रुखसत हुआ वो बाप से लेकर खुदा का नाम।
राह-ए-वफ़ा की मन्ज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम॥
मन्ज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतज़ाम।
दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम॥!॥
रचनाकार - पं ब्रजनारायण ’चकबस्त’
चरित्र मानव का महल की तरह... गिरेगा लगेगा खंडहर की तरह... जलेगा बरसात में भीगी लकड़ी की तरह... मांगेगा, न मिलेगी मौत, जिंदगी की तरह!..
रुखसत हुआ वो बाप से लेकर खुदा का नाम।
राह-ए-वफ़ा की मन्ज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम॥
मन्ज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतज़ाम।
दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम॥!॥
रचनाकार - पं ब्रजनारायण ’चकबस्त’
लेबल: रामचरितमानस
Writer रामकृष्ण गौतम पर शुक्रवार, जुलाई 17, 2009 5 Responzes
बात उस समय की है जब मैं अपने ग्रेजुएशन के चौथे सेमेस्टर की परीक्षाएं दे रहा था. उस वक़्त मेरी तबियत काफी बिगड़ी हुई थी, इसलिए मेरी देखभाल के लिए मेरी माँ भी मेरे साथ ही थीं. उस दिन मेरा तीसरा या चौथा पेपर था. हम लोग एग्जाम हाल से पेपर देकर निकले. बारिश भी अपने पूरे शवाब पर था. ठीक उसी वक़्त मेरा शरीर गर्म होने लगा. मुझे काफी तेज़ बुखार हो चला था. ठण्ड भी इतनी लग रही थी मानो मैं कडाके की ठण्ड में बिना कपडों के खडा हूँ. दम निकला जा रहा था. मुझे बस यही चिंता सताए जा रही थी कि मैं घर कैसे पहुंचूंगा? इतने में ही मेरे एक अभिन्न और अज़ीज़ मित्र ने मुझे कांपते हुए देखा. वो मेरे पास आया और मेरा माथा छूने लगा. वो भी दंग रह गया. उसने कहा "राम" तुझे तो काफी तेज़ बुखार है. मैंने दबी जुबान से स्वीकृति दी. उसने झट ही अपना रेनकोट मुझे दे दिया और पहनने को कहा. मैंने कहा भी कि तुम क्या पहनोगे? उसने कहा अभी मुझसे ज्यादा इसकी ज़रूरत तुझे है. उसने बाईक स्टार्ट की, मुझे बैठने को कहा और तेजी से मेरे घर की ओर रुख किया. बारिश की बूंदों की हिमाकत बढती जा रही थी, लेकिन उसे उन बूंदों की परवाह नहीं थी. उसे परवाह थी तो सिर्फ "राम" की. करीब बीसेक मिनट में हम लोग मेरे घर पहुँच गए. माँ भी बेसब्री से मेरी राह ताक रही थी. उन्होंने जैसे ही हम दोनों को देखा. उनकी आँखों में नमी ने पनाह पा लिया. वो रोने लगीं. क्यों रोयीं..? मुझे देखकर..! नहीं...! वो रोयीं थीं "राम" और "ज्ञान" का "प्यार" देखकर. उन्होंने देखा कि कैसे "ज्ञान" ने "राम" की परवाह की..? कैसे "राम" की हालत देखकर "ज्ञान" ने खुद की फिक्र नहीं की और "राम" को सही सलामत घर पहुँचाया. सच कहता हूँ, उस दिन "ज्ञान" ने मुझे इस तरह से रेनकोट पहनाई थी की उतनी तेज़ बारिश में भी मैं ज़रा भी नहीं भीगा था. हम दोनों की हालत पर मेरी माँ ने गौर किया और "ज्ञान" का सिर पोंछते हुए उसे सीने से लगा लिया.
लेबल: अज़ीज़ दोस्त, दोस्ती, प्यार
Writer रामकृष्ण गौतम पर शुक्रवार, जुलाई 17, 2009 3 Responzes
सूखी
गुलदस्ते सी
प्यार की नदी
****
व्यक्ति
संवेग सब
मशीन हो गए
जीवन के
सूत्र
सरेआम खो गए
****
और कुछ न कर पाई
यह नई सदी
****
वर्तमान ने
बदले
ऐसे कुछ पैंतरे
****
आशा
विश्वास
सभी पात से झरे
****
सपनों की
सर्द लाश
पीठ पर लदी।
लेबल: जवानी का वहिष्कार, प्यार, सपनो की सर्द लाश
Writer रामकृष्ण गौतम पर शुक्रवार, जुलाई 17, 2009 3 Responzes