आज सुबह से ही वो बहुत परेशान थी। मैं अपने बिस्तर पर सोया हुआ था। सुबह के लगभग ग्यारह बजे होंगे कि मेरे सेलफोन की घंटी बजी। मैंने देखा उसी का मिस्ड काल था। मैंने वापस फोन किया। उधर से एक परेशान सी आवाज़ में उसने मेरा हालचाल पूछा। मैंने अपनी सलामती बताई और उससे काल करने का कारण पूछा। बड़ी ही सहमी सी आवाज़ में उसने मुझे अपनी समस्या बताई। उसकी समस्या सुनकर मैंने उसे समझाते हुए कहा कि इन बातों का कोई औचित्य नही है। इसलिए इन बातों को भूल जाओ। पर उसने एक ऐसी बात कह दी कि मैं फ़िर कोई ज़वाब न दे सका। उसकी बातों में उलझता जा रहा था। उसकी बातों में छिपे सवालों का मैं कोई ज़वाब नही दे पा रहा था। मैं उसे ठीक वैसे ही समझाते जा रहा था जैसे प्रवचन या सत्संग कार्यक्रम में कोई साधू या स्वामी जी कहते हैं कि "सदा सत्य बोलो, झूठ बोलना पाप है।" अब आप ही बताइए उस वक़्त जब मो मुझसे अपनी परेशानी साझा कर रही है तब इन बातों का अस्तित्व कहाँ तक है? कोई आपसे अपनी समस्याएं बता रहा है और आप उसे प्रवचन सुना रहे हैं तो आपसे उसकी अपनी परेशानी साझा करने का क्या मतलब है? उसने मुझसे कहा कि "आपके और मेरे रिश्ते को लेकर मैंने कुछ असहनीय बातें सुनी हैं। आप तो लड़के हैं और आप इन बातों का उत्तर समाज को बेफिक्री से दे सकते हो लेकिन मैं तो लड़की हूँ न, और एक लड़की के लिए यह सब सुन पाना कितना दुखद होता है इसका अंदाजा एक लड़की ही लगा सकती है। जबकि मैं जानती हूँ कि आप मेरे लिए कितना महत्व रखते हैं और लोग जैसी बातें कर रहे हैं वैसा कतई नही है। इस बात में ज़रा भी सच्चाई नही है। मुझे आपकी चिंता अधिक है। इसलिए मेरा मन इस बात को गंवारा नही करता करता और परेशान हो जाता है।" सच! कितनी मासूमियत है इन लाइंस में? बस उसकी इसी मासूमियत ने ही तो मुझे निरुत्तर कर दिया था। उसकी इन सारी बातों के बदले मैंने सिर्फ़ इतना ही कहा कि "तुम जानती हो न, कि हमारा रिश्ता क्या है? जब हम दोनों (जिन्हें रिश्ता निभाना है) को पता है कि हमारा रिश्ता ग़लत नही है तो फ़िर लोगों के कह देने भर से कि हमारा रिश्ता सही नही है, क्या हमारा रिश्ता बदल जाएगा या फ़िर ग़लत हो जाएगा क्या?" मेरी इस बात से शायद उसे कुछ तसल्ली हुई। उसकी बातों से मुझे परेशानियों का जाना स्पस्ट समझ में आया। उसके बोलने का लहजा भी बदला और फ़िर वो धीरे-धीरे सामान्य होने लगी। उसकी परेशानी तो लगभग जा चुकी थी या फ़िर अब तक जा चुकी होगी होगी लेकिन मैं अभी तक उसकी मासूम बातों और निःस्वार्थ सवालों के बीच ख़ुद को फंसा हुआ महसूस कर रहा हूँ। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि उसकी सारी परेशानिया मुझे देदें और मेरे सारे उल्लास, मेरी सारी खुशियाँ उस तक पहुँचा दें!!! क्योंकि मैं भले ही उसके लिए इस दुनिया का एक हिस्सा हूँ, पर मेरे लिए वो ही पूरी दुनिया है...
मंगलवार, जुलाई 21, 2009
वक़्त बदलेगा, मंज़र भी बदल जाएँगे...
लेबल: दुःख, निःस्वार्थ, परेशानी, मासूमियत
Writer रामकृष्ण गौतम पर मंगलवार, जुलाई 21, 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 Responzes:
अरे कहाँ लगे हो आप भी लोगों के कहने में..लोगों का तो काम है कहना..आप तो दिलेरी से आगे बढ़ो जी!!
एक टिप्पणी भेजें