मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

मुझको पहचान लो... तो बताऊँ..!




आप सभी इन महोदय से भली भांति वाकिफ़ हैं... ज़रुरत है तो सिर्फ दिमाग पर ज़ोर डालने की... ये महोदय बहुत जाने माने वैज्ञानिक थे... इन्होंने विज्ञान के लिए काफी कुरबानिया दीं थीं... फिलहाल आप सोचिए और बताइए... ज़रुरत पड़ी तो मैं आपको "क्लू" दे दूंगा... वैसे मुझे मालूम है आप लोगों को "क्लू" की आवश्यकता नहीं पड़ेगी... अगर इनके साथ वाली बच्ची का परिचय भी मिल जाए तो क्या कहने ..?

शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार...

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार

लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत

पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम
सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर

जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर

अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप
सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास

पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास


चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान



(मैं जब सातवीं कक्षा में था तब मेरे बड़े भैया निदा फ़ाज़ली जी की इस रचना को जगजीत सिंह जी की आवाज़ में ग़ज़ल के रूप में सुना करते थे, उस वक़्त कई बार मैंने भी इसे सुनने और समझने की कोशिश की थी... समझने में परेशानी होती थी, तो लिखकर दोराय करता था... धीरे-धीरे यह ग़ज़ल मैंने रट ली, तब से लेकर अब तक मैंने इसे अपने ज़हन में संजोया हुआ है... अपनी याद को ताज़ा रखने के लिए मैंने इसे अपने ब्लॉग पर संजो लिया है!...)

सोमवार, जनवरी 18, 2010

मिल गया बाबा का आशीर्वाद...

महाराज श्री श्री १००८ बाबा समीरानन्द जी ने मुझे अपना कृपा पात्र बना लिया है... बाबा श्री ने मुझे अपना आशीष प्रदान किया और अपने आश्रम प्रबंधन का प्रबंधक-आश्रम व्यवस्था और कमरा आरक्षण का अतिरिक्त प्रभार भी सौंपा (स्वामी रामकृष्णानन्द महाराज जी आश्रम के प्रबंधक-आश्रम व्यवस्था घोषित)... अब मेरी बारी है... मैं उन्हें और उनके आश्रम प्रबंधन को अपनी ह्रदयिक सेवाएं प्रदान करूँगा... बाबा श्री मुझे शक्ति प्रदान करें ताकि मैं अपना दायित्व भली भांति निभा सकूं... जय जय बाबा समीरानन्द की...

जय बाबा स्वामी ललितानंद महाराज जी की
जय मां अदा चैतन्य कीर्ति महाराज साहिबा जी की
जय बाबा स्वामी महफूज़ानंद महाराज जी की

रविवार, जनवरी 17, 2010

अज़नबी शहर के अज़नबी रास्ते...

अज़नबी शहर के अज़नबी रास्ते
मेरी तनहाई पर मुस्कुराते रहे
मैं बहुत दूर तक बस यूं ही चलता रहा
तुम बहुत दूर तक याद आते रहे
ज़हर मिलता रहा और जाम हम पीते रहे
रोज़ ही मरते रहे और रोज़ ही जीते रहे
ज़िन्दगी भी हमें आजमाती रही
एक दिन ऐसा हुआ कि
मैं ज़रा सा थक गया
थक के सोचा बैठ लूं मैं
एक किनारे पर कहीं
उसी किनारे पर पेड़ की कुछ पत्तियाँ
जाने क्या थी कह रहीं
उन बातों को सुनकर भी मैं
सबकुछ अनसुना सा कर गया
ज़ख्म भी भरते रहे और
मैं यूं ही चलता रहा
*****************************
मैं यूं ही चलता रहा और
बस यूं ही चलता रहा
(हो सकता है इस ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ "राही मासूम रज़ा" की लिखी हुई हो सकती हैं... या फिर पूरा ग़ज़ल ही उनका है... इसे अपने ब्लॉग पर लिखते वक़्त मुझे इसके रचनाकार का नाम नहीं मालूम था, उन तमाम टिप्पणीकारों का शुक्रिया जिन्होंने इसके रचयिता का नाम मुझे बताया... )

परदा और हम...





परदा... एक ऐसा सच है
जिसमें हम वही देखते हैं
जो हम देखना चाहते हैं
हम देखना चाहते हैं ग्लैमर
और चाहते हैं सस्पेंस
उस परदे पर
हमें वही मिलता है
बिल्कुल वही
हम जब
परदे के सामने होते हैं
हम भूल जाते हैं कि
हम परदे के सामने बैठे हैं
हम सोचते हैं कि
हम भी वहीं हैं जहां
ये सब हो रहा है
चाहे वह वांटेड का सलमान हो
या गजनी का आमिर
चाहे वह देवदास हो
या फिर हो आनन्द
कभी सोचा है
कि ऐसा क्यों होता है
शायद इसलिए क्योंकि
हम अपने अन्दर
तरह-तरह के चरित्र बनाते हैं
कभी खुद में बच्चन
तो कभी ब्रेड पिट को
बुलाते हैं!!!

शुक्रवार, जनवरी 15, 2010

सूरज हुआ मद्धम, चाँद...




सहस्राब्दी का सबसे लंबा कंगन सूर्यग्रहण शुक्रवार १५ जनवरी २०१० को देखा गया। हालाँकि इस दुर्लभ नजारे को भारतीय उपमहाद्वीप के केवल कुछ ही हिस्सों में ही देखा जा सका। सूर्यग्रहण को देखने के लिए जगह-जगह लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। ऐसा अगला सूर्यग्रहण 1033 साल बाद 24 दिसंबर 3043 को दिखाई देगा।

यह वैज्ञानिक प्रक्रिया धनुषकोडि में प्रात: 11 बज कर 17 मिनट पर शुरू हुई और चंद्रमा की छाया से सूर्य छिपता सा प्रतीत हुआ।

जैसे ही सूर्यदेव ग्रहण की रेखा को पारकर बाहर आए, मंदिरों के कपाट खुल गए और श्रद्धालुओं ने इश्वर के समक्ष माथा टेका!...

मंगलवार, जनवरी 12, 2010

मौत आई ज़रा-ज़रा करके...

घर से निकले थे हौसला करके!
लौट आए ख़ुदा-ख़ुदा करके!!








दर्द-ऐ-दिल पाओगे वफ़ा करके!
हमने देखा है तज़ुरबा करके!!





लोग सुनते रहे दिमाग़ की बात!
हम चले दिल को रहनुमा करके!!






जिंदगी तो कभी नहीं आई!
मौत आई ज़रा-ज़रा करके!!






किसने पाया सुकून दुनिया में!
जिंदगानी का सामना करके!!
 
 
 
 

(इस ग़ज़ल के रचनाकार का नाम तो मुझे नहीं
पता लेकिन इसे मैंने मशहूर ग़ज़ल गायक
जगजीत सिंह जी की आवाज़ में सुना है!)

शनिवार, जनवरी 09, 2010

एक पाती बाबा के नाम...

मैं आज महाराज श्री श्री १००८ बाबा समीरानन्द जी की "चिटठा भविष्यवाणी" 'वर्ष २०१० में आपके चिट्ठे का भविष्य' पढ़ रहा था| पूरी कथा पढ़ी और उसके बाद उस कथा की दक्षिणा देने के लिए "टिप्पणी भवन" में प्रवेश किया... जैसे ही मैं वहां पहुंचा मैंने देखा कि मुझसे पहले ही वहां पच्चीस भक्त मौजूद थे| कुछ अपने सर पर हाथ धरे महाराज जी की कथा का सार समझने में लगे थे तो कुछ  सामने हाथ उनके सामने हाथ जोड़े उपाय बताने की प्रार्थना कर रहे थे। कुछ ने तो महाराज जी के पैर ही पकड़ रखे थे। इस सबके बावजूद भी महाराज अपनी आदत के अनुरूप मुस्कुराए जा रहे थे। वाह! महाराज जी, क्या नज़ारा था वो। आप एकदम अद्भुत नज़र आ रहे थे उस व़क्त। बहरहाल! मैं भी एक किनारे खड़ा हो गया और अपनी दक्षिणा दे दी, ये सोचकर कि मुझ नादान को भी महाराज श्री का बराबर आशीर्वाद मिलेगा। मैंने सोचा कि दक्षिणा देने के साथ हम बच्चों के लिए आश्रम में आरक्षण मांग लूं लेकिन वो मौका सही नहीं था। खैर! इस पोस्टिंग के माध्यम से महाराज श्री से आरक्षण की मांग कर रहा हूं। महाराज जी कृपया मेरी मांग पर अमल करें :






मेरी मांग है कि अपने आश्रम में हम नवोदितों को थोड़ी सी जगह दे दें। हमें केवल स्थान चाहिए, कुटिया का निर्माण हम खुद ही करे लेंगे। कैसे करेंगे और किस तरह का करेंगे ये आप हम पर ही छोड़ दें। बच्चों की पंचायत में क्यों पड़ रहे हैं। महाराज जी, हम इक्कीसवीं सदी के बच्चे हैं, रास्ता खुद ही बना लेंगे। आप तो बस आश्रम में जगह देने वाले एग्रीमेंट पर अपना आशीर्वादरूपी दस्त़खत कर दीजिए बस! फिर देखिए हम आपके सानिध्य में भी रहेंगे और आपका प्रचार भी करेंगे।





आपकी तस्वीर वाली लॉकेट बेचेंगे। आपके प्रवचन के कैसेट, सीडी बगैरह बेचेंगे और तो और आश्रम के विकास के लिए देसी-विदेशी निवेशकों को भी बुलाएंगे।





मैं अन्य तमाम चिट्टाकारों से भी अनुरोध करूंगा कि इस कार्य में वे मेरी सहायता करेंगे। बस आप अपना शुभाषीश दे दीजिए।

गुरुवार, जनवरी 07, 2010

एक अद्भुत "'नई' 'दुनिया'"

ऑनलाइन डायरी यानि ब्लॉग... यह एक ऐसा शब्द है जिससे अब तक लगभग सभी शिक्षित लोग वाकिफ हो चुके हैं। कुछ लोग इसे 'चिट्ठा' का नाम देते हैं तो कुछ कहते हैं 'ब्लॉग'... कोई कुछ भी कहे लेकिन मतलब एक ही निकलता है।


इसका उपयोग करने वाले या इसमें अपनी रचनाओं, भावनाओं, अभिव्यक्तियों, विचारों, आलेखों या तुकबंदियों का समावेश करने वाले महानुभावों को 'चिट्ठाकार' अथवा 'ब्लॉगर' कहते हैं। हालांकि क्या कहते हैं यह एक सामान्य सी बात है, लेकिन अब जब 'बिना कलम वाले कागज' की बात ही चल रहीं है तो 'कीबोर्ड लेखक' की बात करना भी उचित ही है। कई मायनों में कागज और कलम से हटकर अपने विचारों को एकत्रित करने का यह जरिया काफी कारगर हो चुका है।


चिट्ठाजगत, चिट्ठाजगत डॉट इन,  नारद, हिंदी ब्लॉग्स डॉट कॉम, ब्लॉगवाणी, इंडिया स्फीयर हिंदी खंड आदि कुछ ऐसे ब्लॉग एग्रीगेटर हैं जिनसे ब्लॉग दुनिया का बगीचा गुलजार बना हुआ है। इसी क्रम में समीर लाल 'समीर', गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल', अविनाश वाचस्पति 'मुन्नाभाई', नारदमुनि G, यशवंत जी (भड़ास ब्लॉग), ताऊ साब, महेंद्र मिश्र जीअल्पना वर्मा जीशीना जी, संगीता पुरी जी  आदि के ब्लॉग, ब्लॉग बगीचे के वो मीठे फल हैं जिनसे पाठकों को शानदार रचनाओं को पढ़ने का स्वाद मिलता है।


इस तरह तमाम सबूतों (ब्लॉग) और गवाहों (ब्लॉगर्स व पाठक) को मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि ब्लॉग और ब्लॉगर्स की दुनिया एक "'नई''दुनिया'" की तरह ही है या यकीनन कहा जा सकता है कि यह एक "'नई''दुनिया'" ही है।

शनिवार, जनवरी 02, 2010

फिर मिलेंगे चलते चलते...

अरे! तुम...




मेरे दाहिने ओर से आई एक मीठी सी आवाज ने अचानक मेरा ध्यान उचटा दिया।



तुम यहां कैसे? लोकल हो क्या? यहां कोई काम से आए हो? क्या करते हो?



एक मिनट के भीतर ही इतने सारे सवालों ने मुझसे उस 24-25 की युवती का परिचय बढ़ाना शुरू कर दिया।

मैं बिल्कुल बेवाक होकर उसकी तरफ देखते हुए उसे पहचानने की कोशिश करने लगा।



इतने में उसने फिर बोलना शुरू किया- अरे! तुमने मुझे नहीं पहचाना क्या? याद करो, मैट्रो, जीटीबी, पर्स..। तुम कितना परेशान हुए थे उस दिन मेरे लिए।



चलो यहीं पास में ही एक कॉफी शॉप है, वहीं चलते हैं , मुझे भूख भी लगी है, वैसे भी मेरा खाना खाने का टाइम हो गया है। वहीं चलकर बात करते हैं।



उसकी बातों का सिलसिला जारी था और मैं कुछ भी बोल पाने में अक्षम... मैं हर बार सोचता कि अब ये बोलूंगा, उससे पहले वही बोल पड़ती और जब बोलती तो पूरे एक पैराग्राफ पर ही जाकर उसकी बातें खत्म होतीं। इसलिए मैंने बिना कुछ बोले हाथ से इशारा किया और हम लोग कॉफी शॉप की तरफ बढ़े।





हम लोग वहां पहुंचे और कॉफी शॉप की कैश काउंटर के पास वाली कुर्सी पर बैठ गए।





तुम क्या लोगे? उसने कहा।



बस! कॉफी..। मैंने उत्तर दिया।





हां! भैया, मेरे लिए एक सैंडविच और एक कॉफी प्लीज... उसने कॉफी शॉप के कर्मचारी से कहा।





तुम यहीं रहते हो क्या? उसने फिर पूछा।



नहीं! मैंने ज़वाब दिया।



फिर यहां कैसे? उस दिन भी मिले थे। उसने प्रश्न किया।





मैंने कहा - एक्चुअली, मैं यहां एक्ज़ाम देने आया था।



कहां, काहे का एक्जाम?.. उसने पूछा।



मैंने ज़वाब दिया - जामिया मिलिया इस्लामिया, आईआईएमसी और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी।



ओ! वॉव! उसने प्रतिक्रिया दी।



यहां रुके कहां हो, आई मीन किसी होटल में या फिर कोई रिश्तेदार हैं यहां?



मेरे बड़े भैया रहते हैं यहां, मैंने बताया।



कहां रहते हैं? उसने पूछा।



यहीं पास में ही घर है, मुखर्जी नगर में। मैंने कहा।



ओ! ग्रेट, मतलब हम पड़ोसी हुए, मेरा मतलब है कि मैं भी यहीं पास में ही रहती हूं न! मैं ढाका गांव में रहती हूं, डेविड फ्रांसिस चेंबर। वैसे तुम्हारे भैया...

वो क्या करते हैं? उसने मुझे फिर टटोला।



वो आईएएस की कोचिंग करते हैं! मैंने बताया।



गुड! उसने कहा।

वेल... तुम हो कहां के?



जबलपुर... मैंने कहा।



अच्छा एमपी के हो!!! उसने फिर प्रतिक्रिया दी।





जी! मैंने कहा...



तुम्हें पता है, मैं उस इंसीडेंट के बारे में जब भी सोचती हूं, वो मुझे किसी िफल्म की स्टोरी लगती है। रियली, आई वाज सरप्राइज्ड दैट टाइम... वैल.. थैंक्स टू यू। वो बोलती ही जा रही थी।





ओह! आई एम सॉरी... मैंने तो तुम्हारा नाम ही नहीं पूछा... तुम्हारा नाम क्या है। उसने पूछा।





जी, रामकृष्ण गौतम.. मैंने बताया।





वॉव! तीनों भगवान तो तुम्हारे ही साथ हैं।

सॉरी हां, प्लीज डोंट माइंड... मैं मजाक कर रही थी। उसने एक्सक्यूज दी।





मैंने कहा - हां, सभी यही कहते हैं कि मेरा नाम बहुत लैंदी है।



मेरा नाम रिनी है। वैसे ये घर का नाम है। मेरे कॉलेज में मेरा नाम प्राजक्ता है, प्राजक्ता शर्मा। उसने फिर कहा।



इसके बाद उसने मेरे बारे में बहुत सी बातें पूछी, मैंने भी कुछ-कुछ पूछा। खाना बगैरह हुआ और फिर बातें... काफी देर तक (लगभग 40 मिनट) हम दोनों बैठे रहे।



वैल... अब चलने का टाइम हो गया है। पापा वेट कर रहे होंगे, उनके साथ सीपी तक जाना है। वह अचानक उठी और पर्स खोलते हुए बोली।



ये वही पर्स है न! मैंने पूछा।





हा... हा... हा... वह हंसी और बोली - यू गॉट इट। वेरी फनी न!





उसकी हंसी देखकर मैंने भी थोड़ा सा मुस्कुरा दिया।



थैंक्स अगेन, थैंक्स अलॉट... ओके बॉय, सीया...



वह पैसे देकर कॉफी शॉप से निकल गई। मैं उसे देखता रहा।



फिर मैं भी उसके पीछे-पीछे बाहर की ओर निकला। मैं मुड़कर उसके विपरीत दिशा में उसी दुकान की तरफ जाने लगा जहां से हम लोग कॉफी शॉप तक आए थे।



हैल्लो, ओ! एक्सक्यूज मी... गौतम... राम... उसने आवाज दी!



मेरा सेल नंबर... ये लो...



अपना भी दे दो... अच्छा, डायल करके मेरे नंबर पर मिस दे दो... आई विल सेव इट।



ओके बॉय...





उसने इतना कहा और वहां से चली गई।





मैं भी वापस उस किताब की दुकान में आकर किताबें देखने लगा।





(ये बात उस समय की है जब मैं जून 2008 में नई दिल्ली गया हुआ था। मुझे तीन, चार कॉलेजेस के एंट्रेंस एक्जाम देने थे। मैं जामिया नगर से जामिया मिलिया इस्लामिया कॉलेज के पेपर देकर लौट रहा था। मैट्रो में घूमने का काफी शौक था तो राजीव चौक (चांदनी चौक और चावड़ी बाजार के पहले का स्टेशन) से मैट्रो पर सवार हुआ। मुझे नहीं पता कि रिनी उर्फ प्राजक्ता जी कहां से सवार हुईं थीं लेकिन मेरी नज़र उन पर जीटीबी (गुरु तेग बहादुर) नगर में पड़ी, जब वे ये चिल्ला रहीं थीं - मेरा पर्स, मेरा पर्स... मैट्रो में छूट गया। प्लीज, प्लीज, प्लीज..।



हालांकि मुझे भी जीटीबी नगर में ही उतरना था लेकिन मुझे घूमना था इसलिए मैं फिर से वापस राजीव चौक जाने के लिए साइउ में अगली ट्रेन के इंतजार में उतरकर खड़ा हो गया था। वो जब चिल्ला रही थी तो उसका हाथ और उसकी नज़रें अचानक ही मुझ पर टिंक गईं, चूंकि मैं बिल्कुल गेट के पास ही खड़ा था। इसलिए मैं उसी ट्रेन में वापस बैठने और जीटीबी से आगे तक जाने वाली स्टेशन जाने के लिए विवश हो गया। ट्रेन चल पड़ी, वो मेरी तरफ ही देख रही थी, मैंने ट्रेन में चढ़ते हुए उसे हाथों से इशारा किया कि डोंट वरी, आई`ल मैंनेज... वो आशा भरी निगाहों से मेरी तरफ देख रही थी। हालांकि वो भी वापस ट्रेन में बैठ सकती थी लेकिन जैसे ही ट्रेन के गेट खुले, लोग तेजी से चढ़ने लगे और वो उतरकर काफी आगे जा चुकी थी, मैं गेट के साइड में ही खड़ा था क्योंकि मुझे फिर वहीं से वापस दूसरी ट्रेन में जाना था। इसलिए उसकी आवाज़ सुनते ही मैं जल्दी से ट्रेन में चढ़ गया। ट्रेन अगले स्टेशन पर रुकी उसने इशारे से बताया था कि उसका पर्स सीट पर रखा होगा। मैंने उसका पर्स ट्रेन में चढ़ते ही पहचान लिया था क्योंकि वहां केवल एक ही पर्स था। निश्चित है कि वह पर्स उसी लड़की का था, सो जब मैंने उस पर्स को उठाया तो किसी ने कुछ नहीं कहा। मैं वापस जीटीबी नगर आया तो मैंने देखा कि वह लड़की रोनी सूरत लिए वहीं आसपास टहलते हुए फोन पर बतिया रही थी, जहां से उसने मुझे इशारा किया था। जैसे ही ट्रेन रुकी और तीसेक सेकंड बाद मैं उसका पर्स लेकर उतरा, वह झट ही मेरे तरफ दौड़ी और थैंक यू वैरी-वैरी मच कहते हुए मुझसे पर्स ले लिया और बॉय बोलते हुए वहां से चली गई।



अब उसके जाने के बाद नियत स्थान का टोकन न होने की वजह मुझे जो झेलना पड़ा वह तो पूछिए ही मत! खैर! बाल-बाल बचे थे उस दिन।



उसी दिन के बाद वह अचानक मुझे जीटीबी नगर की एक पुस्तक के दुकान पर मिली थी और वहीं से उसके प्रश्नों की झड़ी शुरू हुई थी। वैसे उसका मोबाइल नंबर अभी भी मेरे पास ही है, हालांकि अभी तक बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी, एकाध मैसेज ज़रूर किए थे, उसने ज़वाब भी दिए। पर बात नहीं की अभी तक, अभी मैं फिर से दिल्ली जा रहा हूँ, इस बार उससे जरूर मिलूंगा और फिर बताऊंगा... क्या बात हुई...।)

शुक्रवार, जनवरी 01, 2010

नया साल ख़ुशियोँ का पैग़ाम लाए...

नया साल ख़ुशियोँ का पैग़ाम लाए

ख़ुशी वह जो आए तो आकर न जाए




ख़ुशी यह हर एक व्यक्ति को रास आए

मोहब्बत के नग़मे सभी को सुनाए




रहे जज़ब ए ख़ैर ख़्वाही सलामत

रहें साथ मिल जुल के अपने पराए




जो हैँ इन दिनोँ दूर अपने वतन से

न उनको कभी यादें ग़ुर्बत सताए




नहीँ खिदमते ख़ल्क़ से कुछ भी बेहतर

जहाँ जो भी है फ़र्ज़ अपना निभाए




मुहबबत की शमएँ फ़रोज़ाँ होँ हर सू

दिया अमन और सुलह का जगमगाए




रहेँ लोग मिल जुल के आपस में बर्क़ी

सभी के दिलोँ से कुदूरत मिटाए

शनिवार, दिसंबर 26, 2009

कुछ लाइनें माता-पिता के लिए...




शुक्रवार की रात को मैं एक किताब पढ़ रहा था। उस किताब का नाम है `एक पुस्तक माता पिता के लिए...। किताब के लेखक हैं सोवियत शिक्षाशास्त्री अंतोन सेम्योनोविच माकारेंको (1888-1939)। अंतोन माकारेंकों ने अपनी इस किताब को पारवारिक लालन पालन को समिर्पत किया है। उसमें लिखीं कुछ बातों ने मेरे अंदर एक सोच पैदा कर दी और उसी का नतीज़ा है कि मैं उन बातों का उल्लेख इस ब्लॉग में कर रहा हूं...
आप भी पढ़ें...

उन्होंने इस किताब में परिवार में बच्चों के भरण पोषण में आने वाली कठिनाइयों और उन पर काबू पाने के तरीकों का विश्लेषण किया है।

इस किताब में लिखी तमाम बातें बेहद गहराई से महसूस करते हुए लिखी गईं हैं। लेखक ने इन सब बातों को दिल की गहराइयों से एनालाइज किया है और बताया है कि माता-पिता को अपने बच्चे या बच्चों को पालने के लिए कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और किस तरह नेक माता-पिता सभी परेशानियों का हंसकर सामना करते हैं और अपने बच्चों को खुद से भी बेहतर बनाते हैं।

किताब के एक पैराग्राफ में माकारेंको लिखते हैं : यह नितांत आवश्यक है कि सभी माता-पिता अपने बच्चों को सुखी देखना चाहते हैं, लेकिन उनमें से सभी लोग यह नहीं समझ पाते कि सुख, सबसे पहले वैयक्तिक और सामाजिक के बीच सामंजस्य है और यह सामंजस्य एक दीर्घकालिक, कुशलतापूर्ण तथा कष्टसाध्य लालन-पालन के ज़रिए ही हासिल हो सकता है।

उन्होंने यह भी लिखा कि जो माता-पिता इस तथ्य से समझौता नहीं करना चाहते कि विवाह बंधन में बंधकर और मात्र एक ही बच्चे को जन्म देकर भी वे शिक्षक बन चुके हैं। उन माता-पिताओं का व्यापक रूप से प्रयुक्त बहाना `समय की कमी` होता है, लेकिन उनकी पसंद का दायरा काफ़ी संकीर्ण होता है। या तो वे हर कठिनाई के बावजूद अपने बच्चों का अच्छी तरह लालन पालन कर सकते हैं या बहाने की शक्ल में तरह तरह की `वस्तुगत कठिनाइयों` का हवाला देकर खराब ढंग से यह काम पूरा कर सकते हैं।

इसके बाद उन्होंने उल्लेख किया कि अनुभवहीन माता-पिता की सबसे बड़ी ग़लती यह होती है कि वे हर प्रकार के नैतिक प्रवचनों पर भरोसा करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि इस तरह के माता-पिता बच्चों को हर समय एक ज़जीर में बांधे रखते हैं। उनके बच्चों का हर कदम, कोई भी हऱकत, सविस्तार अनुदेशों का विषय बन जाती है। इस यह कोई ता़ज्जुब की बात नहीं है कि बच्चे का स्वस्थ शरीर भी इस मौखिक दबाव को बर्दाश्त नहीं कर पाता और वैसे भी बच्चे तो हैं ही...

फलत: एक दिन उनका बच्चा `ज़ंजीर` तोड़ देता है और जिसका उसके माता-पिता को सर्वाधिक डर था, उसी बुरी सोहबत में जा फंसता है। माता और पिता दोनों भयाक्रांत हो उठते हैं। वे सहायता के लिए पुकारते हैं, वे मांग करते हैं कि उनके बच्चे को ``शिक्षा की ज़ंजीर`` से बांध दिया जाए, जिसके बिना वे बच्चे का लालन पालन नहीं कर सकते...

वे आगे लिखते हैं कि इस प्रकार के लालन पालन के लिए मुक्त समय की ज़रूरत होती है और साफ ज़ाहिर कि यह समय बर्बाद किया जाता है।

अंत में उन्होंने अपनी सारी की सारी विश्लेषण और पूरे अनुभव का प्रयोग करते हुए लिखा कि सफल पारिवारिक लालन पालन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण शर्त है बच्चों की आवश्यकताओं का सही नियमन करने की माता-पिता की दक्षता..। बच्चे की हर सनक को उसकी ज़रूरत नहीं समझा जाना चाहिए। बच्चों को ऐसी सुख सुविधाएं पेश करना अननुज्ञेय है, जिन्हें माता-पिता कष्टसाध्य श्रम से प्राप्त करते हैं..।

शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009

सपने में भगवान...

एक दिन मेरे आराध्य देव मेरे सपने में आए और कहने लगे - वत्स! तुम कैसे हो ?

पहले तो मैं चौंका, फिर ज़रा संभला और बोला - आप कौन हैं? इतनी रात को कैसे? कोई विशेष काम है क्या?



उन्होंने कहा - आज मुझे नींद नहीं आ रही थी, तो सोचा थोडा तफरीह हो जाए. सोचा किस "मूर्ख" को इतनी रात को जगाऊँ? सब के सब "बेवकूफ" गहरी नींद में सो रहे होंगे, मेरी लिस्ट में सबसे अव्वल दर्जे के मूर्ख तुम ही हो, तो चला आया तुम्हारे पास, कुछ बात करनी है तुमसे, कहो तुम्हारे पास टाइम है क्या?


मैंने कहा - पहले तो ये बताइए कि आप मुझे "मूर्ख" (वो भी अव्वल दर्जे का) क्यों कह रहे हैं, मैंने क्या मूर्खता कर दी है प्रभु?


उन्होंने कहा - यार देखो मेरा सिंपल सा फंडा है. दुनिया मे ऐसे बहुत से लोग हैं जो मुझसे रोज़-रोज़ अनगिनत शिकायत करते हैं. कोई कहता है मैं बहुत परेशान हूँ, कोई अपने दुःख गिनाता है, कोई भी मुझे ऐसा नहीं दिखता जो काहे प्रभु आप आगे जाओ, मुझे कुछ नहीं चाहिए मैं तो बेहद खुश हूँ...


एक तू ही दिखा "मूर्ख" जिसने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा, कभी कोई शिकायत नहीं कि तूने... मैंने जब भी तुझे देखा, खुश ही पाया, इसीलिए मेरी लिस्ट में तू सबसे बड़ा "मूर्ख" बन गया... और यही वज़ह थी कि इतनी रात को मैं तेरे सपने में आ पहुंचा...


उन्होंने कहा - चलो कुछ बातें करते हैं...


मैं अवाक होकर उनकी बातें सुन रहा था और सोच रहा था कि आज दिन में मैंने ऐसा कौन सा बेहतर काम कर दिया है जिससे मैं ऐसा सपना देख रहा हूँ कि स्वयं मेरे आराध्य ही मेरे सपनों में आए हुए हैं...


मैं ये सोच ही रहा था कि अचानक उन्होंने जम्हाई लेनी शुरू कर दी... मैंने पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं... उन्होंने उत्तर दिया अरे "मूर्ख" मुझे नींद आ रही है, चल उठ, अब मुझे सोने दे...
मैंने आश्चर्य से कहा कि आप तो भगवान् हैं, आपको भला नींद कैसे आ सकती है...

वो जोर से हँसे और बोले - "मूर्ख", तू बहुत बड़ा "मूर्ख" है, मेरे यहाँ, तेरे पास आने का प्रयोजन तू अभी तक नहीं समझ नहीं पाया... मैंने तुझसे बातें करने को कहा और तू है कि इस सोच में पड़ा है कि तुने दिन भर में ऐसा कौन सा बेहतर काम किया है कि मैं यहाँ आ पहुंचा... तू बोर कर रहा है यार, इसलिए मुझे नींद आने लगी...


अरे पागल! तुझे मुझसे बात करना चाहिए, तू खुशकिस्मत है कि मैं खुद तेरे सामने बैठकर तुझसे बात कर रहा हूँ, मैं ऐसे हर किसी से बात नहीं करता... तू मुझे अच्छा लगता है इसलिए ही तो मैं तेरे पास आया हूँ, अगर मैं सच में तेरे सामने आता तो तू घोर आश्चर्य के मारे बेहोश हो जाता, इसलिए मैं तेरे सपनों में आया हूँ...


चल शुरू हो जा और बता कि तुझे क्या चाहिए?


मैंने कहा - प्रभु सबसे पहले तो मुझे एक उचित कारण बताइए कि आपने मेरे पास आना ही ठीक क्यों समझा?


उन्होंने कहा कि मैं ऐसे हर किसी के पास नहीं जा सकता क्योंकि कोई मेरी क़दर नहीं करता, कोई मुझसे बात करना तक पसंद नहीं करता... सब मुझे केवल दुःख में ही याद करते हैं... और खुशियों में किसी को मेरी खबर ही नहीं होती... सब मुझे भूल जाते हैं... एक तू ही है जो मुझे हर पल याद करता है... यही नहीं तुने मुझे अपने "बटुए" और अपनी "लोकेट" में भी जगह दे रखी है... वैसे ये बटुए और लोकेट वाला काम कई लोग करते हैं, मगर वो महज़ उनका शौक होता है... लेकिन मैं जानता हूँ कि तू ये सब शौक या दिखावे के लिए नहीं बल्कि खुद की श्रृद्धा के चलते करता है... इसीलिए मैं तेरे पास आया... और मेरा तेरे पास आना सार्थक भी हुआ। तूने मेरा सम्मान किया और मुझे "प्रभु" कहकर भी बुलाया, मैंने तुझे "मूर्ख" कहा फिर भी तूने कुछ नहीं कहा बल्कि तूने बड़े आदर से पूछा की मैं तुझे "मूर्ख" क्यों कहा रहा हूँ?


अब तू समझ गया न, कि मैंने तुझे ही क्यों चुना?


अब लोगों के मन में मेरे लिए जगह नहीं बची बेटे, वो मुझे भूल चुके हैं, उनका सारा का सारा ध्यान मात्र "लक्ष्मी" की ओर है, वो पूरी तरह से व्यावसायिक हो चुके हैं, तभी तो अब मेरा और मेरे नाम का ता व्यवसाय करने लगे हैं... पर मुझे ख़ुशी है कि तुझ जैसे चंद लोग अभी दुनिया में हैं, तुम जैसे "मूर्खों" के बल पर ही मैं "उचक" रहा हूँ...

तेरा भला हो गौतम...


उन्होंने इतना कहा और चल दिए...

शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009

पल दो पल की शायरी...



जो बीत गई वो बात गई
सूरज निकला और रात गई

अब जीने की ख्वाहिश क्या करना
मरने की तमन्ना कौन करे


जब प्यास बुझाने की खातिर
प्यासा पनघट को जाता है



ऐसे में प्यासा क्यों मरना
और... पानी-पानी कौन करे!...

शनिवार, दिसंबर 12, 2009

अपनी मर्जी से कहां अपनी मर्जी के हम हैं...

वक्त बदलता है और बदलता रहेगा... किसी के रोकने से न तो रुका है और न ही रुकेगा... जिसने भी रोकने की कोशिश की वह इसके प्रवाह में आकर बह गया।

किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि इंसान पैदा होने के बाद बच्चा बनेगा, फिर जवान और अंत में बूढ़ा होकर वक्त की बनाई हुई जंजीरों में कैद हो जाएगा। यह शाश्वत सत्य है कि जिसने जन्म लिया है उसे मरना भी है और जो जन्म लेता है उसे मरने से पहले बहुत सारे काम करने पड़ते हैं... काम कई तरह के हो सकते हैं। कोई अच्छा काम करता है तो कोई बुरा और कुछ ऐसे भी होते हैं जो बहुत अच्छे काम कर जाते हैं और बन जाते हैं गांधी, नेहरू, लिंकन या ओबामा!...

ये वो लोग हैं जो कभी एक दायरा बनाकर नहीं रखते। इनकी नजर ज़िन्दगी केवल जीने का नाम नहीं होता, बल्कि ये मानते हैं कि ज़िन्दगी हमेशा कुछ न कुछ बेहतर करते रहने का काम है और यही वजह कि हमें हमारे पड़ोसी तक ढंग से नहीं जानते और इन्हें पूरी दुनिया जानती है और तब तक जानती है जब तक वक्त चलता है।

कौन जानता था कि 4 अगस्त 1961 को होनोलूलू में किन्याई मूल के एक साधारण से परिवार में जन्मे बराक हुसैन ओबामा को 20 जनवरी 2009 से पूरी दुनिया, दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में (अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति, अश्वेत मूल के पहले) जानने लगेगी। मामला साफ है कि ओबामा ने अपने जीवनकाल में बहुतेरे असाधारण कार्य किए हुए होंगे और वक्त के आगे चलना पसंद किया होगा, न कि वक्त के साथ।

आज की वर्तमान पीढ़ी से अगर उनके चहेते या उन्हें चाहने वाले आधुनिकता से बचने की सलाह देते हैं तो उनका एक ही साधारण और रटा-रटाया ज़वाब होता है `इंसान को वक्त के साथ चलना चाहिए!` शायद यही वजह है कि `वक्त के साथ चलना` उनका दायरा बन जाता है और तमाम उम्र वो इसी दायरे को अपना संपूर्ण जीवन मानकर जीते हैं। एक दिन आता है जब उन्हें पता चलता है कि हम जिस दायरे को अपना जीवन समझ रहे थे वह एक धोखे और छलावे के सिवाय और कुछ नहीं था। पर जब वो इस दायरे को तोड़ने की कोशिश करने का प्रयास करते हैं तब तक रेलगाड़ी पटरी छोड़कर काफी दूर जा चुकी है यानि वक्त बदल चुका होता है।

कहने का मतलब साफ है कि वक्त बदलाता है और बदलता ही रेहगा और जिसने इसे पकड़ने की कोशिश की वह इसकी गिरफ़्त में जकड़ गया। कहा भी गया है `कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदलग गए, कुछ लोग हैं जो वक्त के सांचे में ढल गए!` स्पष्ट है कि वक्त के सांचे बदलने वाले गांधी, नेहरू, लिंकन और ओबामा बन जाते हैं, वक्त के सांचे में तो कोई भी ढल सकता है।वक्त को बदला जा सकता है अपने चरित्र से। इसे रोका नहीं जा सकता। रोकने की कोशिश तो महाज्ञानी, महापराक्रमी और महाबलशाली रावण ने भी की थी, अंजाम रामायण में लिखा है, जानने के लिए पढ़ सकते हैं। मैंने पढ़ी है इसलिए बता रहा हूं कि रावण भी वक्त को नहीं रोक पाया। श्रीराम ने वक्त को बदला था, अपने चरित्र से, अपने पौरुष से और अपने स्वाभाव से। इसलिए श्रीराम हमारे हीरो हैं और रावण विलेन... श्रीराम की हम पूजा करते हैं और रावण का पुतला जलाते हैं।

वक्त बदलने का काम हममें से कोई भी या हम सभी कर सकते हैं। अब ये मत पूछिएगा कि कैसे?... मैं नहीं जानता क्योंकि मैंने वक्त नहीं बदला है और न ही अभी सोच रहा हूं फिलहाल तो मैं कोशिश में हूं कि वक्त से मेरी दोस्ती या फिर मुझसे उसे प्यार हो जाए ताकि उसे कहीं डेट पर ले जा सकूं और दिल की बात कह दूं।

फ़िर शायद मुझे वक्त बदलने की जरूरत ही न पड़े। पर ये भी सच है न कि हम जो चाहते हैं ठीक वही नहीं हो सकता। ठीक वैसा ही पाने के लिए हमें बहुतेरे जतन करने पड़ते हैं, और वैसे भी `अपनी मर्जी से कहां अपनी मर्जी के हम हैं, वक्त ले जाए जहां भी वहीं के हम हैं!...`

बुधवार, दिसंबर 09, 2009

क्षणिकाएं

एक...

कभी हवा के झोके से तेरे छूने का अहसास होता है
कभी दूर होने पर भी तू मेरे दिल के पास होता है
बेशक कलम मेरी, स्याही मेरी, ये अहसास मेरा है
पर कभी कभी इनमे तेरी आवाज़, तेरा ही हर अल्फाज़ होता है।

दो...

न कोई शिकवा है खुदा से और न ही जमाने से
दर्द और भी बढ़ जाता है जख्म छुपाने से
शिकायत तो खुद से है के मैं कुछ न कर सका
वरना मैं जानता हूँ आता मेरे बुलाने
से।

तीन...

गर कभी तन्हा हो तो याद करना
गर कोई परेशानी हो तो बात करना
बातें करना कभी हमारी भी
कभी खुद से कभी लोगों साथ करना।

मंगलवार, दिसंबर 08, 2009

मुंबई ब्लॉगर मीट

पांचवा खम्बा: मुंबई ब्लॉगर मीट

शनिवार, दिसंबर 05, 2009

सिगरेट के डिब्बों में फ्री कूपन जल्द...


हाल ही में एक खबर आई है कि अब सिगरेट के पैकेटों में एक फ्री कूपन मिलेगा जो किसी भी कैंसर अस्पताल में फ्री कैंसर चैकअप में मददगार होगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह पहल सिगरेट के पैकेट्स के 40 प्रतिशत भाग में पूर्व दिए गए 'स्मोकिंग किल्स' के विज्ञापन की असफलता के बाद शुरू की है।

उल्लेखनीय है कि भारत में हर साल करीब 9 लाख लोग सिगरेट की वजह से कैंसर के शिकार होकर दम तोड़ देते हैं। अब भारत के आंकड़ों में हम हर साल 9 लाख लोगों को स्वर्गीय बनता देख रहे हैं तो पूरे विश्व के आंकड़े तो हमें बेहोश ही कर देंगे। शायद यही वजह कि मैं दुनिया भर में सिगरेट की वजह से मरने वालों के आंकड़े पेश नहीं कर रहा हूं।

स्वास्थ्य मंत्रालय और परिवार कल्याण मंत्रालय ने मिलकर इस मुहीम को शुरू किया है। मेनका गांधी ने सुझाव दिया है कि सिगरेट बेचने वाली कंपनियों को पैकेट में फ्री कूपन देना चाहिए। इससे पहले लोगों को तम्बाकू उत्पादों के खतरे से आगाह करने के लिए डिब्बों पर बिच्छू की तस्वीर छापने का फैसला किया जा चुका है लेकिन ये तरीका भी बहुत कारगर साबित नहीं हुआ। ज्यादातर लोगों का मानना है कि सिर्फ तस्वीरें दिखाकर किसी को खतरे का एहसास नहीं कराया जा सकता। हो सकता है सरकार की इस नई पहल से लोग सिगरेट से होने वाले खतरों के प्रति जागरूक हो जाएं और सिगरेट छोड़ दें।

खैर!... खुदा खैर करे इन सिगरेट पीने वालों की!... और सद्बुद्धि दे ताकि ये सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना छोड़ें और एक बेहतर भविष्य का जाला बुनने की ओर ध्यान दें!...


तमाम शुभकामनाओं के साथ

राम कृष्ण गौतम

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009

मीडिया : द फोर्थ कॉलम!...

कुछ दिनों पहले तक लोकतंत्र के केवल तीन ही स्तंभ थे। उनके साथ कदम से मिलाकर जिम्मेदारपूर्वक कार्य करते हुए मीडिया ने अपने हाथ दिखाए और शामिल हुआ चौथे स्तंभ के रूप में! और... कहलाने लगा लोकतंत्र का चौथा स्तंभ... लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ ने देश, दुनिया ही नहीं बल्कि गांव और शहरों के भी छोटे-छोटे इलाकों को कवर करते हुए समाज में अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई।

शायद! यही वजह थी कि इसे संविधान के चौथे स्तंभ का दर्जा दिया गया और कहा जाने लगा... मीडिया : द फोर्थ कॉलम! इसने हर अच्छे और बुरे समय में घर के एक लायक बड़े बेटे की भूमिका निभाई। यही वजह है कि इसे घर के मुखिया यानि देश के संविधान ने बड़े बेटे की ताकत और रुतबा प्रदान किया... लेकिन हाल के कुछ दिनों से देखने में आ रहा है कि यह बड़ा बेटा अब शायद पहले की तरह अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रहा है। मेरा मतलब खबरों के प्रस्तुतिकरण से है।

वर्तमान में मीडिया के पास क्या समुचित खबरों की कमी है जो वह अश्लीलता, फूहड़पन और भूत-प्रेत आधारित खबरों को बहुत ही प्रधानता से प्रस्तुत कर रहा है। क्या वज़ह कि अब शायद यह बड़ा बेटा अपनी जिम्मेदारियों को भूलने लगा है?

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

अरे! तुम कब आए...

सुबह के लगभग सवा पांच बज रहे थे, हवा की सरसराहट सीधे कानों से टकरा रही थी, पक्षियों का झुण्ड नीले आसमान की सुन्दरता बढ़ा रही थी, सूरज की लालिमा अपने चरम पर थी और आसपास के वातावरण में स्वर्णिम प्रकाश फ़ैल रहा था, ऊपर आसमान में नज़रें उठाकर देखने पर एसा लग रहा था मानो धरती और आकाश के बीच का दायरा ही ख़त्म हो गया है, सारा का सारा आकाश धरती की आगोश में नज़र आ रहा था, पेड़ों की पत्तियों की आवाज़ कानों के पर्दों से होकर सीधे ह्रदय में स्पंदन कर रही थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सूर्यदेव ने अभी-अभी ही आकाश में अपने घोड़े विचरण के लिए छोड़े हों...

ठीक उसी वक़्त केशव अपनी बहन और बहनोई के घर के गलियारे में दाखिल हुआ। अपनी बहन और बहनोई के मुखमंडल को देखने के लिए उत्साहित उसका मन, मन ही मन खुश हो रहा था और होगा भी क्यों नहीं, वो पूरे दो साल और सात महीनों के बाद अपनी कीर्ति और सचिन से मिलने जो वाला था। उसकी दूसरी ख़ुशी का राज़ तो पूछिए ही मत। उसकी इस ख़ुशी के आगे फिलहाल तो कोई भी दूसरी ख़ुशी टिक ही नहीं सकती और उसकी यह ख़ुशी है ही खुश होने लायक। आज वो अपने प्यारे भांजे से भी मिलेगा जो आज पूरे दो साल का हो गया है. इन्ही खुशियों को मन के एक कोने में संजोए केशव दबे क़दमों से धीरे-धीरे अपनी बहन के कमरे की ओर बढ़ रहा था।

उसके हाथ में एक झोला था जिसमे बहन और बहनोई के लिए कपडे और प्यारे भांजे के लिए मुंहदिखाई और जन्मदिन के तोहफे, खिलौने इत्यादि थे. मन में भांजे की सुन्दर सूरत की कल्पना और दिल में बहन से मिलने का उत्साह केशव को भीतर ही भीतर एक अनुपम ख़ुशी दे रहा था... वह ख़ुशी और उत्साह की इन्ही बातों को सोचते हुए अपनी बहन के कमरे के दरवाजे के सामने पहुंचा... वह दरवाज़े की कुण्डी बजाने ही वाला था कि... उसकी सारी कि सारी खुशी, सारा का सर उत्साह धुआं हो गया, एक ही पल में उस पर वज्रपात सा हो गया, हे! भगवान क्या मैंने इतनी खुशी और इतना उत्साह इसी दुरूह क्षण के लिए संजोया था, उसका ह्रदय एक अनकहे दर्द की चोट से कराह उठा।

उसने सुना कि उसकी प्यारी बहन कीर्ति अपने पति पर ज़ोरों से चिल्ला रही है और उससे भी जोर से उसका बहनोई सचिन दहाड़ मार रहा है. उनके बीच सुबह-सुबह छिड़े इस संवाद ने केशव की तमाम खुशियों को धता बता दिया। ऐसी स्थिति में केशव का मन व्याकुल हो उठा। इधर केशव के मन में कशमकश जारी था तो उधर उसकी बहन और बहनोई का संवाद... उसका बहनोई उसकी बहन से कह रहा था कि देखो तुम्हारे परिवार को तुम्हारी कोई चिता तो है नहीं, आज पूरे ढाई साल हो रहे हैं, किसी ने यह भी नहीं जानना चाहा कि हम मर गए या जिंदा हैं. कम से कम इस नन्हे को तो देखने कोई आ जाता. तुम्हारा भाई तो बस अपनी बीवी की पल्लू में ही छिपा रहता है. उसे तुम्हारी फिक्र क्यों होगी॥? इस पर कीर्ति ने ज़वाब दिया- खबरदार! जो मेरे पिता समान भाई और मेरी भाभी के बारे में कुछ बुरा-भला कहा तो! मैं फिर ये भूल जाउंगी कि आप मेरे पति हैं।

इन सब बातों ने केशव को जैसे प्राणहीन बना दिया था. उसका शरीर किसी पत्थर के स्तम्भ की तरह जड़ हो गया था लेकिन उसके कान अभी भी सतर्क थे, वह सचिन और कीर्ति दोनों के संवाद सुन रहा था. उन दोनों के संवाद ने केशव को उसके अतीत की और धकेल दिया जब नन्ही सी कीर्ति को महज़ चार साल की उम्र में उसके पिता और कुछ ही दिन बाद उसकी माँ भी चल बसीं. फिर कीर्ति की पूरी ज़वाबदारी केशव पर ही थी. उसे याद आ रहा था कि कैसे उसने दिन-रात, हर एक पल मेहनत-मजूरी करके कीर्ति का पेट भरा, उसे पढे और समाज में रहने लायक संस्कार दिए।

वह याद कर रहा था कि किस तरह शादी के बाद केशव ने अपनी पत्नी कृष्णा के साथ कड़ी मेहनत करते हुए कीर्ति का ध्यान रखा, उसने और उसकी पत्नी ने कीर्ति के पैर तक ज़मीन में न पड़ने दिए. किस तरह उन दोनों ने एक आदर्श माँ और पिता की भूमिका निभाई. कीर्ति को विदा करने के लिए केशव ने अपनी आजीविका का एकमात्र साधन अपनी एक एकड़ ज़मीन तक बेच डाली. इन सब कुरबानियों के बाद भी केशव ने कभी यह नहीं सोचा कि वह कितने कष्ट सह रहा है कीर्ति के लिए... इसके बावजूद भी वह कीर्ति की ख़ुशी के लिए ही सोचता रहा. दामाद को भी उसने वो हर वस्तु दी जो उसने मांग की थी।

कहने का मतलब है कि केशव ने वो हर जिम्मेदारी निभाई जो अपनी बेटी के लिए एक पिता करता है। केशव अपने अतीत में ही खोया हुआ था कि अचानक उसकी बहन चीखती हुई दरवाजे से बाहर की ओर भागी और उसका हाथ केशव के झोले पर तेजी से लगा, केशव का झोला ज़मीन पर गिरा और बच्चे के खिलौने टूटकर धरती बिखर गए। खिलौनों के टूटने की आवाज से उसका बहनोई बाहर आया, उसने केशव को एक कोने पर खड़ा पाया और केशव के कानों को चीरने वाली आवाज में बोला - अरे! तुम कब आए...

इन आंखों की मस्ती के...









जिनकी ये ख़ूबसूरत आँखें हैं, उन्हें आप सब बहुत बेहतरी से जानते हैं। अब जानना ये है कि क्या आप इन खूबसूरत आंखों की मलिका-ऐ-हुस्न का नाम बता पाते हैं या नही..?

शनिवार, नवंबर 28, 2009

जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई...

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत ना हुई!
जिसको चाहा उसे अपना ना सके जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई!!

जिससे जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फसाना बदला!
रस्में दुनिया की निभाने के लिए हमसे रिश्तों की तिज़ारत ना हुई!!

दूर से था वो कई चेहरों में पास से कोई भी वैसा ना लगा!
बेवफ़ाई भी उसी का था चलन फिर किसीसे भी शिकायत ना हुई!!

वक्त रूठा रहा बच्चे की तरह राह में कोई खिलौना ना मिला!
दोस्ती भी तो निभाई ना गई दुश्मनी में भी अदावत ना हुई!...

पहचानों तो जानें!...










हिंट : ये तस्वीर एक ख्यात फिल्म कलाकार की है!...








रविवार, नवंबर 15, 2009

बाप की कमाई...

मेरा एक दोस्त है, मेरे ही नाम का... सीधा-सादा... कोई तड़क भड़क नहीं... एकदम साधारण... अगर कोई व्यसन है तो वो है उसका सीधापन... वो उसे छोड़ ही नहीं पाता... कपडे भी एकदम साधारण ही पहनता है... अभी हाल ही में मेरे ही प्रयासों से उसने मोबाईल रखना शुरू किया है... दरअसल उसके पिताजी या उसके भैया मेरे ही नंबर पर काल करके उससे बात किया करते थे... चूंकि मैं हर वक़्त उसके साथ नहीं होता था इसलिए उससे उसके घर वालों को बात करा पाना संभव नहीं हो पाता था... हालाँकि उसका सम्बन्ध एक समृद्ध घर से है... लेकिन उसे इससे चिढ है कि वो अपनी समृद्धता जग ज़ाहिर करे... इसलिए एकदम साधारण ही रहता है... हम दोनों एक बात पर बिलकुल Similar हैं... और वो ये है कि हमारी सोच, हमारे विचार एकदम मेल खाते हैं... इसलिए इतने दिनों से साथ रहते हुए भी हम दोनों के बीच कभी वैचारिक टकराव नहीं हुआ... घर, परिवार, भविष्य, रिश्ते-नाते, दोस्ती, दुनिया, टीम इंडिया, भारत की अर्थव्यवस्था, डॉ. मनमोहन सिंह का दोबारा प्रधानमंत्री बनना, राहुल का युवा ब्रिगेड... ये ऐसे मुद्दे हैं जिस पर हम दोनों बेहद बहस करते हैं... ताज्जुब की बात तो ये है कि इन मुद्दों पर हम दोनों घंटों बातें करते रहते हैं और नतीजा जब आता है तो उस पर हम दोनों की जुबान एक ही शब्द कहती है... यानि निष्कर्ष पर दोनों के विचार एक जैसे होते हैं... एक दिन हम दोनों अपने-अपने घर और परिवार के सदस्यों की चर्चा कर रहे थे... उसे अक्सर अपने बड़े भाई से शिकायत रहती है कि वो आज भी अपने "पिता की कमाई" पर ही निर्भर हैं... पत्नी और दो बच्चे होने के बाद भी... और तो और... घर से अलग रहते हुए... उसके पिता जी उनके और उनके परिवार के खर्च के लिए हर महीने 12,000 रूपए देते हैं... ऐसा उसने मुझे बताया... उसने मुझे यह भी बताया की भाभी को ये सब कतई पसंद नहीं है... उसकी भाभी उसके भैया को हमेशा कहती हैं अब पिता की ज़िम्मेदारी पूरी हो गई है... अब तो आप कमाना धमाना शुरू करो... अगर उनको कुछ दे नहीं सकते तो कम से कम लो तो मत... वो आपके पिता हैं... उनके बुढापे का कुछ तो ख्याल रखो... उसकी भाभी के ये ख्याल मुझे बेहद पसंद आए... इसी कारण मैं उनसे मिल भी आया हूँ... खैर! आगे सुनिए... मेरे हमनाम को अपने बड़े भैया की ये बात रास नहीं आती... वैसे उसका उसके बड़े भैया के प्रति ये रवैया उचित भी है... मैं उसकी जगह होता तो मैं भी शायद यही कहता... एक बात तो है... मेरे हमनाम का यह कहने मुझे तब आश्चर्य में डाल देता है जब मुझे ये पता चलता है कि वह अपना खर्च अपने पिताजी से नहीं लेता... और उसका मासिक खर्च मात्र... 200 रूपए है... माकन किराया और खाना छोड़कर... आप भी आश्चर्य में पड़ गए न... कि आज के समय में एक ज़वान लड़के का खर्च मात्र 200 रूपए महिना... वैसे ये सच है... मैं गवाह हूँ इसका... उसने अपने घर किसी से भी नहीं बताया है कि वो Part Time Job करता है... उसके पिता एक सहकारी बैंक के मैनेजर हैं... इसके बावजूद भी वह से घर से कोई आर्थिक सहयोग नहीं लेता... वैसे वो बताता है कि जॉब करने कि प्रेरणा उसे मुझसे मिली... क्या पाता सच कह रहा है या... हाँ! पर एक बात है कि मुझसे मिलने के कुछ समय तक वह किसी जॉब में नहीं था... मुझसे मिलने के बाद ही उसने एक प्राइवेट बैंक में काम करना शुरू किया... Well... उसके विचार मुझे बेहद अच्छे लगते है... हालाँकि उम्र में मुझसे एक साल छोटा है... लेकिन हम दोनों का एक दूसरे के प्रति व्यवहार दोस्ताना है... वो मुझे नाम लेकर पुकारता है और मैं भी उसे उसके नाम के आगे "जी" लगाकर संबोधित करता हूँ... एक दिन मैंने उससे कहा कि यार तू इतना साधारण सी ज़िन्दगी क्यों जीता है जबकि तेरा परिवार तो संपन्न है... तू कम से कम ज़रुरत की चीज़ें तो बढ़िया तरह से रख... कपडे ठीकठाक पहन... एक अच्छा सा मोबाइल लेले... जूते बढ़िया से लेले... इस पर उसने जो कहा उसे सुनकर मैं आज तक दंग हूँ... उसने मुझसे कहा... "यार... बाप के पैसों पर तो सब ऐश करते हैं... पर मेरी राय कुछ अलग है... मैं जब तक खुद अपने पैरों पर खडा नहीं हो जाता... ठाटबाट से नहीं रह सकता... क्योंकि ठाटबाट से रहने के लिए पैसे चाहिए... और ये सब मैं अपने पिता के पैसों से नहीं कर सकता... उनके पैसे इस तरह खर्च करना मुझे गंवारा नहीं..." वाह! दोस्त क्या बात कही थी तुमने... आपको सुनकर ताज्जुब होगा कि महज़ 21 साल की उम्र में उसने मुझसे वो बात कह दी... जो शायद एक बुजर्ग या अनुभवी व्यक्ति मुझे समझा पाता... आपको पाता है उसकी इस बात से मैं भी प्रेरित हुआ और मैंने अब हर महीने मुझे मिलने वाली रक़म से 2000 रूपए महीने बचाने शुरू कर दी हैं... जब भी घर जाता हूँ... कुल बचाई हुए रक़म मम्मी के हाथ में देकर पैर पड़ता हूँ... उस वक़्त मम्मी की आँखों में आंसू आ जाते हैं... लेकिन पैसों को देखकर नहीं मुझे देखकर... वो देखती हैं जिस बच्चे को हमने गोद में खिलाया है... आज वही इतना बड़ा हो गया है... वो ये भी कहती हैं कि "किशन! तू बड़ा सयाना हो गया है..."

गुलमुहर है ज़िन्दगी...

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी
डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साये में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी
रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी
दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी।

रविवार, नवंबर 08, 2009

यादें...

बात आज से लगभग पंद्रह साल पुरानी है। तब मैं महज़ आठ साल का था। उस वक़्त मैं अपने होम टाऊन (डिंडोरी) में अपने पिताजी के साथ रहता था। पिताजी के साथ था इसलिए सुबह जल्दी उठ जाता था या यूँ कही कि उठना पड़ना था। एक दिन तडके हमारा दूध वाला दूध देने आया। उस दिन उसका बिल भी पेड करना था। इसलिए उसने पिताजी को आवाज़ लगाई- महाराज, ओ! महाराज (हमारे यहाँ ब्राह्मणों को महाराज बुलाते हैं, और महाराज बुलाने की दूसरी वज़ह यह भी है कि मेरे दादा जी अपने समय के ज़मींदार थे।) पिता जी स्नान के लिए नर्मदा जी गए हुए थे इसलिए दूध वाले से मैं ही रु-ब-रु हुआ। उसने मुझसे पूछा "छोट महाराज, तुम्हार बाप कहाँ हैं?" (ये हमारे गाँव की बोली है) मुझे ये बात कुछ ठीक नहीं लगी इसलिए मैंने उससे कहा- क्या हुआ? इस बार तो उसने हद कर दी और कहा -डुक्कर को बुलाओ, आज हिसाब करना है। इतना सुनते ही मैं गुस्से से आगबबूला हो गया। मुझे कुछ न सूझा सो मैंने वहीँ पर रखा हुआ दूध का डिब्बा उठाया और उसके सिर पर जोर से दे मारा। पलभर में उसका सिर खून से लाल हो गया। वो तुरंत ही सबकुछ छोड़कर वहां से भागा। कुछ देर बाद पिताजी आए। मैंने उनसे कुछ नहीं बताया। जब उन्होंने मुझसे चाय बनाने को कहा तो मैंने ज़वाब दिया कि काली चाय बनाऊं? पिताजी ने कहा -क्यों, दूध नहीं आया क्या? मैंने कहा- नहीं! ऐसी बात नहीं है, दूध वाला आया था लेकिन...
इतना कहना हुआ ही था, सामने से दूध वाला सर पर पट्टी बांधे चला आ रहा था. मुझे देखकर थोडा ठिठका लेकिन पिताजी के बैठे होने से उसकी हिम्मत बनी रही. पिताजी ने उसकी चोट का कारण पूछा तो उसने झूठ कह दिया कि भैंस ने लात मार दी. इसके बाद मैंने भी कुछ नहीं कहा. उसने दूध का हिसाब किया और अपने इलाज के लिए पिताजी कुछ अतिरिक्त रूपए लिए, फिर वहा से चला गया. तकरीबन नौ साल तक ये बात पिताजी से छिपी रही. न मैंने बताया और न ही उस दूध वाले ने. वो आज भी हमारे यहाँ दूध पहुंचाता है. नौ साल बाद उसकी चोट देखकर अचानक पिताजी ने वो वाकया पूछ लिया. इत्तेफाक देखिए कि उस वक़्त भी मैं वहीँ था. इस बार उससे पहले मैंने ही अपनी जुबान खोल दी और सब सच-सच बता दिया. पहले पिताजी काफी नाराज़ हुए, खूब फटकारा उन्होंने, फिर उन्होंने मेरी उस नादानी के लिए दूध वाले से माफ़ी मांगी. जब दूध वाला चला गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि "बेटा! ऐसा करना ठीक नहीं, अब मेरी इतना उम्र ही इतनी हो गई है तो कोई भी मुझे बूढा या सयाना कहेगा." इसके बाद मैंने कभी पिताजी से उस मुद्दे पर बात नहीं की. अब सोचता हूँ कि अगर सही मायनों में देखा जाए तो मेरा बचपना मेरी आज की अवस्था से काफी बेहतर था. आज मैं अपने पिताजी से, अपनी माँ से, अपने परिवार से कोसों दूर हूँ... मैं चाह कर भी उनके साथ हरपल नहीं गुजार सकता...

तुम याद आए...

जब दिन निकला
तुम याद आए
जब सांझ ढली
तुम याद आए
जब चलूँ अकेले
तन्हा मैं
सुनसान सड़क के
बीचों बीच
धड़कन भी जोरों
से भागे
लगता मुझको
कि यहीं कहीं
अब भी तुम हो
मेरे आसपास
जब कोयल
मेरे कानों में
एक मधुर सी तान
सुना जाए
लगता मुझको ऐसा जैसे
तुम याद आए
तुम याद आए

ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई

ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई
हो सकी जो न वो मेरी आस बनकर रह गई
कुछ दिनों तक ये थी मेरी बंदगी
अब महज़ एक अनकही एहसास बनकर रह गई
जुस्तजूं थी ये मेरी उम्मीद थी
गुनगुनाता था जिसे वो गीत थी
अब तमन्नाओं के फूल भी मुरझा गए
नाउम्मीदी की झलक विश्वास बनकर रह गई
सोचता हूँ तोड़ दूँ रश्में ज़माने ख़ास के
ज़िन्दगी भी लेकिन इनकी दास बनकर रह गई
एक अज़नबी मिला था मुझको
राह-ऐ-महफ़िल में कहीं
ज़िन्दगी भर साथ रहने का सबब वो दे गया
एक दिन ऐसे ही उसने मुझसे नाता तोड़कर
संग किसी अनजान के वो हँसते-हँसते हो गया
अब फ़क़त इस टूटे दिल में याद उसकी रह गई
ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई

मंगलवार, नवंबर 03, 2009

इस जहाँ में मेरे सिवा पागल कई और भी हैं...

इस जहाँ में मेरे सिवा पागल कई और भी हैं
खामोशियाँ हैं कहीं तो कहीं कहीं शोर भी हैं
मनचला या आवारा बन जाऊँ ये सोचता हूँ
लेकिन मेरे इस दिल में किसी और का ज़ोर भी है
तन्हाइयों से टूटना शायद मैंने सीखा ही नहीं
इसीलिए शायद मेरा ये दिल कठोर भी है
हर रोज़ उसी चिलमन का आड़ है नज़रों पर
वही मेरी दुल्हन है और वही मेरी चितचोर भी है
आ गले लगा लूं तुझे सभी ग़मों को भुलाकर
मैं जितना पागल हूँ मेरा दिल उतना कमज़ोर भी है
अहसास तेरी चाहत का मेरी धड़कनों में अब भी है
मगर तू क्यों समझेगी इसे तू तो मग़रूर भी है!

शनिवार, अक्तूबर 31, 2009

मुझे कुछ और कहना था...


वो सुनता तो मैं कुछ कहता, मुझे कुछ और कहना था।
वो पल को जो रुक जाता, मुझे कुछ और कहना था।


कहाँ उसने सुनी मेरी, सुनी भी अनसुनी कर दी।
उसे मालूम था इतना, मुझे कुछ और कहना था।


रवां था प्यार नस-नस में, बहुत क़ुर्बत थी आपस में।
उसे कुछ और सुनना था, मुझे कुछ और कहना था।


ग़लतफ़हमी ने बातों को बढ़ा डाला यूँही वरना
कहा कुछ था, वो कुछ समझा, मुझे कुछ और कहना था।
मुझे कुछ और कहना था...

गुरुवार, अक्तूबर 22, 2009

बोले तो! एकदम झक्कास...!

बहुत दिनों से सोच रहा था कि क्या लिखूं? कुछ सूझ ही नहीं रहा था. अभी कुछ दिन पहले ही मैंने रेडियो पर एफएम सुनना शुरू किया. जबसे सुन रहा हूँ तबसे दिन भर मज़े के साथ बस सुनता ही रहता हूँ. कभी रेड एफएम पर "बड़बोले चाचा" की "चाचा बतोले" सुनाई देता है तो कभी धमाल पर दे दना दन गाने. कभी रेडियो मिर्ची पर "बड्डा भैया" के साथ होता हूँ तो कभी माई एफएम पर बढ़िया संगीत का तड़का लगाता हूँ. वैसे एफएम's के मामले में मैंने कोई दायरा नहीं बनाया है कि कौन सा एफएम चैनल मेरा सबसे प्रिय चैनल है या किसे सर्वाधिक सुनता हूँ लेकिन फिर भी इससे हटकर मैंने रेड एफएम को चुना है. रेड एफएम मेरी पहली पसंद है. वो इसलिए क्योंकि जब यह पहले पहल हमारे शहर में एस एफएम के नाम से आया था तब इसके लिए आरजे's की व्यवस्था की जा रही थी यानि Interview चल रहा था और इस एक शुरूआती दौर का मैं भी हिस्सा बना था यानि मैंने भी Interview दिया था. इसलिए यह तो मेरा Favorite रहेगा ही. दूसरे इसे मैं इसलिए भी पसंद करता हूँ क्योकि इसमें मेरे बड़े भाई (जैसे) भी हैं. हालाँकि एफएम सुनते मुझे अभी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ है लेकिन सुनने में ऐसा लगता है कि जैसे मेरा इनसे बहुत पुराना नाता है. हालाँकि ऐसा नहीं है कि मनोरंजन की गाड़ियों को लगातार खींचते रहने वाले इन एफएम's को सुनने के केवल फायदे ही हैं. इनके नुकसान भी बराबर हैं. मैं भी एक श्रोता हूँ और श्रोता होने के नाते मैंने इसकी समीक्षा की है. उस समीक्षा में ये सामने आया है कि इनमे पेश किये जाने वाले कई प्रोग्राम's कहीं न कहीं आम जन को कु-प्रभावित करती हैं. मेरे सर्वाधिक प्रिय एफएम के एक प्रोग्राम का ज़िक्र करना चाहूँगा. इसमें रात के वक़्त एक शो आता है जिसका सम्बन्ध लोगों के "सीक्रेट" से है. इस शो में लोगों के सीक्रेट's शहरवासियों के सामने उजागर किये जाते हैं और इस शो को होस्ट करने वाली आरजे मोहतरमा अपनी आकर्षक अंदाज़ में चुटकियाँ लेते हुए उस सीक्रेट को ठीक उसी अंदाज़ में पेश करती हैं जैसे कि वह है. हालाँकि मैं उन मोहतरमा की इस अदा का इस्तकबाल करता हूँ. यह एक बेहतर आरजे का परिचय भी है. लेकिन जिस चैनल को मैं सुनता हूँ उसके और भी बहुत से श्रोता होंगे. अन्य श्रोताओं ने भी यह चीज़ महसूस कि होगी जिसे मैं अपने ब्लॉग पर लिख रहा हूँ. ये शो या इस तरह के तमाम ऐसे शो'z हैं जिससे आम लोगों के बीच फूहड़ता भरा सन्देश जाता है. हालाँकि हर दिन ऐसा सन्देश नहीं जाता लेकिन कई प्रस्तुतियां ऐसी भी होती हैं जिन्हें सुनने के बाद हंसी कम क्रोध अधिक आता है. अब हंसने वाले सीक्रेट's पर क्रोध क्यों आता है ये बताना तो मुस्किल है लेकिन आता है. हालाँकि शो के दौरान ये ऐलान ज़रूर किया जाता है कि "इन तमाम फूहड़ताओं का उद्देश्य महज़ मनोरंजन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. लेकिन आप ही बताइए कि सिगरेट के पैकेट में "Its Injirious to Health" लिख देने से क्या सिगरेट का कु-प्रभाव कम हो जाता है. नहीं न? ठीक इसी तरह इन प्रोग्राम्स के सम्बन्ध में भी सम्पुट नहीं बैठता. अगर ऐसा कुछ होता है तो मैं भी लिख देता हूँ कि "मेरे इस लेख से अगर किसी व्यक्ती या एक समूह को ज़रा भी कष्ट हुआ हो तो मैं अपने दोनों हाथ जोड़कर माफ़ी चाहता हूँ."

दिल की बात...

मैंने ज़माने के एक बीते दौर को देखा है,
दिल के सुकून और गलियों के शोर को देखा है,

मैं जानता हूँ की कैसे बदल जाते हैं इंसान अक्सर,
मैंने कई बार अपने अंदर किसी और को देखा है!!!

बुधवार, अक्तूबर 14, 2009

गिरीश जी का आभार...

आज से कुछ महीने पहले तक में अपने ब्लॉग पर एकदम निष्क्रिय सा हो गया था. ये कहा जा सकता है कि मैने ब्लॉगिंग लगभग बंद ही कर दी थी. एक दिन अचानक गिरीश जी (गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल') मेरे दफ़्तर आए. उन्होने मुझसे मुलाक़ात की और मेरे ब्लॉग पर निष्क्रियता का कारण पूछा! मैने कहा कि दफ़्तर के काम व्यस्तताओं के कारण में ब्लॉग परा समय नही दे पा रहा हूँ. इस पर उन्होने मुझे ब्लॉग और ब्लॉगिंग का महत्‍व बताते हुए कहा कि मैं हर दिन भले एक पोस्ट ही करूँ, पर लगातार ब्लॉग पर बना रहूं. साथ ही मुझे उन्होंने मुझे आने वेल समय मे ब्लॉग के महत्‍व से भी अवगत कराया. उन्होने ही मुझे लगातार ब्लॉग पर बने रहने के लिए प्रेरित किया था. तब से मैं लगातार अपने ब्लॉग पर सक्रिय हूँ. मैं सदा उनका आभारी रहूँगा कि उन्होने मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया और हमेशा ही कुछ न कुछ सिखाते रहते हैं. धन्यवाद गिरीश जी!

रविवार, अक्तूबर 11, 2009

चार दिन की ज़िन्दगी...

ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी

खुदा को पा गया वाईज़, मगर है
जरुरत आदमी को आदमी की

मिला हूं मुस्कुरा कर उस से हर बार
मगर आंखों में भी थी कुछ नमी सी

मोहब्बत में कहें क्या हाल दिल का
खुशी ही काम आती है ना गम ही

भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आंखों ने मुझसे बात कर ली

रकीब-ए-गमजदा अब सब्र कर ले
कभी उस से मेरी भी दोस्ती थी



बुधवार, अक्तूबर 07, 2009

न अब हौसला है न अब रस्ते हैं

रुखसत होकर बैठे हैं ऐसे
के खुशियाँ मिली हों ज़माने की जैसे,
नुमाइश भी कोई नहीं करने वाला
सूरत भी नहीं मेरी दीवाने के जैसे,
मैं चुपचाप सहमा हूँ बैठा कहीं पे
कोई भी नहीं है मुझे सुनने वाला,
सभी पूछते हैं हुआ क्या है तुझको
तेरी शक्ल क्यों है रुलाने के जैसे,
जब निकला था घर से बहुत हौसला था
के पा लूँगा मंजिल डगर चलते-चलते,
न अब हौसला है न अब रस्ते हैं
सफर भी लगे अब फसाने के जैसे!

सोमवार, अक्तूबर 05, 2009

ज़हन में कौंधती एक सोच...

कहते हैं कि दुनिया में इंसानों को कभी भी मन माफ़िक चीज़ें नहीं मिलतीं क्योंकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है. सामाजिक प्राणी होने का इंसानों के लिए यह दायरा बहुत सोच समझकर बनाया गया है. अगर इंसानों को उनकी मांग के हिसाब से चीज़ें मिलने लगें तो यह दायरा सिमटने लगता है और शायद यह सही नहीं है इसलिए ऐसा नहीं होता कि इंसान अपनी मन मांगी चीज़ पा ले. इंसान ही एक ऐसा प्राणी है जो सोच सकता है और उस सोच को सच में बदलने के लिए प्रयास कर सकता है. इसलिए उसके मन में कुछ या शायद बहुत सारी तमन्नाएं पनपती हैं. उन्ही इच्छाओं की पूर्ति के लिए उसे सारे अच्छे या बुरे या फिर या फिर दोनों काम करने पड़ते हैं. गणितीय अवधारणा के मुताबिक अच्छी सोच या तमन्ना अच्छे काम के और बुरी तमन्ना बुरे काम के समानुपाती होते हैं. इसी तरह अच्छी सोच और बुरे काम एक-दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती होंगे. यही वज़ह है कि चोरी करने वाले को सज़ा और कहीं पर पड़ी मिली रक़म को उसके मालिक तक पहुँचने वाले को तारीफें या संभवतः इनाम मिलता है. हालाँकि अच्छी सोच के साथ काम करने में बुरी सोच के साथ किए गए काम की अपेक्षा ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. लेकिन अच्छे काम के बाद के सुकून और बुरे काम के बाद के सुकून में भी भारी फर्क होता है. जैसे अच्छे काम के बाद हमारी नज़रें आसमान की ओर होती हैं जबकि बुरे काम के बाद हम शायद ही आँखें खोलना पसंद करेंगे..? जो हमेशा से ही नीम के स्वाद का आदी होता है उसे शक्कर की मिठास का पता तक नहीं होता. ठीक इसी तरह हमेशा गुड़ की खान में रहने वाला कड़वाहट पसंद नहीं करेगा. कहने का अर्थ स्पस्ट है कि अच्छाई और बुराई में ज़मीन और आसमान का फासला तो है, साथ ही ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी भी हैं. मुझे नहीं पता कि मैं इनमे से किसके साथ जीवन बिता रहा हूँ लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि कोई भी काम खत्म करने के बाद मुझे बेहद आश्चर्यजनक और अद्वितीय सुकून मिलता है..!!!

किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी...

इन आँखों से दिन-रात बरसात होगी
अगर ज़िंदगी सर्फ़-ए-जज़्बात होगी

मुसाफ़िर हो तुम भी, मुसाफ़िर हैं हम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी

सदाओं को अल्फाज़ मिलने न पायें
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी

चराग़ों को आँखों में महफूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी

अज़ल-ता-अब्द तक सफ़र ही सफ़र है
कहीं सुबह होगी कहीं रात होगी


रचनाकार: बशीर बद्र

देखा है ज़िन्दगी को...

देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना क़रीब से ।

चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से ।।


कहने को दिल की बात जिन्हें ढूंढ़ते थे हम,

महफ़िल में आ गए हैं वो अपने नसीब से ।


नीलाम हो रहा था किसी नाज़नीं का प्यार,

क़ीमत नहीं चुकाई गई एक ग़रीब से ।


तेरी वफ़ा की लाश पर ला मैं ही डाल दूँ,

रेशम का यह कफ़न जो मिला है रक़ीब से ।


रचनाकार: साहिर लुधियानवी

रविवार, अक्तूबर 04, 2009

मौत तू एक कविता है...

मौत तू एक कविता है...
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझे
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लेकर जब चाँद उफ़क़ तक पहुंचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के क़रीब
न अँधेरा न उजाला हो, न अभी रात न दिन
ज़िस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आये
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझे!!!

(इस कविता को हिन्दी फ़िल्म "आनंद" में डा. भास्कर बैनर्जी नामक चरित्र के
लिये लिखा गया था। इस चरित्र को फ़िल्म में अमिताभ बच्चन ने निभाया था)

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