बुधवार, जुलाई 29, 2009

कैसे कह दूँ कि वो पराया है...

जिसका साँसों ने गीत गाया है
कैसे कह दूँ कि वो पराया है
याद बे इख्तियार आया है
मेरी रग-रग में जो समाया है
कैसा रिश्ता है उस से क्या मालूम
जिसने ख्वाबों में भी रुलाया है
ऐसे सहरा से है गुज़र जिसमें
दूर तक पेड़ है न साया है
बंद पलकों में उसकी हूँ मैं 'ज़हीन'
उसने मुझको कहाँ छुपाया है

मंगलवार, जुलाई 28, 2009

सभ्यता की शक्ल...

आज हर होनी अनहोनी हो रही है।
सभ्यता की शक्ल रोनी हो रही है॥

बढ़ रही है खजूरों की ऊँचाई।
हर गुलाबी नस्ल बौनी हो रही है॥

अब साँसों का कोई शौक नही...

अब साँसों का कोई शौक नही, परवश लेते हैं।
जिन्हें दूध देकर पालो वो खेल-खेल में डंस लेते हैं॥

आ लगी अब ज़िन्दगी शर्मिंदगी की मोड़ पर।
जिन बातों पर रोना आए, हम उन पर अब हंस देते हैं॥

धिक्कार सौ सौ बार...

धिक्कार सौ-सौ बार इस इंसान को।
नीलाम करने जो खड़ा ईमान को॥

स्वर्ण की लंका की सुरक्षा के लिए अपनी।
इसी ने पत्थरों में बो दिया भगवान् को॥

रविवार, जुलाई 26, 2009

अब न आरजू है, न तमन्ना है कोई...

न आरजू है न तमन्ना है कोई।
अब इस दिल को दिल मिल गया कोई॥


इंतज़ार था सदियों का मेरे जीवन में।
उसे एक झटके में पूरा कर गया कोई॥

अक्सर सोचता रहता था मैं तन्हाई में।
मैं तन्हा क्यों हूँ, मुझे आज तक क्यों नही मिला कोई॥

वो क्या आई ज़िन्दगी में फूल खिल गए लाखों।
सूखे बाग़ में एक प्यार का पौधा लगा गया कोई॥

अब अगर ये सपना है तो ये सदा रहे मेरा।
जो भी हो पर प्यार का मुझे खाब दिखा गया कोई॥

आज इस दिल की धडकनों को धड़कना सिखा गया कोई॥
मेरी आंखों में मोहब्बत के प्यारे ख्वाब सज़ा गया कोई॥

शनिवार, जुलाई 25, 2009

कुछ कम है...

ज़िन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है.
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है..

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है.
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है..

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी.
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है..

अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में.
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है..

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब.
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है..


रचनाकार: शहरयार

गुरुवार, जुलाई 23, 2009

आदमी की पीड़ा...

वक्त के धरातल पर
जम गई हैं
दर्द की परतें
दल-दल में धंसी है सोच
मृतप्रायः है एहसास
पंक्चर है तन
दिशाहीन है मन
हाडमांस का
पिजरा है मानव
इस तरह हो रहा है
मानव समाज का निर्माण
अब
इसे चरित्रवान कहें
या चरित्रहीन
कोई तो बताए
वो मील का पत्थर
कहाँ से लाएं
जो हमें
"गौतम", "राम", "कृष्ण" की राह दिखाए..?

ज़िन्दगी क्या है..?

ज़िन्दगी फ़क़ीर बनके रह गई

साँस की लकीर बनके रह गई

ऐसा भी क्या गुनाह था

कि पीर-पीर...

द्रौपदी का चीर बनके रह गई॥!..?

आओ! जश्न मना लो...

हम सहस्राब्दी में आ गए
बेबसी, बेकारी, भुखमरी
जिल्लतें, दर्द और ग़म भी
हमारे साथ-साथ
यहॉ तक आ गए
समय चीखकर
कह रहा है
इस व्यवस्था को
बदल डालो
नेता कहते हैं
हमारी करतूतों पर
परदा डालो
आओ!
सहस्राब्दी का जश्न मना लो...

मंगलवार, जुलाई 21, 2009

वक़्त बदलेगा, मंज़र भी बदल जाएँगे...

आज सुबह से ही वो बहुत परेशान थी। मैं अपने बिस्तर पर सोया हुआ था। सुबह के लगभग ग्यारह बजे होंगे कि मेरे सेलफोन की घंटी बजी। मैंने देखा उसी का मिस्ड काल था। मैंने वापस फोन किया। उधर से एक परेशान सी आवाज़ में उसने मेरा हालचाल पूछा। मैंने अपनी सलामती बताई और उससे काल करने का कारण पूछा। बड़ी ही सहमी सी आवाज़ में उसने मुझे अपनी समस्या बताई। उसकी समस्या सुनकर मैंने उसे समझाते हुए कहा कि इन बातों का कोई औचित्य नही है। इसलिए इन बातों को भूल जाओ। पर उसने एक ऐसी बात कह दी कि मैं फ़िर कोई ज़वाब न दे सका। उसकी बातों में उलझता जा रहा था। उसकी बातों में छिपे सवालों का मैं कोई ज़वाब नही दे पा रहा था। मैं उसे ठीक वैसे ही समझाते जा रहा था जैसे प्रवचन या सत्संग कार्यक्रम में कोई साधू या स्वामी जी कहते हैं कि "सदा सत्य बोलो, झूठ बोलना पाप है।" अब आप ही बताइए उस वक़्त जब मो मुझसे अपनी परेशानी साझा कर रही है तब इन बातों का अस्तित्व कहाँ तक है? कोई आपसे अपनी समस्याएं बता रहा है और आप उसे प्रवचन सुना रहे हैं तो आपसे उसकी अपनी परेशानी साझा करने का क्या मतलब है? उसने मुझसे कहा कि "आपके और मेरे रिश्ते को लेकर मैंने कुछ असहनीय बातें सुनी हैं। आप तो लड़के हैं और आप इन बातों का उत्तर समाज को बेफिक्री से दे सकते हो लेकिन मैं तो लड़की हूँ न, और एक लड़की के लिए यह सब सुन पाना कितना दुखद होता है इसका अंदाजा एक लड़की ही लगा सकती है। जबकि मैं जानती हूँ कि आप मेरे लिए कितना महत्व रखते हैं और लोग जैसी बातें कर रहे हैं वैसा कतई नही है। इस बात में ज़रा भी सच्चाई नही है। मुझे आपकी चिंता अधिक है। इसलिए मेरा मन इस बात को गंवारा नही करता करता और परेशान हो जाता है।" सच! कितनी मासूमियत है इन लाइंस में? बस उसकी इसी मासूमियत ने ही तो मुझे निरुत्तर कर दिया था। उसकी इन सारी बातों के बदले मैंने सिर्फ़ इतना ही कहा कि "तुम जानती हो न, कि हमारा रिश्ता क्या है? जब हम दोनों (जिन्हें रिश्ता निभाना है) को पता है कि हमारा रिश्ता ग़लत नही है तो फ़िर लोगों के कह देने भर से कि हमारा रिश्ता सही नही है, क्या हमारा रिश्ता बदल जाएगा या फ़िर ग़लत हो जाएगा क्या?" मेरी इस बात से शायद उसे कुछ तसल्ली हुई। उसकी बातों से मुझे परेशानियों का जाना स्पस्ट समझ में आया। उसके बोलने का लहजा भी बदला और फ़िर वो धीरे-धीरे सामान्य होने लगी। उसकी परेशानी तो लगभग जा चुकी थी या फ़िर अब तक जा चुकी होगी होगी लेकिन मैं अभी तक उसकी मासूम बातों और निःस्वार्थ सवालों के बीच ख़ुद को फंसा हुआ महसूस कर रहा हूँ। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि उसकी सारी परेशानिया मुझे देदें और मेरे सारे उल्लास, मेरी सारी खुशियाँ उस तक पहुँचा दें!!! क्योंकि मैं भले ही उसके लिए इस दुनिया का एक हिस्सा हूँ, पर मेरे लिए वो ही पूरी दुनिया है...

सोमवार, जुलाई 20, 2009

एक "चाँद" आसमान से विदा हो गया...


महज़ सत्रह दिन बाद यानि चार अगस्त को उनका जन्मदिन आने वाला था। अभी जून की ग्यारह तारीख की शाम को ही उन्होंने मुझसे बात की थी। उस दिन वो काफी खुश थे। फोन पर "हेलो" बोलते ही उन्होंने कहा "छोटे! खुशखबरी है!" मैंने खुश होते हुए कहा "क्या भैया?" उन्होंने कहा "तेरे भाई ने PSc का प्री एग्जाम पास कर लिया है। अब दुआ कर कि मेन्स में भी पास हो जाऊँ! और सुन एक और खुशखबरी है! SBI में भी मेरा सेलेक्शन हो गया है! मैं ख़ुशी से झूम उठा और कहा कि वाह! भैया क्या बात है!! CONGRATULATIONS! अब तो मिठाई की बनती है! उन्होंने उतनी ही ख़ुशी से कहा "अब इसमें कौन सी बड़ी बात है। मैं 25 जुलाई को जबलपुर आ रहा हूँ न! मिलते हैं! इसके बाद उन्होंने मेरी पढाई के बारे में पूछा और फिर इधर-उधर कि बातें होने लगी।
दिन था 18 जुलाई का, शनिवार! मैं अपने ऑफिस में कंप्यूटर स्क्रीन पर नज़रे गडाये उनके ब्लॉग http://swasamvad.blogspot.com/ पर उनकी रचनाएँ पढ़ रहा था। सच में कितना प्यारा लिखते थे वो। जादू था उनकी लेखनी में। उस वक़्त रात के लगभग साढ़े दस हो रहे थे। अचानक मेरे सेलफोन की घंटी बजी। मेरे एक दोस्त रमन का काल था। काल मिस हो जाने के बाद मैंने कालबैक किया। अमूमन काल कनेक्ट होने के बाद HELLO ही सुनाई देता है लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। उस तरफ से रमन की घबराई हुई आवाज़ से निकले हुए शब्द थे "कुछ खबर मिली क्या?" मैंने बड़ी व्याकुलता और भय से पूछा "क्या?" उसने कहा "'विकास भैया' की DEATH हो गई"। इतना कहना हुआ ही था कि मेरे तो पैर ही ठंडे पड़ गए। एक पल के लिए मुझे लगा कि मेरे शरीर से मेरी आत्मा विदा हो गई। पैरों तले ज़मीन खिसक गई और मैं हतप्रभ रह गया। उन्हें इस संसार से विदा हुए अभी कुछ ही घंटे हुए हैं। अभी भी उनकी वो हंसती-मुस्कुराती सूरत मेरे दिमाग में क़ैद है और मुझे, मेरे मन को बार-बार रुला रही है। वो भोपाल में रहकर PSc MAINS की तयारी कर रहे थे.
शनिवार, 18 JULY का दिन उनके और हम सभी के लिए एक "काला दिन" था। भोपाल के पास ही मिसरौद रोड पर एक सड़क हादसे में उनकी और हमारे एक अन्य सीनियर संकल्प रंजन शुक्ला की दर्दनाक मौत हो गई। ईश्वर इतना भी कठोर हो सकता है, मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी? खैर! वो जितनी उम्र लेकर आये उतना ही जिए। अंत में मेरे प्यारे "विकास भैया" के लिए इतना ही कहूंगा कि
"कुछ लोग हैं जो वक़्त के सांचे में ढल गए, कुछ लोग थे जो वक़्त के सांचे बदल गए।" अब वो भौतिक रूप से तो हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियाँ सदा ही हमारे बीच रहेंगी। प्यारे भैया आपको हम सभी छोटे भाइयों, आपके चाहने वालों और आपके तमाम साथियों की ओर से "अश्रुपूरित श्रद्धासुमन"। आप अगले जनम में जहाँ भी जाएं, हमेशा खुश रहें और आपको हमारी भी उम्र लग जाए...
"ये कौन चला श्रृंगार करके? बहार क्यों लजा गई?बस इतनी सी बात है, किसी की आँख लग गयी, किसी को नींद आ गयी!!!

शनिवार, जुलाई 18, 2009

घर से निकले थे हौसला करके...

सच ही कहा गया है कि इंसान अपने मन का कैदी, मन का गुलाम होता है। किसी वस्तु या व्यक्ति या अन्य किसी चीज़ को पाने के लिए एक बच्चे की तरह मचल जाता है। Object कोई भी हो, उसके लिए Subject एक ही रहता है और वह Subject होता है "जो चाह लिया है उसे पाना है"। क्या पाना है यह हुआ Object और कैसे पाना है यह Subject हुआ। तो किसी भी चीज़ को चाह लेने के बाद बस पाना है और पाकर रहना है, यही उसका यानि मन का ध्येय बन जाता है। यह तो हुई "ऐकिक" प्रकार की गुलामी। अब बात आती है इंसानी मन की भावनाओं की; बात शुरू करता हूँ आज के परिवेश यानि Culture को लेकर! आज हम अपने चारों ओर देखते हैं कि पश्चिमी सभ्यता हम पर पूरी तरह हावी है। यह भी कह सकते हैं कि हमने इसे ख़ुद पर हावी होने दिया है। कुछ ऐसे भी इंसान हैं जो इसे हावी होने का कोई मौका ही नही देते , पर उनकी संख्या अँगुलियों पर है। हाँ! तो मुद्दे कि बात यह है कि आज का युवा अपने "मन" को एक ऐसे ढलान पर उतार देता है जो सीधे किसी "खूबसूरत लड़की" पर जाकर ख़त्म होता है। हमारे युवा मित्र ने एक लड़की पसंद कर ली और उसे इम्प्रेस करने में लग गए। बंधू कि किस्मत ने साथ दिया और लड़की ने भी उनको पसंद कर लिया। फोन पर बातें भी होने लगी। मिलने लगे और साथ-साथ घूमना-फिरना भी शुरू हो गया। बात बहुत आगे बढ़ गई और दिन-ब-दिन नजदीकियां भी बढ़ने लगी। भाई उस लड़की की यादों में खो गया। अब उसे उस लड़की के अलावा न दिखाई देता है और न ही कोई समझ में आता है। सारे रिश्ते-नाते, घर-परिवार एक तरफ़ और वह लड़की एक तरफ़। न जाने उस लड़की में ऐसा क्या है, जिसने उसे घर-परिवार तक को भूलने पर विवश कर दिया। खैर! जो भी हो पर हमारा यह युवा मित्र "प्यार" की जाल में फँस गया है। अब उसे सिर्फ़ वही लड़की चाहिए। वह उस लड़की को चाहने लगा है। इतना चाहने लगा है उसे सिर्फ़ उसी की चाहत है। यहाँ पर हमारे मित्र का Subject है वह लड़की और ऑब्जेक्ट है उसे पाना। फिर अचानक पता नही क्या हो जाता है ? जो लड़की हमारे युवा मित्र को घर-परिवार से भी बढ़कर लगने लगती है वाही अब उसके "मन" को नही भा रही है। वाह! भाई क्या बात है ? अब हमारे मित्र की वह "ऐकिक" प्रकार की गुलामी खत्म होने लगती है। अब वह जकड़ता जाता है "अनैक्षिक" गुलामी में। किसी ने पूछा अबे अचानक तुझे क्या हो गया? तो हमारा युवा मित्र बहुत ही उदासी से ज़वाब देता और कहता है यार! कल मैंने उसके सेल पर किसी लड़के का मेसेज देखा! मैसेज पढ़कर मेरा दिल रो पड़ा यार, ऐसा मैसेज था। बस फ़िर मैंने ठान लिया की अब न तो उससे बात करूंगा और न ही कोई मैसेज भेजूंगा। दिल तो नही मान रहा हमारे मित्र का, पर क्या करें। किसी लड़के का भाई की गर्लफ्रेंड के सेल पर मैसेज क्या देख लिया, होश उड़ गए। अब आप ही बताइए... ऐसा भला "प्यार" होता है क्या???
अब क्या होता है कि हमारे युवा मित्र चले थे लड़की को हासिल करने और उल्टे पैर लौट आए। इस वक़्त जगजीत सिंह जी का गाया हुआ ये ग़ज़ल खूब जमता है :
"घर से निकले थे हौसला करके।
लौट आए खुदा-खुदा करके॥"

शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

रामायण का एक सीन...

रुखसत हुआ वो बाप से लेकर खुदा का नाम।

राह-ए-वफ़ा की मन्ज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम॥

मन्ज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतज़ाम।

दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम॥!॥

रचनाकार - पं ब्रजनारायण ’चकबस्त’

यह भी तो "प्यार" ही है न..!!!

बात उस समय की है जब मैं अपने ग्रेजुएशन के चौथे सेमेस्टर की परीक्षाएं दे रहा था. उस वक़्त मेरी तबियत काफी बिगड़ी हुई थी, इसलिए मेरी देखभाल के लिए मेरी माँ भी मेरे साथ ही थीं. उस दिन मेरा तीसरा या चौथा पेपर था. हम लोग एग्जाम हाल से पेपर देकर निकले. बारिश भी अपने पूरे शवाब पर था. ठीक उसी वक़्त मेरा शरीर गर्म होने लगा. मुझे काफी तेज़ बुखार हो चला था. ठण्ड भी इतनी लग रही थी मानो मैं कडाके की ठण्ड में बिना कपडों के खडा हूँ. दम निकला जा रहा था. मुझे बस यही चिंता सताए जा रही थी कि मैं घर कैसे पहुंचूंगा? इतने में ही मेरे एक अभिन्न और अज़ीज़ मित्र ने मुझे कांपते हुए देखा. वो मेरे पास आया और मेरा माथा छूने लगा. वो भी दंग रह गया. उसने कहा "राम" तुझे तो काफी तेज़ बुखार है. मैंने दबी जुबान से स्वीकृति दी. उसने झट ही अपना रेनकोट मुझे दे दिया और पहनने को कहा. मैंने कहा भी कि तुम क्या पहनोगे? उसने कहा अभी मुझसे ज्यादा इसकी ज़रूरत तुझे है. उसने बाईक स्टार्ट की, मुझे बैठने को कहा और तेजी से मेरे घर की ओर रुख किया. बारिश की बूंदों की हिमाकत बढती जा रही थी, लेकिन उसे उन बूंदों की परवाह नहीं थी. उसे परवाह थी तो सिर्फ "राम" की. करीब बीसेक मिनट में हम लोग मेरे घर पहुँच गए. माँ भी बेसब्री से मेरी राह ताक रही थी. उन्होंने जैसे ही हम दोनों को देखा. उनकी आँखों में नमी ने पनाह पा लिया. वो रोने लगीं. क्यों रोयीं..? मुझे देखकर..! नहीं...! वो रोयीं थीं "राम" और "ज्ञान" का "प्यार" देखकर. उन्होंने देखा कि कैसे "ज्ञान" ने "राम" की परवाह की..? कैसे "राम" की हालत देखकर "ज्ञान" ने खुद की फिक्र नहीं की और "राम" को सही सलामत घर पहुँचाया. सच कहता हूँ, उस दिन "ज्ञान" ने मुझे इस तरह से रेनकोट पहनाई थी की उतनी तेज़ बारिश में भी मैं ज़रा भी नहीं भीगा था. हम दोनों की हालत पर मेरी माँ ने गौर किया और "ज्ञान" का सिर पोंछते हुए उसे सीने से लगा लिया.

जवानी का बहिष्कार : "प्यार"

सूखी
गुलदस्ते सी
प्यार की नदी
****

व्यक्ति
संवेग सब
मशीन हो गए
जीवन के
सूत्र
सरेआम खो गए

****
और कुछ न कर पाई
यह नई सदी

****
वर्तमान ने
बदले
ऐसे कुछ पैंतरे
****

आशा
विश्वास
सभी पात से झरे

****
सपनों की
सर्द लाश
पीठ पर लदी।

बुधवार, जुलाई 15, 2009

आरजू है वफ़ा करे कोई...|||

आरजू है वफ़ा करे कोई।
जी न चाहे तो क्या करे कोई॥
गर मर्ज़ हो दवा करे कोई।
मरने वाले का क्या करे कोई॥
कोसते हैं जले हुए क्या-क्या।
अपने हक़ में दुआ करे कोई॥
उन से सब अपनी-अपनी कहते हैं।
मेरा मतलब अदा करे कोई॥
तुम सरापा हो सूरत-ए-तस्वीर।
तुम से फिर बात क्या करे कोई॥
जिस में लाखों बरस की हूरें हों।
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई॥

मंगलवार, जुलाई 14, 2009

बना-बना के तमन्ना मिटाई जाती है...

बना-बना के तमन्ना मिटाई जाती है।
तरह-तरह से वफ़ा आज़माई जाती है॥
जब उन को मेरी मुहब्बत का ऐतबार नहीं।
तो झुका-झुका के नज़र क्यों मिलाई जाती है॥
हमारे दिल का पता वो हमें नहीं देते।
हमारी चीज़ हमीं से छुपाई जाती है॥
'शकील' दूरी-ए-मंज़िल से ना-उम्मीद न हो।
मंजिल अब आ ही जाती है अब आ ही जाती है॥

...उस हँसी को ढूँढ़िए..!!!



जो रहे सबके लबों पर उस हँसी को ढूँढ़िए।

बँट सके सबके घरों में उस खुश़ी को ढूँढ़िए॥

देखिए तो आज सारा देश ही बीमार है।

हो सके उपचार जिससे उस जड़ी को ढूँढ़िए॥

काम मुश्किल है बहुत पर कह रहा हूँ आपसे।

हो सके तो भीड़ में से आदमी को ढ़ूढ़िए॥

हर दिशा में आजकल बारूद की दुर्गन्ध है।

जो यहाँ ख़ुशबू बिखेरे उस कली को ढूँढ़िए॥

प्यास लगने से बहुत पहले हमेशा दोस्तों।

जो न सूखी हो कभी भी उस नदी को ढूँढ़िए॥

शहर-भर में हर जगह तो हादसों की भीड़ है।

हँस सकें हम सब जहाँ पर उस गली को ढूँढ़िए॥

क़त्ल, धोखा, लूट, चोरी तो यहाँ पर आम हैं।

रहजनों से जो बची उस पालकी को ढूँढ़िए॥

शुक्रवार, जुलाई 10, 2009

दिल में न हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती...


दिल में न हो ज़ुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती।
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती।
कुछ लोग यूँही शहर में हमसे भी ख़फा हैं।
हर एक से अपनी भी तबीयत नहीं मिलती।
देखा था जिसे मैंने कोई और था शायद।
वो कौन है जिससे तेरी सूरत नहीं मिलती।
हंसते हुए चेहरों से है बाज़ार की ज़ीनत।
रोने को यहाँ वैसे भी फुरसत नहीं मिलती।

गुरुवार, जुलाई 09, 2009

माँ और पिताजी...





माँ
चिंता है, याद है, हिचकी है।
बच्चे की चोट पर सिसकी है।
माँ चूल्हा, धुआं, रोटी और हाथों का छाला है।
माँ ज़िन्दगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है।
माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है।
माँ फूँक से ठंडा किया हुआ कलेवा है।

पिता
पिता रोटी है, कपड़ा है, मकान हैं।
पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान हैं।
पिता से बच्चों के ढेर सारे सपने हैं।
पिता हैं तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं।



Ask - स्वर्गीय कवि ॐ व्यास "ॐ''

मंगलवार, जुलाई 07, 2009

ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली...

ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
ख्व़ाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली।
पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली।
दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली।
देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली।
इस तरह से दोस्ती सबसे निभाई उम्र ने
पहले तो बचपन चुराया फिर जवानी छीन ली।
पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली।
दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली।
देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली।
इस तरह से दोस्ती सबसे निभाई उम्र ने
पहले तो बचपन चुराया फिर जवानी छीन ली।

वो जब याद आया...


दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया
आज मुश्किल था सम्भलना ऐ दोस्त
तू मुसीबत में अजब याद आया
दिन गुज़ारा था बड़ी मुश्किल से
फिर तेरा वादा-ए-शब याद आया
तेरा भूला हुआ पैमान-ए-वफ़ा
मर रहेंगे अगर अब याद आया
फिर कई लोग नज़र से गुज़रे
फिर कोई शहर-ए-तरब याद आया
हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन
जब वो रुख़सत हुए तब याद आया
बैठ कर साया-ए-गुल में "नासिर"
हम बहुत रोये वो जब याद आया..!!

शनिवार, जुलाई 04, 2009

प्यार कहता है...



यह बेवकूफ़ी है
समझदारी कहती है
यह वो है जो वो है
प्यार कहता है
यह बदक़िस्मती है
हिसाब कहता है
यह दर्द के सिवाय
कुछ नहीं है
डर कहता है
यह उम्मीदों से खाली है
बुद्धिमानी कहती है
यह वो है जो वो है
प्यार कहता है
यह बेतुका है
अभिमान कहता है
यह लापरवाही है
सावधानी कहती है
यह नामुमकिन है
तजुर्बा कहता है
यह वो है जो वो है
प्यार कहता है
मूल जर्मन भाषा से अनुवाद

LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Blogspot Templates by Isnaini Dot Com. Powered by Blogger and Supported by Best Architectural Homes