रविवार, अक्तूबर 11, 2009

चार दिन की ज़िन्दगी...

ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी

खुदा को पा गया वाईज़, मगर है
जरुरत आदमी को आदमी की

मिला हूं मुस्कुरा कर उस से हर बार
मगर आंखों में भी थी कुछ नमी सी

मोहब्बत में कहें क्या हाल दिल का
खुशी ही काम आती है ना गम ही

भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आंखों ने मुझसे बात कर ली

रकीब-ए-गमजदा अब सब्र कर ले
कभी उस से मेरी भी दोस्ती थी



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