इंसान को अपनी ज़िन्दगी में न जाने कितने समझौते करने पड़ते हैं... कभी ख़ुद के लिए, कभी औरों के लिए तो कभी पता नही किसके लिए... लेकिन समझौता करना एक आदत बन जाती है। इंसान जब बच्चा होता है तो उसे अपने माता पिता के लिए समझौता करना पड़ता है, जब कुछ बड़ा होता है और स्कूल में जाता है तो शिक्षक के लिए, किसी से दोस्ती करता है तो दोस्तों के लिए भी समझौता करना पड़ता है। फ़िर एक दिन आता है जब उसकी शादी हो जाती है, शादी के बाद पत्नी के लिए उसे समझौता करना पड़ता है। धीरे-धीरे वक्त बढ़ता है और उसके बच्चे हो जाते हैं, फ़िर बच्चों के लिए समझौता... नवजात अवस्था, लड़कपन, किशोरावस्था, जवानी और यहाँ तक कि उम्र का अन्तिम पड़ाव बुढापा भी समझौता करने में ही बीत जाता है। फ़िर सोचिए कि इंसान की निजी ज़िन्दगी, उसकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं और तमाम अभिलाषाएं कहाँ गुम हो जाती हैं? सवाल कठिन है लेकिन इतना भी कठिन नही कि ज़वाब न हो? इसका भी ज़वाब है... और ज़वाब ये है कि उसकी सारी उमर संस्कारों के बंधन में बंधकर रह जाती है और उसे अपनी निजी ज़िन्दगी का एहसास ही नही हो पाता, वह तमाम उम्र उन्ही संस्कारों को निभाने का दिखावा करता है और उसकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं उसी दिखावे की धुंध में कहीं गुम हो जाती हैं और उसकी तमाम उम्र उन्हें तलाशने में गुज़र जाती है लेकिन धुंध इतना गहरा हो जाता है कि कुछ भी हाथ नहीं आता, सिवा दो गज ज़मीन और एक टुकडा कफ़न के...
मंगलवार, अगस्त 18, 2009
संस्कारों की पाबन्दी और दिखावे का धुंध...
Writer रामकृष्ण गौतम पर मंगलवार, अगस्त 18, 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 Responzes:
aapne bilkul sahi kaha hai.. yeh jeevan ek samjhota ban kar hi rah gaya hai..
-Sheena
एक टिप्पणी भेजें