ज़िन्दगी फ़क़ीर बनके रह गई
साँस की लकीर बनके रह गई
ऐसा भी क्या गुनाह था
कि पीर-पीर...
द्रौपदी का चीर बनके रह गई॥!..?
चरित्र मानव का महल की तरह... गिरेगा लगेगा खंडहर की तरह... जलेगा बरसात में भीगी लकड़ी की तरह... मांगेगा, न मिलेगी मौत, जिंदगी की तरह!..
ज़िन्दगी फ़क़ीर बनके रह गई
साँस की लकीर बनके रह गई
ऐसा भी क्या गुनाह था
कि पीर-पीर...
द्रौपदी का चीर बनके रह गई॥!..?
लेबल: आदमी की पीड़ा, एहसास, ज़िन्दगी
Writer रामकृष्ण गौतम पर गुरुवार, जुलाई 23, 2009
1 Responzes:
waah waah !
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