रविवार, नवंबर 15, 2009

बाप की कमाई...

मेरा एक दोस्त है, मेरे ही नाम का... सीधा-सादा... कोई तड़क भड़क नहीं... एकदम साधारण... अगर कोई व्यसन है तो वो है उसका सीधापन... वो उसे छोड़ ही नहीं पाता... कपडे भी एकदम साधारण ही पहनता है... अभी हाल ही में मेरे ही प्रयासों से उसने मोबाईल रखना शुरू किया है... दरअसल उसके पिताजी या उसके भैया मेरे ही नंबर पर काल करके उससे बात किया करते थे... चूंकि मैं हर वक़्त उसके साथ नहीं होता था इसलिए उससे उसके घर वालों को बात करा पाना संभव नहीं हो पाता था... हालाँकि उसका सम्बन्ध एक समृद्ध घर से है... लेकिन उसे इससे चिढ है कि वो अपनी समृद्धता जग ज़ाहिर करे... इसलिए एकदम साधारण ही रहता है... हम दोनों एक बात पर बिलकुल Similar हैं... और वो ये है कि हमारी सोच, हमारे विचार एकदम मेल खाते हैं... इसलिए इतने दिनों से साथ रहते हुए भी हम दोनों के बीच कभी वैचारिक टकराव नहीं हुआ... घर, परिवार, भविष्य, रिश्ते-नाते, दोस्ती, दुनिया, टीम इंडिया, भारत की अर्थव्यवस्था, डॉ. मनमोहन सिंह का दोबारा प्रधानमंत्री बनना, राहुल का युवा ब्रिगेड... ये ऐसे मुद्दे हैं जिस पर हम दोनों बेहद बहस करते हैं... ताज्जुब की बात तो ये है कि इन मुद्दों पर हम दोनों घंटों बातें करते रहते हैं और नतीजा जब आता है तो उस पर हम दोनों की जुबान एक ही शब्द कहती है... यानि निष्कर्ष पर दोनों के विचार एक जैसे होते हैं... एक दिन हम दोनों अपने-अपने घर और परिवार के सदस्यों की चर्चा कर रहे थे... उसे अक्सर अपने बड़े भाई से शिकायत रहती है कि वो आज भी अपने "पिता की कमाई" पर ही निर्भर हैं... पत्नी और दो बच्चे होने के बाद भी... और तो और... घर से अलग रहते हुए... उसके पिता जी उनके और उनके परिवार के खर्च के लिए हर महीने 12,000 रूपए देते हैं... ऐसा उसने मुझे बताया... उसने मुझे यह भी बताया की भाभी को ये सब कतई पसंद नहीं है... उसकी भाभी उसके भैया को हमेशा कहती हैं अब पिता की ज़िम्मेदारी पूरी हो गई है... अब तो आप कमाना धमाना शुरू करो... अगर उनको कुछ दे नहीं सकते तो कम से कम लो तो मत... वो आपके पिता हैं... उनके बुढापे का कुछ तो ख्याल रखो... उसकी भाभी के ये ख्याल मुझे बेहद पसंद आए... इसी कारण मैं उनसे मिल भी आया हूँ... खैर! आगे सुनिए... मेरे हमनाम को अपने बड़े भैया की ये बात रास नहीं आती... वैसे उसका उसके बड़े भैया के प्रति ये रवैया उचित भी है... मैं उसकी जगह होता तो मैं भी शायद यही कहता... एक बात तो है... मेरे हमनाम का यह कहने मुझे तब आश्चर्य में डाल देता है जब मुझे ये पता चलता है कि वह अपना खर्च अपने पिताजी से नहीं लेता... और उसका मासिक खर्च मात्र... 200 रूपए है... माकन किराया और खाना छोड़कर... आप भी आश्चर्य में पड़ गए न... कि आज के समय में एक ज़वान लड़के का खर्च मात्र 200 रूपए महिना... वैसे ये सच है... मैं गवाह हूँ इसका... उसने अपने घर किसी से भी नहीं बताया है कि वो Part Time Job करता है... उसके पिता एक सहकारी बैंक के मैनेजर हैं... इसके बावजूद भी वह से घर से कोई आर्थिक सहयोग नहीं लेता... वैसे वो बताता है कि जॉब करने कि प्रेरणा उसे मुझसे मिली... क्या पाता सच कह रहा है या... हाँ! पर एक बात है कि मुझसे मिलने के कुछ समय तक वह किसी जॉब में नहीं था... मुझसे मिलने के बाद ही उसने एक प्राइवेट बैंक में काम करना शुरू किया... Well... उसके विचार मुझे बेहद अच्छे लगते है... हालाँकि उम्र में मुझसे एक साल छोटा है... लेकिन हम दोनों का एक दूसरे के प्रति व्यवहार दोस्ताना है... वो मुझे नाम लेकर पुकारता है और मैं भी उसे उसके नाम के आगे "जी" लगाकर संबोधित करता हूँ... एक दिन मैंने उससे कहा कि यार तू इतना साधारण सी ज़िन्दगी क्यों जीता है जबकि तेरा परिवार तो संपन्न है... तू कम से कम ज़रुरत की चीज़ें तो बढ़िया तरह से रख... कपडे ठीकठाक पहन... एक अच्छा सा मोबाइल लेले... जूते बढ़िया से लेले... इस पर उसने जो कहा उसे सुनकर मैं आज तक दंग हूँ... उसने मुझसे कहा... "यार... बाप के पैसों पर तो सब ऐश करते हैं... पर मेरी राय कुछ अलग है... मैं जब तक खुद अपने पैरों पर खडा नहीं हो जाता... ठाटबाट से नहीं रह सकता... क्योंकि ठाटबाट से रहने के लिए पैसे चाहिए... और ये सब मैं अपने पिता के पैसों से नहीं कर सकता... उनके पैसे इस तरह खर्च करना मुझे गंवारा नहीं..." वाह! दोस्त क्या बात कही थी तुमने... आपको सुनकर ताज्जुब होगा कि महज़ 21 साल की उम्र में उसने मुझसे वो बात कह दी... जो शायद एक बुजर्ग या अनुभवी व्यक्ति मुझे समझा पाता... आपको पाता है उसकी इस बात से मैं भी प्रेरित हुआ और मैंने अब हर महीने मुझे मिलने वाली रक़म से 2000 रूपए महीने बचाने शुरू कर दी हैं... जब भी घर जाता हूँ... कुल बचाई हुए रक़म मम्मी के हाथ में देकर पैर पड़ता हूँ... उस वक़्त मम्मी की आँखों में आंसू आ जाते हैं... लेकिन पैसों को देखकर नहीं मुझे देखकर... वो देखती हैं जिस बच्चे को हमने गोद में खिलाया है... आज वही इतना बड़ा हो गया है... वो ये भी कहती हैं कि "किशन! तू बड़ा सयाना हो गया है..."

गुलमुहर है ज़िन्दगी...

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी
डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साये में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी
रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी
दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी।

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