गुरुवार, जुलाई 23, 2009

आदमी की पीड़ा...

वक्त के धरातल पर
जम गई हैं
दर्द की परतें
दल-दल में धंसी है सोच
मृतप्रायः है एहसास
पंक्चर है तन
दिशाहीन है मन
हाडमांस का
पिजरा है मानव
इस तरह हो रहा है
मानव समाज का निर्माण
अब
इसे चरित्रवान कहें
या चरित्रहीन
कोई तो बताए
वो मील का पत्थर
कहाँ से लाएं
जो हमें
"गौतम", "राम", "कृष्ण" की राह दिखाए..?

ज़िन्दगी क्या है..?

ज़िन्दगी फ़क़ीर बनके रह गई

साँस की लकीर बनके रह गई

ऐसा भी क्या गुनाह था

कि पीर-पीर...

द्रौपदी का चीर बनके रह गई॥!..?

आओ! जश्न मना लो...

हम सहस्राब्दी में आ गए
बेबसी, बेकारी, भुखमरी
जिल्लतें, दर्द और ग़म भी
हमारे साथ-साथ
यहॉ तक आ गए
समय चीखकर
कह रहा है
इस व्यवस्था को
बदल डालो
नेता कहते हैं
हमारी करतूतों पर
परदा डालो
आओ!
सहस्राब्दी का जश्न मना लो...

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