बना-बना के तमन्ना मिटाई जाती है।
तरह-तरह से वफ़ा आज़माई जाती है॥
जब उन को मेरी मुहब्बत का ऐतबार नहीं।
तो झुका-झुका के नज़र क्यों मिलाई जाती है॥
हमारे दिल का पता वो हमें नहीं देते।
हमारी चीज़ हमीं से छुपाई जाती है॥
'शकील' दूरी-ए-मंज़िल से ना-उम्मीद न हो।
मंजिल अब आ ही जाती है अब आ ही जाती है॥
मंगलवार, जुलाई 14, 2009
बना-बना के तमन्ना मिटाई जाती है...
Writer रामकृष्ण गौतम पर मंगलवार, जुलाई 14, 2009
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3 Responzes:
अच्छी प्रस्तुति,,आभार!
bahut hi sundar
बहुत अच्छा लिखा है
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