुश्बू है के झोंका है के पल है
ये धुंध है बादल है के साया है के तुम हो

देखो ये किसी और की आँखें हैं के मेरी
देखूँ ये किसी और का चेहरा है के तुम हो

इक दर्द का फैला हुआ सहरा है के मैं हूँ
इक मौज में आया हुआ दरिया है के तुम हो

वो वक़्त न आये के दिल-ए-ज़ार भी सोचे
इस शहर में तन्हा कोई हम सा है के तुम हो

बुधवार, सितंबर 09, 2009

न मंदिर में सनम होते...

न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में खुदा होता
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता

न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेरे-पा होता
ज़ेरे-पा: under feet

घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तज़किरा होता
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मे-दिल हरा होता

बुलाकर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से उठवाया
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर दिया होता

तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लॉट गये
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी थी, कुछ कहा होता


रचनाकार: नौशाद लखनवी

शनिवार, सितंबर 05, 2009

वो जिधर जाए जन्नत उधर देखिये!!

उनकी नजरे-करम का असर देखिये!
प्यार देता हुआ, हर वशर देखिये!!
..............देखती तक न थी जिसको कोई नजर!
........................बेकरार देखने हर नज़र देखिये!!
उनकी नजरे-करम छु गई है जिसे!
उसको बदला हुआ हर कदर देखिये!!
..............उसने सोना बनाया है लोहे को छु!
..............वह दमकता देखेगा जिधेर देखिये!!
उनकी नजरे-करम पर जिसे फक्र है!
उसको भटका, इधर न उधर देखिये!!
...............प्यार देता देखेगा सभी को अरे!
..............प्यार से छल-छलाता जिगर देखिये!!
देखिएगा उसे अपना सुख बाटते!
दुःख बाटने को नजरो को तर देखिये!!
..............बस यही है फरिश्तो की पहचान भी!
..............वो जिधर जाए जन्नत उधर देखिये!!


आप सभी को शिक्षक दिवस की तहेदिल से शुभकामनाएं!!!

शुक्रवार, सितंबर 04, 2009

मुबारक ज़िंदगी के वास्ते...

झलक यूँ यास में उम्मीद की मालूम होती है।
कि जैसे दूर से इक रोशनी मालूम होती है॥
मुबारक ज़िंदगी के वास्ते दुनिया को मर मिटना।
हमें तो मौत में भी ज़िंदगी मालूम होती है॥

रज़्म रदौलवी

रविवार, अगस्त 30, 2009

शिद्दत से आज दिल ने...

घर जिसने किसी ग़ैर का आबाद किया है
शिद्दत से आज दिल ने उसे याद किया है

जग सोच रहा था कि है वो मेरा तलबगार
मैं जानता था उसने ही बरबाद किया है

तू ये ना सोच शीशा सदा सच है बोलता
जो ख़ुश करे वो आईना ईजाद किया है

सीने में ज़ख्म है मगर टपका नहीं लहू
कैसे मगर ये तुमने ऐ सैय्याद किया है

तुम चाहने वालों की सियासत में रहे गुम
सच बोलने वालों को नहीं शाद किया है


शनिवार, अगस्त 29, 2009

ज़िन्दगी तूने बहुत रोज़ बचाया मुझको...

जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको
याद आया बहुत एक पेड़ का साया मुझको

अब भी रौशन है तेरी याद से घर के कमरे
रोशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको

मेरी ख़्वाहिश थी कि मैं रौशनी बाँटूँ सबको
ज़िन्दगी तूने बहुत जल्द बुझाया मुझको

चाहने वालों ने कोशिश तो बहुत की लेकिन
खो गया मैं तो कोई ढूँढ न पाया मुझको

सख़्त हैरत में पड़ी मौत ये जुमला सुनकर
आ, अदा करना है साँसोंका किराया मुझको

शुक्रिया तेरा अदा करता हूँ जाते-जाते
ज़िन्दगी तूने बहुत रोज़ बचाया मुझको


रचनाकार: मुनव्वर राना

सोमवार, अगस्त 24, 2009

मुझे माफ़ करना...

मैं जानता हूँ मेरी वजह से तुम दुखी हो. तुम ये बात स्वीकार नहीं करोगी लेकिन ये सच है कि कहीं न कहीं मैंने तुम्हें परेशानी में डाल दिया है. ग़लती मेरी है, मुझे तुम्हें मजबूर नहीं करना चाहिए था. मेरी भावनाओं को समझने के लिए तुमने खुद की भावनाओं की कुर्बानी देदी. मुझे ख़ुशी देने के लिए तुमने खुद की खुशियाँ कुर्बान कर दीं. मुझे पता है कि मुझे माफ़ भी नहीं किया जा सकता. मैंने तो झट तुमने माफ़ी मांग ली लेकिन शायद मैं ये भूल गया कि "माफ़ी मांगने से ज्यादा कष्टदायक होता है माफ़ करना!" मैं ये भी जानता हूँ कि तुम दुखी होने के बावजूद भी मेरे बारे में, मेरी ख़ुशी के बारे में ही सोच रही हो. तुम्हारी यही बातें तो मुझे रह-रहकर रुलाती रहती हैं. तुम ऐसी क्यों हो? ऐसा क्यों करती हो तुम? तुम्हें मेरी इतनी चिंता क्यों है? क्यों तुम हमेशा मुझे खुश देखना चाहती हो? ये सवाल अगर मैं तुमसे करुँ तो तुम यही कहोगी न कि "मैं जानता हूँ!" सच भी तो है. मैं जानता हूँ कि तुम ऐसा क्यों करती हो? पर अगर तुम्हारी जगह कोई और होता तो शायद मेरे लिए इतना नहीं करता! करता भी तो वो महज़ एक औपचारिकता होती..! बस! अब और नहीं! बहुत हो चुका! मैं तुम्हें और अधिक दुखी नहीं देख सकता. तुमसे मेरी गुज़ारिश है कि मुझे और कुश रखने की कोशिश मत करो. मैं ये चाहता हूँ कि तुम हमेशा खुश रहो. मेरी चिंता छोड़ दो. मेरे लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण तुम्हारा मेरे लिए चिंता करना है. जब भी मैं ये सोचता हूँ कि तुम मेरे बारे में कितना सोचती हो तो मेरे पास पलकें भिगोने के आलावा और कोई रास्ता नहीं बचता. और हाँ! सबसे अहम् बात : आजतक मेरी वज़ह से जानते हुए या अनजाने में तुम्हें कोई भी हुआ है तो मुझे माफ़ कर देना. मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हारे उन दुखों को कम नहीं कर सकता लेकिन मेरी ये कोशिश ज़रूर रहेगी कि आने वाले समय में अब तुम्हें कोई दुःख. कोई परेशानी न हो..!

हमेशा ही तुम्हारा
"राम"

जीने की तमन्ना कौन करे..?

मरने की दुआएँ क्यूँ मांगूँ ,
जीने की तमन्ना कौन करे|
यह दुनिया हो या वह दुनिया,
अब ख्वाहिश-ए-दुनिया कौन करे|

जो आग लगाई थी तुमने,
उसको तो बुझाया अश्कों से|
जो अश्कों ने भड़्काई है,
उस आग को ठन्डा कौन करे|


दुनिया ने हमें छोड़ा जज़्बी,
हम छोड़ न दें क्यूं दुनिया को|
दुनिया को समझ कर बैठे हैं
अब दुनिया दुनिया कौन करे||


रविवार, अगस्त 23, 2009

तुमने मेरे पथरीले घर में क़दम रखा..!

तुमने मेरे पथरीले घर में क़दम रखा
और वहाँ से एक मीठे पानी का झरना फूट पड़ा



मैं इस करिश्मे से ख़ुश हूँ और परेशान भी
अगर मुझे मालूम होता कि इस ख़ुशी की एवज़ में
उदासी तुम्हारे दिल में घर कर जाएगी
तो मैं...

गुरुवार, अगस्त 20, 2009

मुस्कुराने की आदत कविताएँ..!

आदत बना लो
हमेशा मुस्कुराने की।
कठिनाई परेशानी में
किसी के काम आने की।
परिश्रम से कर्तव्य से
जी न चुराने की।
जरा-जरा सी बात पर
हल्ला न मचाने की।
निन्दा न करने की
चुगली न करने की।
किए हुए वादे को
हमेशा निभाने की |


साभार : वेबदुनिया (The First Hindi Web Portal)

मंगलवार, अगस्त 18, 2009

संस्कारों की पाबन्दी और दिखावे का धुंध...

इंसान को अपनी ज़िन्दगी में न जाने कितने समझौते करने पड़ते हैं... कभी ख़ुद के लिए, कभी औरों के लिए तो कभी पता नही किसके लिए... लेकिन समझौता करना एक आदत बन जाती है। इंसान जब बच्चा होता है तो उसे अपने माता पिता के लिए समझौता करना पड़ता है, जब कुछ बड़ा होता है और स्कूल में जाता है तो शिक्षक के लिए, किसी से दोस्ती करता है तो दोस्तों के लिए भी समझौता करना पड़ता है। फ़िर एक दिन आता है जब उसकी शादी हो जाती है, शादी के बाद पत्नी के लिए उसे समझौता करना पड़ता है। धीरे-धीरे वक्त बढ़ता है और उसके बच्चे हो जाते हैं, फ़िर बच्चों के लिए समझौता... नवजात अवस्था, लड़कपन, किशोरावस्था, जवानी और यहाँ तक कि उम्र का अन्तिम पड़ाव बुढापा भी समझौता करने में ही बीत जाता है। फ़िर सोचिए कि इंसान की निजी ज़िन्दगी, उसकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं और तमाम अभिलाषाएं कहाँ गुम हो जाती हैं? सवाल कठिन है लेकिन इतना भी कठिन नही कि ज़वाब न हो? इसका भी ज़वाब है... और ज़वाब ये है कि उसकी सारी उमर संस्कारों के बंधन में बंधकर रह जाती है और उसे अपनी निजी ज़िन्दगी का एहसास ही नही हो पाता, वह तमाम उम्र उन्ही संस्कारों को निभाने का दिखावा करता है और उसकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं उसी दिखावे की धुंध में कहीं गुम हो जाती हैं और उसकी तमाम उम्र उन्हें तलाशने में गुज़र जाती है लेकिन धुंध इतना गहरा हो जाता है कि कुछ भी हाथ नहीं आता, सिवा दो गज ज़मीन और एक टुकडा कफ़न के...

शनिवार, अगस्त 15, 2009

तुम मुझसे जुदा नहीं...

आज उसने फिर मुझे निराश कर दिया. मैंने उसे कितनी बार कहा है कि तुम मुझसे झूठ मत कहा करो, लेकिन वो मानती ही नहीं. पता नहीं क्यों उसे मुझसे झूठ बोलना बहुत भाता है. मैंने उसे ये भी बहुत बेहतरी से समझाया है कि देखो मैं अपनी ज़िन्दगी की बड़ी से बड़ी कड़वी बात सुन सकता हूँ, सह सकता हूँ लेकिन तुम्हारा एक झूठ मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता. वह कई बार उल्टे मुझसे ही पूंछ बैठती है कि आप ऐसा क्यों कहते रहते हैं..? अरे! इसमें पूछने वाली कोई बात है क्या..? तुम बहुत अच्छे से जानती हो कि मैं ऐसा क्यों कहता हूँ. हम जिस रिश्ते को मजबूती देने जा रहे हैं, उसकी आधारशिला है हम दोनों के बीच विश्वास का होना. अगर हमारे बीच विश्वास नहीं होगा तो हम इस रिश्ते को लेकर दो कदम भी साथ नहीं चल पाएँगे. हमें ज़िन्दगी भर साथ चलना है और अगर संभव हो सका तो ज़िन्दगी के बाद भी साथ-साथ चलेंगे. पर अगर वो मुझसे ऐसे झूठ कहते रहेगी तो मैं कहाँ तक इस रिश्ते को मजबूती दें पाऊंगा..? खैर! मैं उस पर कोई दबाव भी तो नहीं डाल सकता..! ये वो भी बहुत अच्छे से जानती है. न तो मैं कभी उससे ज़बरदस्ती कोई बात कह सकता हूँ. इस बात का भी उसे बहुत अच्छे से पता है. मुझे ये पता है कि वो तभी झूठ बोलती है जब उसमे मेरी कोई बेहतरी जुडी होती है. उसने मुझसे कई बार कहा भी है. मैंने भी उसे बहुत दफा समझाया है कि देखो अगर मेरी अच्छाई के कारण तुम्हें झूठ बोलने के लिए मजबूर होना पड़े या तुम झूठ बोलो तो ये मुझे कतई रास नहीं आएगा. मैं कभी नहीं चाहूँगा कि मेरी भलाई के लिए तुम्हें झूठ का सहर लेना पड़े. लेकिन जब भी वो मेरी भलाई के बारे सोचती है तो उसे मेरी बातों कि भी कोई परवाह नहीं होती. वो वाकई में बेहद मासूम है. तभी तो उसकी मासूमियत मेरी पलकें भिगो देती है. जब कभी उदास होती है और मैं उससे पूछता हूँ कि क्या हुआ? तो झट से आंसू पोंछते हुए बोलेगी - किसे क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं!! मैं बिलकुल ठीक हूँ. जबकि उसे बहुत अच्छे से पट होता है कि मैं ये बहुत अच्छे से जानता हूँ कि मुझे उसकी उदासी कि वज़ह मालूम है. फिर भी वो खुद अपनी जुबान से बोलकर मुझे परेशान नहीं करना चाहती. उसकी इन्ही बातों ने आज मुझे रुला दिया. आज मेरी अंतरात्मा ने मुझसे कहा कि मैं बेहद स्वार्थी हूँ. मैं स्वार्थी हूँ इसलिए क्योंकि वो मेरी ख़ुशी के लिए खुद दुखों के समुन्दर में छलांग देती है. मैं स्वार्थी हूँ क्योंकि ख़ुशी को मेरा पता बताने के लिए वो ग़मों का स्वागत अपनी चौखट पर करती है. मैं स्वार्थी हूँ क्योंकि उसे मेरी ख़ुशी के लिए रोना पड़ता है.क्यों आखिर क्यों..?? वो ऐसा क्यों कर रही है..? वो क्यों मेरे बारे में सोचती है..?? वो ये क्यों नहीं सोचती कि मैं भी उसकी उतनी ही परवाह करता हूँ जितना कि वो मेरा..!!

बुधवार, अगस्त 12, 2009

अंधियारी रात और उजियारे की आस...

कई दिनों से मेरा मन मेरे दिमाग पर हावी हो रहा है. कारण जानने की कोशिश की तो कुछ ख़ास हाथ नहीं आया. बस बेबसी और मायूसी के सिवा. मैंने अपने मन पर काबू पाने के सारे उपाय अपना लिए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. रोज़ रात को यह सोचकर सोता हूँ कि अगली सुबह एक नई ताजगी और स्फूर्ति के साथ दिन की शुरुआत करूंगा लेकिन हर अगली सुबह ठीक वैसी ही होती है जैसे कि पिछली सुबह थी, उदास और ग़मगीन. धीरे-धीरे समय बीतता जा रहा है और समय के साथ बढ़ता जा रहा है तनाव. एक ऐसा तनाव जो पता नहीं कब ख़त्म होगा. खत्म होगा भी या नहीं..? ये वक्त की बात है, फिलहाल तो यह ख़त्म होने का नाम ही ले रहा है. इतना तनाव मेरे जीवन में कभी नहीं आया. शायद इसीलिए मैं ज़रा विचलित सा हो गया हूँ. क्या ऐसा सबके साथ होता है या फिर मैं इसका पहला शिकार हूँ..? हालाँकि खुद के बनाए हुए रिश्तों को निभाने के लिए इतना तनाव झेलना लाजिमी है. माँ, बाप, भाई, बहन जैसे रिश्ते तो खून के रिश्ते हैं, इन्हें तो रोकर या हंसकर, मरकर या जीतेजी निभाना ही पड़ेगा, लेकिन खुद के बनाए हुए, निजी रिश्तों को निभाने के लिए बहुत सारी झंझटों और अनावश्यक तनावों का सामना करना पड़ता है. इन रिश्तों को हंसते हुए और जीतेजी ही निभाना पड़ता है. फिलहाल तो वही कर रहा हूँ. शायद कोशिशों में कुछ कमी है. इसीलिए वक़्त मुझसे ज़रा आगे है. खैर! अब जब दिल लगाने की जुर्रत कर ही ली है तो अंजाम की परवाह करना कायरता होगी. मैं महज़ तनाव के गिरफ्त में जकडा हुआ हूँ. हारा नहीं हूँ और न ही हारूँगा. अगर इस रिश्ते की बुनियाद मैंने रखी है तो इसे एक बेहतर अंजाम तक पंहुचाकर ही दम लूँगा. इसमे कई रोडे आएँगे, मैं इससे भलीभांति परिचित हूँ. इसके लिए मैंने अपने मन को तैयार करना भी धुरु कर दिया. बस दुआ कीजिए कि मेरा मन मेरे आदेशों का पालन करे और वक्त आने पर मुझे मार्गदर्शित करे. बाकी मैं संभाल लूँगा.
शुभरात्रि!!!

गुरुवार, अगस्त 06, 2009

काश! ये न होता..??





क्यों किसी की याद रुलाती है बार-बार?
क्यों किसी की याद सताती है बार-बार?

जो साथ हो दिल में उमड़ती है ख्वाहिशें!
जो दूर हो तो पलकें भीगती हैं बार-बार?

परछाइयों में भी उसका ही चेहरा उभरता है!
सूरज की रौशनी में भी दिखता उसी का प्यार!

कुछ सोचकर अचानक सिहर जाता है ये दिल!
क्यों हर घडी तुम्ही पे आता है ये बार-बार?

हर बार कहता हूँ कि भुला दूंगा अब तुम्हें!
पर सच कहूं तो झूठ ही कहता हूँ बार-बार!

रविवार, अगस्त 02, 2009

इस पराए शहर में...

कई साल पहले

अपने समय के

तमाम जवान लड़कों की तरह

मैं भी निकला था घर से

झोले में कुछ

काग़ज के टुकड़े डालकर

पर छोड़िए

इस कहानी में

कुछ भी नया नहीं है

आप बतलाइये

आप कब

और क्यों आए

इस पराये शहर में।॥?

शनिवार, अगस्त 01, 2009

कॉलेज का तीसरा दिन और...

बात उन दिनों की है जब मैंने अपने Home Town डिंडोरी के एकमात्र महाविद्यालय सीवी कॉलेज में BSc फर्स्ट इयर में दाखिला लिया था. मैं पत्रकारिता जगत और पत्रकारिता के कोर्स में आने से पहले BSc का छात्र था. कॉलेज में तीसरा दिन था. मैंने अभी तक किताबे नहीं खरीदी थी. इसलिए महज़ एक कोरे पन्नो वाली कापी लेकर Chemistry की क्लास में बैठ गया. आगे लिखने से पहले मैं बता दूं कि स्कूल लाइफ में मेरा रिकार्ड एकदम साफ़ था यानि पढने लिखने के साथ-साथ अन्य गतिविधिओं में भी मैं A+ ग्रेड लाता था (मात्र डांसिंग छोड़कर). मेरी क्लास में लगभग सभी क्लासमेट्स 12th के ही थे. सब मुझे बहुत अच्छे से जानते थे. हमारी क्लास में Chemistry रचना मेडम पढाती थी. उन्होंने सबसे पहले नए छात्रों का Intro लिया फिर Logrithem पढाना शुरू किया. हमारी क्लास में रचना मेडम का पहला दिन था. इसलिए उन्होंने Basic से पढाना शुरू किया. सबसे पहले उन्होंने Log10 का मान पूछा. हम में से बहुतों को उसका मान मालूम था लेकिन नई नवेली मेडम को देखकर कोई भी हाथ नहीं उठा पाया. मैं भी नहीं. हम लोग न तो उनके स्वभाव से परिचित थे और न ही उनकी बोली-भाषा से. इसलिए हम सभी चुप बैठे थे और अपना नंबर आने का इंतज़ार कर रहे थे. मैं भी उन्ही में से था और सोच रहा था की मेडम मुझसे पूछें। काफी देर हो गई पर मेरा नम्बर नहीं आया. अचानक मेरा ध्यान क्लासरूम से निकल बाहर क्रिकेट ग्राउंड की ओर चला गया और मैं खिड़की से बाहर झाँककर Match देखने लगा. ठीक उसी वक़्त मुझे ऐसा सुनाई पड़ा मानो किताबों का ज़िक्र चल रहा है. मेरे एक मित्र ने भी मुझसे ऐसा ही कुछ कहा. उसी समय मेडम की मेरी ओर निगाहें पड़ी. मैं बाहर की ओर झांकता हुआ उन्हें खेल देखने में व्यस्त नज़र आया. उन्होंने बड़ी जोर से मेरा नाम पुकारते हुए Log10 का मान पूछा! चूंकि मेरा ध्यान कही और था और ठीक उसी वक़्त किताब खरीदने का ज़िक्र हो रहा था तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेडम मुझसे किताबों के बारे में पूछ रही हैं. मैंने झट ही उत्तर दिया - No Maam! मेरा No कहते ही मेरे सारे क्लासमेट्स टकटकी लगाए मेरी ओर देखने लगे. उनके चेहरे पर आश्चर्य की छाया थी. वो सोच रहे थे की जिसने हमें Log का पूरा Table याद कराया है वही Log10 का मान नहीं बता पा रहा है. लेकिन बात तो कुछ और ही थी. खैर! मेडम को मेरा उत्तर सटीक नहीं लगा और उन्होंने मुझे ust Get Out Of The Classroom का आदेश दें डाला. इतना सुनते ही मैं दंग रहा गया और अपने चारों ओर देखने लगा. ठीक उसी वक़्त एक ने झट ही मुझसे कहा - भाई! मेडम Log10 का मान पूछ रही हैं. मैंने मेडम को कोई सफाई न देते हुए Log10 is equal to ONE कहते हुए क्लासरूम से बाहर निकल गया.

यादें...!


यादें... यादें दो तरह की होती हैं; एक अच्छी यादें, दूसरी बुरी यादें. अच्छी यादें उन खुशबूदार फूलों की तरह होती हैं जिन्हें अगर कोई हमारी तरफ फेंकता है तो वो हमारी धडकनों से टकराकर हमारी रूह को तक महका देती हैं. बुरी यादें; बुरी यादें उन कंटीले पत्थरों की तरह होती हैं जो हमसे टकराकर एक अनकहा और कभी न भुला सकने वाला दर्द पैदा करती हैं. पर विडंबना ये है कि हम मनुष्य हैं और हमारी ज़िन्दगी इन दोनों यादों के बगैर नहीं चल सकती.

बुधवार, जुलाई 29, 2009

कैसे कह दूँ कि वो पराया है...

जिसका साँसों ने गीत गाया है
कैसे कह दूँ कि वो पराया है
याद बे इख्तियार आया है
मेरी रग-रग में जो समाया है
कैसा रिश्ता है उस से क्या मालूम
जिसने ख्वाबों में भी रुलाया है
ऐसे सहरा से है गुज़र जिसमें
दूर तक पेड़ है न साया है
बंद पलकों में उसकी हूँ मैं 'ज़हीन'
उसने मुझको कहाँ छुपाया है

मंगलवार, जुलाई 28, 2009

सभ्यता की शक्ल...

आज हर होनी अनहोनी हो रही है।
सभ्यता की शक्ल रोनी हो रही है॥

बढ़ रही है खजूरों की ऊँचाई।
हर गुलाबी नस्ल बौनी हो रही है॥

अब साँसों का कोई शौक नही...

अब साँसों का कोई शौक नही, परवश लेते हैं।
जिन्हें दूध देकर पालो वो खेल-खेल में डंस लेते हैं॥

आ लगी अब ज़िन्दगी शर्मिंदगी की मोड़ पर।
जिन बातों पर रोना आए, हम उन पर अब हंस देते हैं॥

धिक्कार सौ सौ बार...

धिक्कार सौ-सौ बार इस इंसान को।
नीलाम करने जो खड़ा ईमान को॥

स्वर्ण की लंका की सुरक्षा के लिए अपनी।
इसी ने पत्थरों में बो दिया भगवान् को॥

रविवार, जुलाई 26, 2009

अब न आरजू है, न तमन्ना है कोई...

न आरजू है न तमन्ना है कोई।
अब इस दिल को दिल मिल गया कोई॥


इंतज़ार था सदियों का मेरे जीवन में।
उसे एक झटके में पूरा कर गया कोई॥

अक्सर सोचता रहता था मैं तन्हाई में।
मैं तन्हा क्यों हूँ, मुझे आज तक क्यों नही मिला कोई॥

वो क्या आई ज़िन्दगी में फूल खिल गए लाखों।
सूखे बाग़ में एक प्यार का पौधा लगा गया कोई॥

अब अगर ये सपना है तो ये सदा रहे मेरा।
जो भी हो पर प्यार का मुझे खाब दिखा गया कोई॥

आज इस दिल की धडकनों को धड़कना सिखा गया कोई॥
मेरी आंखों में मोहब्बत के प्यारे ख्वाब सज़ा गया कोई॥

शनिवार, जुलाई 25, 2009

कुछ कम है...

ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है.
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है..

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है.
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है..

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी.
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है..

अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में.
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है..

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब.
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है..


रचनाकार: शहरयार

गुरुवार, जुलाई 23, 2009

आदमी की पीड़ा...

वक्त के धरातल पर
जम गई हैं
दर्द की परतें
दल-दल में धंसी है सोच
मृतप्रायः है एहसास
पंक्चर है तन
दिशाहीन है मन
हाडमांस का
पिजरा है मानव
इस तरह हो रहा है
मानव समाज का निर्माण
अब
इसे चरित्रवान कहें
या चरित्रहीन
कोई तो बताए
वो मील का पत्थर
कहाँ से लाएं
जो हमें
"गौतम", "राम", "कृष्ण" की राह दिखाए..?

ज़िन्दगी क्या है..?

ज़िन्दगी फ़क़ीर बनके रह गई

साँस की लकीर बनके रह गई

ऐसा भी क्या गुनाह था

कि पीर-पीर...

द्रौपदी का चीर बनके रह गई॥!..?

आओ! जश्न मना लो...

हम सहस्राब्दी में आ गए
बेबसी, बेकारी, भुखमरी
जिल्लतें, दर्द और ग़म भी
हमारे साथ-साथ
यहॉ तक आ गए
समय चीखकर
कह रहा है
इस व्यवस्था को
बदल डालो
नेता कहते हैं
हमारी करतूतों पर
परदा डालो
आओ!
सहस्राब्दी का जश्न मना लो...

मंगलवार, जुलाई 21, 2009

वक़्त बदलेगा, मंज़र भी बदल जाएँगे...

आज सुबह से ही वो बहुत परेशान थी। मैं अपने बिस्तर पर सोया हुआ था। सुबह के लगभग ग्यारह बजे होंगे कि मेरे सेलफोन की घंटी बजी। मैंने देखा उसी का मिस्ड काल था। मैंने वापस फोन किया। उधर से एक परेशान सी आवाज़ में उसने मेरा हालचाल पूछा। मैंने अपनी सलामती बताई और उससे काल करने का कारण पूछा। बड़ी ही सहमी सी आवाज़ में उसने मुझे अपनी समस्या बताई। उसकी समस्या सुनकर मैंने उसे समझाते हुए कहा कि इन बातों का कोई औचित्य नही है। इसलिए इन बातों को भूल जाओ। पर उसने एक ऐसी बात कह दी कि मैं फ़िर कोई ज़वाब न दे सका। उसकी बातों में उलझता जा रहा था। उसकी बातों में छिपे सवालों का मैं कोई ज़वाब नही दे पा रहा था। मैं उसे ठीक वैसे ही समझाते जा रहा था जैसे प्रवचन या सत्संग कार्यक्रम में कोई साधू या स्वामी जी कहते हैं कि "सदा सत्य बोलो, झूठ बोलना पाप है।" अब आप ही बताइए उस वक़्त जब मो मुझसे अपनी परेशानी साझा कर रही है तब इन बातों का अस्तित्व कहाँ तक है? कोई आपसे अपनी समस्याएं बता रहा है और आप उसे प्रवचन सुना रहे हैं तो आपसे उसकी अपनी परेशानी साझा करने का क्या मतलब है? उसने मुझसे कहा कि "आपके और मेरे रिश्ते को लेकर मैंने कुछ असहनीय बातें सुनी हैं। आप तो लड़के हैं और आप इन बातों का उत्तर समाज को बेफिक्री से दे सकते हो लेकिन मैं तो लड़की हूँ न, और एक लड़की के लिए यह सब सुन पाना कितना दुखद होता है इसका अंदाजा एक लड़की ही लगा सकती है। जबकि मैं जानती हूँ कि आप मेरे लिए कितना महत्व रखते हैं और लोग जैसी बातें कर रहे हैं वैसा कतई नही है। इस बात में ज़रा भी सच्चाई नही है। मुझे आपकी चिंता अधिक है। इसलिए मेरा मन इस बात को गंवारा नही करता करता और परेशान हो जाता है।" सच! कितनी मासूमियत है इन लाइंस में? बस उसकी इसी मासूमियत ने ही तो मुझे निरुत्तर कर दिया था। उसकी इन सारी बातों के बदले मैंने सिर्फ़ इतना ही कहा कि "तुम जानती हो न, कि हमारा रिश्ता क्या है? जब हम दोनों (जिन्हें रिश्ता निभाना है) को पता है कि हमारा रिश्ता ग़लत नही है तो फ़िर लोगों के कह देने भर से कि हमारा रिश्ता सही नही है, क्या हमारा रिश्ता बदल जाएगा या फ़िर ग़लत हो जाएगा क्या?" मेरी इस बात से शायद उसे कुछ तसल्ली हुई। उसकी बातों से मुझे परेशानियों का जाना स्पस्ट समझ में आया। उसके बोलने का लहजा भी बदला और फ़िर वो धीरे-धीरे सामान्य होने लगी। उसकी परेशानी तो लगभग जा चुकी थी या फ़िर अब तक जा चुकी होगी होगी लेकिन मैं अभी तक उसकी मासूम बातों और निःस्वार्थ सवालों के बीच ख़ुद को फंसा हुआ महसूस कर रहा हूँ। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि उसकी सारी परेशानिया मुझे देदें और मेरे सारे उल्लास, मेरी सारी खुशियाँ उस तक पहुँचा दें!!! क्योंकि मैं भले ही उसके लिए इस दुनिया का एक हिस्सा हूँ, पर मेरे लिए वो ही पूरी दुनिया है...

सोमवार, जुलाई 20, 2009

एक "चाँद" आसमान से विदा हो गया...


महज़ सत्रह दिन बाद यानि चार अगस्त को उनका जन्मदिन आने वाला था। अभी जून की ग्यारह तारीख की शाम को ही उन्होंने मुझसे बात की थी। उस दिन वो काफी खुश थे। फोन पर "हेलो" बोलते ही उन्होंने कहा "छोटे! खुशखबरी है!" मैंने खुश होते हुए कहा "क्या भैया?" उन्होंने कहा "तेरे भाई ने PSc का प्री एग्जाम पास कर लिया है। अब दुआ कर कि मेन्स में भी पास हो जाऊँ! और सुन एक और खुशखबरी है! SBI में भी मेरा सेलेक्शन हो गया है! मैं ख़ुशी से झूम उठा और कहा कि वाह! भैया क्या बात है!! CONGRATULATIONS! अब तो मिठाई की बनती है! उन्होंने उतनी ही ख़ुशी से कहा "अब इसमें कौन सी बड़ी बात है। मैं 25 जुलाई को जबलपुर आ रहा हूँ न! मिलते हैं! इसके बाद उन्होंने मेरी पढाई के बारे में पूछा और फिर इधर-उधर कि बातें होने लगी।
दिन था 18 जुलाई का, शनिवार! मैं अपने ऑफिस में कंप्यूटर स्क्रीन पर नज़रे गडाये उनके ब्लॉग http://swasamvad.blogspot.com/ पर उनकी रचनाएँ पढ़ रहा था। सच में कितना प्यारा लिखते थे वो। जादू था उनकी लेखनी में। उस वक़्त रात के लगभग साढ़े दस हो रहे थे। अचानक मेरे सेलफोन की घंटी बजी। मेरे एक दोस्त रमन का काल था। काल मिस हो जाने के बाद मैंने कालबैक किया। अमूमन काल कनेक्ट होने के बाद HELLO ही सुनाई देता है लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। उस तरफ से रमन की घबराई हुई आवाज़ से निकले हुए शब्द थे "कुछ खबर मिली क्या?" मैंने बड़ी व्याकुलता और भय से पूछा "क्या?" उसने कहा "'विकास भैया' की DEATH हो गई"। इतना कहना हुआ ही था कि मेरे तो पैर ही ठंडे पड़ गए। एक पल के लिए मुझे लगा कि मेरे शरीर से मेरी आत्मा विदा हो गई। पैरों तले ज़मीन खिसक गई और मैं हतप्रभ रह गया। उन्हें इस संसार से विदा हुए अभी कुछ ही घंटे हुए हैं। अभी भी उनकी वो हंसती-मुस्कुराती सूरत मेरे दिमाग में क़ैद है और मुझे, मेरे मन को बार-बार रुला रही है। वो भोपाल में रहकर PSc MAINS की तयारी कर रहे थे.
शनिवार, 18 JULY का दिन उनके और हम सभी के लिए एक "काला दिन" था। भोपाल के पास ही मिसरौद रोड पर एक सड़क हादसे में उनकी और हमारे एक अन्य सीनियर संकल्प रंजन शुक्ला की दर्दनाक मौत हो गई। ईश्वर इतना भी कठोर हो सकता है, मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी? खैर! वो जितनी उम्र लेकर आये उतना ही जिए। अंत में मेरे प्यारे "विकास भैया" के लिए इतना ही कहूंगा कि
"कुछ लोग हैं जो वक़्त के सांचे में ढल गए, कुछ लोग थे जो वक़्त के सांचे बदल गए।" अब वो भौतिक रूप से तो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियाँ सदा ही हमारे बीच रहेंगी। प्यारे भैया आपको हम सभी छोटे भाइयों, आपके चाहने वालों और आपके तमाम साथियों की ओर से "अश्रुपूरित श्रद्धासुमन"। आप अगले जनम में जहाँ भी जाएं, हमेशा खुश रहें और आपको हमारी भी उम्र लग जाए...
"ये कौन चला श्रृंगार करके? बहार क्यों लजा गई?बस इतनी सी बात है, किसी की आँख लग गयी, किसी को नींद आ गयी!!!

शनिवार, जुलाई 18, 2009

घर से निकले थे हौसला करके...

सच ही कहा गया है कि इंसान अपने मन का कैदी, मन का गुलाम होता है। किसी वस्तु या व्यक्ति या अन्य किसी चीज़ को पाने के लिए एक बच्चे की तरह मचल जाता है। Object कोई भी हो, उसके लिए Subject एक ही रहता है और वह Subject होता है "जो चाह लिया है उसे पाना है"। क्या पाना है यह हुआ Object और कैसे पाना है यह Subject हुआ। तो किसी भी चीज़ को चाह लेने के बाद बस पाना है और पाकर रहना है, यही उसका यानि मन का ध्येय बन जाता है। यह तो हुई "ऐकिक" प्रकार की गुलामी। अब बात आती है इंसानी मन की भावनाओं की; बात शुरू करता हूँ आज के परिवेश यानि Culture को लेकर! आज हम अपने चारों ओर देखते हैं कि पश्चिमी सभ्यता हम पर पूरी तरह हावी है। यह भी कह सकते हैं कि हमने इसे ख़ुद पर हावी होने दिया है। कुछ ऐसे भी इंसान हैं जो इसे हावी होने का कोई मौका ही नही देते , पर उनकी संख्या अँगुलियों पर है। हाँ! तो मुद्दे कि बात यह है कि आज का युवा अपने "मन" को एक ऐसे ढलान पर उतार देता है जो सीधे किसी "खूबसूरत लड़की" पर जाकर ख़त्म होता है। हमारे युवा मित्र ने एक लड़की पसंद कर ली और उसे इम्प्रेस करने में लग गए। बंधू कि किस्मत ने साथ दिया और लड़की ने भी उनको पसंद कर लिया। फोन पर बातें भी होने लगी। मिलने लगे और साथ-साथ घूमना-फिरना भी शुरू हो गया। बात बहुत आगे बढ़ गई और दिन-ब-दिन नजदीकियां भी बढ़ने लगी। भाई उस लड़की की यादों में खो गया। अब उसे उस लड़की के अलावा न दिखाई देता है और न ही कोई समझ में आता है। सारे रिश्ते-नाते, घर-परिवार एक तरफ़ और वह लड़की एक तरफ़। न जाने उस लड़की में ऐसा क्या है, जिसने उसे घर-परिवार तक को भूलने पर विवश कर दिया। खैर! जो भी हो पर हमारा यह युवा मित्र "प्यार" की जाल में फँस गया है। अब उसे सिर्फ़ वही लड़की चाहिए। वह उस लड़की को चाहने लगा है। इतना चाहने लगा है उसे सिर्फ़ उसी की चाहत है। यहाँ पर हमारे मित्र का Subject है वह लड़की और ऑब्जेक्ट है उसे पाना। फिर अचानक पता नही क्या हो जाता है ? जो लड़की हमारे युवा मित्र को घर-परिवार से भी बढ़कर लगने लगती है वाही अब उसके "मन" को नही भा रही है। वाह! भाई क्या बात है ? अब हमारे मित्र की वह "ऐकिक" प्रकार की गुलामी खत्म होने लगती है। अब वह जकड़ता जाता है "अनैक्षिक" गुलामी में। किसी ने पूछा अबे अचानक तुझे क्या हो गया? तो हमारा युवा मित्र बहुत ही उदासी से ज़वाब देता और कहता है यार! कल मैंने उसके सेल पर किसी लड़के का मेसेज देखा! मैसेज पढ़कर मेरा दिल रो पड़ा यार, ऐसा मैसेज था। बस फ़िर मैंने ठान लिया की अब न तो उससे बात करूंगा और न ही कोई मैसेज भेजूंगा। दिल तो नही मान रहा हमारे मित्र का, पर क्या करें। किसी लड़के का भाई की गर्लफ्रेंड के सेल पर मैसेज क्या देख लिया, होश उड़ गए। अब आप ही बताइए... ऐसा भला "प्यार" होता है क्या???
अब क्या होता है कि हमारे युवा मित्र चले थे लड़की को हासिल करने और उल्टे पैर लौट आए। इस वक़्त जगजीत सिंह जी का गाया हुआ ये ग़ज़ल खूब जमता है :
"घर से निकले थे हौसला करके।
लौट आए खुदा-खुदा करके॥"

शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

रामायण का एक सीन...

रुखसत हुआ वो बाप से लेकर खुदा का नाम।

राह-ए-वफ़ा की मन्ज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम॥

मन्ज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतज़ाम।

दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम॥!॥

रचनाकार - पं ब्रजनारायण ’चकबस्त’

यह भी तो "प्यार" ही है न..!!!

बात उस समय की है जब मैं अपने ग्रेजुएशन के चौथे सेमेस्टर की परीक्षाएं दे रहा था. उस वक़्त मेरी तबियत काफी बिगड़ी हुई थी, इसलिए मेरी देखभाल के लिए मेरी माँ भी मेरे साथ ही थीं. उस दिन मेरा तीसरा या चौथा पेपर था. हम लोग एग्जाम हाल से पेपर देकर निकले. बारिश भी अपने पूरे शवाब पर था. ठीक उसी वक़्त मेरा शरीर गर्म होने लगा. मुझे काफी तेज़ बुखार हो चला था. ठण्ड भी इतनी लग रही थी मानो मैं कडाके की ठण्ड में बिना कपडों के खडा हूँ. दम निकला जा रहा था. मुझे बस यही चिंता सताए जा रही थी कि मैं घर कैसे पहुंचूंगा? इतने में ही मेरे एक अभिन्न और अज़ीज़ मित्र ने मुझे कांपते हुए देखा. वो मेरे पास आया और मेरा माथा छूने लगा. वो भी दंग रह गया. उसने कहा "राम" तुझे तो काफी तेज़ बुखार है. मैंने दबी जुबान से स्वीकृति दी. उसने झट ही अपना रेनकोट मुझे दे दिया और पहनने को कहा. मैंने कहा भी कि तुम क्या पहनोगे? उसने कहा अभी मुझसे ज्यादा इसकी ज़रूरत तुझे है. उसने बाईक स्टार्ट की, मुझे बैठने को कहा और तेजी से मेरे घर की ओर रुख किया. बारिश की बूंदों की हिमाकत बढती जा रही थी, लेकिन उसे उन बूंदों की परवाह नहीं थी. उसे परवाह थी तो सिर्फ "राम" की. करीब बीसेक मिनट में हम लोग मेरे घर पहुँच गए. माँ भी बेसब्री से मेरी राह ताक रही थी. उन्होंने जैसे ही हम दोनों को देखा. उनकी आँखों में नमी ने पनाह पा लिया. वो रोने लगीं. क्यों रोयीं..? मुझे देखकर..! नहीं...! वो रोयीं थीं "राम" और "ज्ञान" का "प्यार" देखकर. उन्होंने देखा कि कैसे "ज्ञान" ने "राम" की परवाह की..? कैसे "राम" की हालत देखकर "ज्ञान" ने खुद की फिक्र नहीं की और "राम" को सही सलामत घर पहुँचाया. सच कहता हूँ, उस दिन "ज्ञान" ने मुझे इस तरह से रेनकोट पहनाई थी की उतनी तेज़ बारिश में भी मैं ज़रा भी नहीं भीगा था. हम दोनों की हालत पर मेरी माँ ने गौर किया और "ज्ञान" का सिर पोंछते हुए उसे सीने से लगा लिया.

जवानी का बहिष्कार : "प्यार"

सूखी
गुलदस्ते सी
प्यार की नदी
****

व्यक्ति
संवेग सब
मशीन हो गए
जीवन के
सूत्र
सरेआम खो गए

****
और कुछ न कर पाई
यह नई सदी

****
वर्तमान ने
बदले
ऐसे कुछ पैंतरे
****

आशा
विश्वास
सभी पात से झरे

****
सपनों की
सर्द लाश
पीठ पर लदी।

बुधवार, जुलाई 15, 2009

आरजू है वफ़ा करे कोई...|||

आरजू है वफ़ा करे कोई।
जी न चाहे तो क्या करे कोई॥
गर मर्ज़ हो दवा करे कोई।
मरने वाले का क्या करे कोई॥
कोसते हैं जले हुए क्या-क्या।
अपने हक़ में दुआ करे कोई॥
उन से सब अपनी-अपनी कहते हैं।
मेरा मतलब अदा करे कोई॥
तुम सरापा हो सूरत-ए-तस्वीर।
तुम से फिर बात क्या करे कोई॥
जिस में लाखों बरस की हूरें हों।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥

मंगलवार, जुलाई 14, 2009

बना-बना के तमन्ना मिटाई जाती है...

बना-बना के तमन्ना मिटाई जाती है।
तरह-तरह से वफ़ा आज़माई जाती है॥
जब उन को मेरी मुहब्बत का ऐतबार नहीं।
तो झुका-झुका के नज़र क्यों मिलाई जाती है॥
हमारे दिल का पता वो हमें नहीं देते।
हमारी चीज़ हमीं से छुपाई जाती है॥
'शकील' दूरी-ए-मंज़िल से ना-उम्मीद न हो।
मंजिल अब आ ही जाती है अब आ ही जाती है॥

...उस हँसी को ढूँढ़िए..!!!



जो रहे सबके लबों पर उस हँसी को ढूँढ़िए।

बँट सके सबके घरों में उस खुश़ी को ढूँढ़िए॥

देखिए तो आज सारा देश ही बीमार है।

हो सके उपचार जिससे उस जड़ी को ढूँढ़िए॥

काम मुश्किल है बहुत पर कह रहा हूँ आपसे।

हो सके तो भीड़ में से आदमी को ढ़ूढ़िए॥

हर दिशा में आजकल बारूद की दुर्गन्ध है।

जो यहाँ ख़ुशबू बिखेरे उस कली को ढूँढ़िए॥

प्यास लगने से बहुत पहले हमेशा दोस्तों।

जो न सूखी हो कभी भी उस नदी को ढूँढ़िए॥

शहर-भर में हर जगह तो हादसों की भीड़ है।

हँस सकें हम सब जहाँ पर उस गली को ढूँढ़िए॥

क़त्ल, धोखा, लूट, चोरी तो यहाँ पर आम हैं।

रहजनों से जो बची उस पालकी को ढूँढ़िए॥

शुक्रवार, जुलाई 10, 2009

दिल में न हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती...


दिल में न हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती।
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती।
कुछ लोग यूँही शहर में हमसे भी ख़फा हैं।
हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती।
देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद।
वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती।
हंसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत।
रोने को यहाँ वैसे भी फुरसत नहीं मिलती।

गुरुवार, जुलाई 09, 2009

माँ और पिताजी...





माँ
चिंता है, याद है, हिचकी है।
बच्चे की चोट पर सिसकी है।
माँ चूल्हा, धुआं, रोटी और हाथों का छाला है।
माँ ज़िन्दगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है।
माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है।
माँ फूँक से ठंडा किया हुआ कलेवा है।

पिता
पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान हैं।
पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान हैं।
पिता से बच्चों के ढेर सारे सपने हैं।
पिता हैं तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं।



Ask - स्वर्गीय कवि ॐ व्यास "ॐ''

मंगलवार, जुलाई 07, 2009

ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली...

ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली।
पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली।
दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली।
देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली।
इस तरह से दोस्ती सबसे निभाई उम्र ने
पहले तो बचपन चुराया फिर जवानी छीन ली।
पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली।
दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली।
देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली।
इस तरह से दोस्ती सबसे निभाई उम्र ने
पहले तो बचपन चुराया फिर जवानी छीन ली।

वो जब याद आया...


दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया
आज मुश्किल था सम्भलना ऐ दोस्त
तू मुसीबत में अजब याद आया
दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
फिर तेरा वादा-ए-शब याद आया
तेरा भूला हुआ पैमान-ए-वफ़ा
मर रहेंगे अगर अब याद आया
फिर कई लोग नज़र से गुज़रे
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया
हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया
बैठ कर साया-ए-गुल में "नासिर"
हम बहुत रोये वो जब याद आया..!!

शनिवार, जुलाई 04, 2009

प्यार कहता है...



यह बेवकूफ़ी है
समझदारी कहती है
यह वो है जो वो है
प्यार कहता है
यह बदक़िस्मती है
हिसाब कहता है
यह दर्द के सिवाय
कुछ नहीं है
डर कहता है
यह उम्मीदों से खाली है
बुद्धिमानी कहती है
यह वो है जो वो है
प्यार कहता है
यह बेतुका है
अभिमान कहता है
यह लापरवाही है
सावधानी कहती है
यह नामुमकिन है
तजुर्बा कहता है
यह वो है जो वो है
प्यार कहता है
मूल जर्मन भाषा से अनुवाद

रविवार, जून 28, 2009

सबके दिल से उतर गया हूँ मैं...

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं
क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं
अब है बस अपना सामना दरपे
शहर किसी से गुज़र गया हूँ मैं
वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही घमजे
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं
अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं
कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं
तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं...

शनिवार, जून 27, 2009

मर्द-ए-बाख़ुदा...

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है
जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है
मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है
बन्दे की वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत है
कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्द'अ हो जा
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा हो जा
उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई
भरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना हो जा

रविवार, जून 21, 2009

प्रेम पिता का...


A VERY VERY HAPPY FATHER's DAY TO ALL...!!!

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी
दुनिया-भर के पिताओं की लम्बी कतार में
पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वाँ नम्बर है मेरा
पर बच्चों के फूलोंवाले बग़ीचे की दुनिया में
तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए
मुझे माफ़ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था
मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी तुम्हारी
अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो
मैं ख़ुश हूँ सोचकर
कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई..!!

FATHER'S डे...


WISH YOU ALL BLOGGER'S A VERY-VERY AND UNFORGATABLE FATHER'S DAY..!
21 जून, जिसे हम FATHER'S DAY के रूप में जानते हैं... मनाते हैं तो नही कह सकता... क्योंकि मुझे नही लगता कि सच में कोई मनाता होगा... हो सकता है ये बात कई लोगों को ग़लत लगे या फ़िर इससे किसी के मन को आघात पहुँच सकता है... मैं उन तमाम लोगो से इस बात के लिए क्षमा चाहता हूँ... माफ़ कीजिएगा... लेकिन जो सच है वही लिख रहा हूँ... महज़ SMS कर देने से या फ़िर HAPPY FATHER'S DAY बोल देने से इस दिन का महत्व नहीं बढ़ जाता... अब आप कहेंगे कि "तो भैया तुम ही बता दो न, कैसे बढाएं इस दिन का महत्व..?" मेरा ज़वाब होगा कि पिता आपके भी होंगे अपने हिसाब से तय कीजिए... भई! मैं तो अपनी समझ और उम्र के हिसाब से अपना काम करता हूँ... यकीन न हो किसी दिन मेरे साथ मेरे घर चलिए... आप जान जाएँगे कि कैसे मुझे देखते ही मेरे पिता कि आँखों में आंसू की चमकदार बूंदे पनाह पा लेती हैं... उस वक़्त वो मुझसे ठीक वैसे ही मिलते हैं जैसे कोई सदियों का प्यासा पानी से... खैर अपने पिता के बारे में तो सिर्फ इतना कहूँगा कि I LOVE MY PAPA VERY MUCH...

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