अरे! तुम...
मेरे दाहिने ओर से आई एक मीठी सी आवाज ने अचानक मेरा ध्यान उचटा दिया।
तुम यहां कैसे? लोकल हो क्या? यहां कोई काम से आए हो? क्या करते हो?
एक मिनट के भीतर ही इतने सारे सवालों ने मुझसे उस 24-25 की युवती का परिचय बढ़ाना शुरू कर दिया।
मैं बिल्कुल बेवाक होकर उसकी तरफ देखते हुए उसे पहचानने की कोशिश करने लगा।
इतने में उसने फिर बोलना शुरू किया- अरे! तुमने मुझे नहीं पहचाना क्या? याद करो, मैट्रो, जीटीबी, पर्स..। तुम कितना परेशान हुए थे उस दिन मेरे लिए।
चलो यहीं पास में ही एक कॉफी शॉप है, वहीं चलते हैं , मुझे भूख भी लगी है, वैसे भी मेरा खाना खाने का टाइम हो गया है। वहीं चलकर बात करते हैं।
उसकी बातों का सिलसिला जारी था और मैं कुछ भी बोल पाने में अक्षम... मैं हर बार सोचता कि अब ये बोलूंगा, उससे पहले वही बोल पड़ती और जब बोलती तो पूरे एक पैराग्राफ पर ही जाकर उसकी बातें खत्म होतीं। इसलिए मैंने बिना कुछ बोले हाथ से इशारा किया और हम लोग कॉफी शॉप की तरफ बढ़े।
हम लोग वहां पहुंचे और कॉफी शॉप की कैश काउंटर के पास वाली कुर्सी पर बैठ गए।
तुम क्या लोगे? उसने कहा।
बस! कॉफी..। मैंने उत्तर दिया।
हां! भैया, मेरे लिए एक सैंडविच और एक कॉफी प्लीज... उसने कॉफी शॉप के कर्मचारी से कहा।
तुम यहीं रहते हो क्या? उसने फिर पूछा।
नहीं! मैंने ज़वाब दिया।
फिर यहां कैसे? उस दिन भी मिले थे। उसने प्रश्न किया।
मैंने कहा - एक्चुअली, मैं यहां एक्ज़ाम देने आया था।
कहां, काहे का एक्जाम?.. उसने पूछा।
मैंने ज़वाब दिया - जामिया मिलिया इस्लामिया, आईआईएमसी और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी।
ओ! वॉव! उसने प्रतिक्रिया दी।
यहां रुके कहां हो, आई मीन किसी होटल में या फिर कोई रिश्तेदार हैं यहां?
मेरे बड़े भैया रहते हैं यहां, मैंने बताया।
कहां रहते हैं? उसने पूछा।
यहीं पास में ही घर है, मुखर्जी नगर में। मैंने कहा।
ओ! ग्रेट, मतलब हम पड़ोसी हुए, मेरा मतलब है कि मैं भी यहीं पास में ही रहती हूं न! मैं ढाका गांव में रहती हूं, डेविड फ्रांसिस चेंबर। वैसे तुम्हारे भैया...
वो क्या करते हैं? उसने मुझे फिर टटोला।
वो आईएएस की कोचिंग करते हैं! मैंने बताया।
गुड! उसने कहा।
वेल... तुम हो कहां के?
जबलपुर... मैंने कहा।
अच्छा एमपी के हो!!! उसने फिर प्रतिक्रिया दी।
जी! मैंने कहा...
तुम्हें पता है, मैं उस इंसीडेंट के बारे में जब भी सोचती हूं, वो मुझे किसी िफल्म की स्टोरी लगती है। रियली, आई वाज सरप्राइज्ड दैट टाइम... वैल.. थैंक्स टू यू। वो बोलती ही जा रही थी।
ओह! आई एम सॉरी... मैंने तो तुम्हारा नाम ही नहीं पूछा... तुम्हारा नाम क्या है। उसने पूछा।
जी, रामकृष्ण गौतम.. मैंने बताया।
वॉव! तीनों भगवान तो तुम्हारे ही साथ हैं।
सॉरी हां, प्लीज डोंट माइंड... मैं मजाक कर रही थी। उसने एक्सक्यूज दी।
मैंने कहा - हां, सभी यही कहते हैं कि मेरा नाम बहुत लैंदी है।
मेरा नाम रिनी है। वैसे ये घर का नाम है। मेरे कॉलेज में मेरा नाम प्राजक्ता है, प्राजक्ता शर्मा। उसने फिर कहा।
इसके बाद उसने मेरे बारे में बहुत सी बातें पूछी, मैंने भी कुछ-कुछ पूछा। खाना बगैरह हुआ और फिर बातें... काफी देर तक (लगभग 40 मिनट) हम दोनों बैठे रहे।
वैल... अब चलने का टाइम हो गया है। पापा वेट कर रहे होंगे, उनके साथ सीपी तक जाना है। वह अचानक उठी और पर्स खोलते हुए बोली।
ये वही पर्स है न! मैंने पूछा।
हा... हा... हा... वह हंसी और बोली - यू गॉट इट। वेरी फनी न!
उसकी हंसी देखकर मैंने भी थोड़ा सा मुस्कुरा दिया।
थैंक्स अगेन, थैंक्स अलॉट... ओके बॉय, सीया...
वह पैसे देकर कॉफी शॉप से निकल गई। मैं उसे देखता रहा।
फिर मैं भी उसके पीछे-पीछे बाहर की ओर निकला। मैं मुड़कर उसके विपरीत दिशा में उसी दुकान की तरफ जाने लगा जहां से हम लोग कॉफी शॉप तक आए थे।
हैल्लो, ओ! एक्सक्यूज मी... गौतम... राम... उसने आवाज दी!
मेरा सेल नंबर... ये लो...
अपना भी दे दो... अच्छा, डायल करके मेरे नंबर पर मिस दे दो... आई विल सेव इट।
ओके बॉय...
उसने इतना कहा और वहां से चली गई।
मैं भी वापस उस किताब की दुकान में आकर किताबें देखने लगा।
(ये बात उस समय की है जब मैं जून 2008 में नई दिल्ली गया हुआ था। मुझे तीन, चार कॉलेजेस के एंट्रेंस एक्जाम देने थे। मैं जामिया नगर से जामिया मिलिया इस्लामिया कॉलेज के पेपर देकर लौट रहा था। मैट्रो में घूमने का काफी शौक था तो राजीव चौक (चांदनी चौक और चावड़ी बाजार के पहले का स्टेशन) से मैट्रो पर सवार हुआ। मुझे नहीं पता कि रिनी उर्फ प्राजक्ता जी कहां से सवार हुईं थीं लेकिन मेरी नज़र उन पर जीटीबी (गुरु तेग बहादुर) नगर में पड़ी, जब वे ये चिल्ला रहीं थीं - मेरा पर्स, मेरा पर्स... मैट्रो में छूट गया। प्लीज, प्लीज, प्लीज..।
हालांकि मुझे भी जीटीबी नगर में ही उतरना था लेकिन मुझे घूमना था इसलिए मैं फिर से वापस राजीव चौक जाने के लिए साइउ में अगली ट्रेन के इंतजार में उतरकर खड़ा हो गया था। वो जब चिल्ला रही थी तो उसका हाथ और उसकी नज़रें अचानक ही मुझ पर टिंक गईं, चूंकि मैं बिल्कुल गेट के पास ही खड़ा था। इसलिए मैं उसी ट्रेन में वापस बैठने और जीटीबी से आगे तक जाने वाली स्टेशन जाने के लिए विवश हो गया। ट्रेन चल पड़ी, वो मेरी तरफ ही देख रही थी, मैंने ट्रेन में चढ़ते हुए उसे हाथों से इशारा किया कि डोंट वरी, आई`ल मैंनेज... वो आशा भरी निगाहों से मेरी तरफ देख रही थी। हालांकि वो भी वापस ट्रेन में बैठ सकती थी लेकिन जैसे ही ट्रेन के गेट खुले, लोग तेजी से चढ़ने लगे और वो उतरकर काफी आगे जा चुकी थी, मैं गेट के साइड में ही खड़ा था क्योंकि मुझे फिर वहीं से वापस दूसरी ट्रेन में जाना था। इसलिए उसकी आवाज़ सुनते ही मैं जल्दी से ट्रेन में चढ़ गया। ट्रेन अगले स्टेशन पर रुकी उसने इशारे से बताया था कि उसका पर्स सीट पर रखा होगा। मैंने उसका पर्स ट्रेन में चढ़ते ही पहचान लिया था क्योंकि वहां केवल एक ही पर्स था। निश्चित है कि वह पर्स उसी लड़की का था, सो जब मैंने उस पर्स को उठाया तो किसी ने कुछ नहीं कहा। मैं वापस जीटीबी नगर आया तो मैंने देखा कि वह लड़की रोनी सूरत लिए वहीं आसपास टहलते हुए फोन पर बतिया रही थी, जहां से उसने मुझे इशारा किया था। जैसे ही ट्रेन रुकी और तीसेक सेकंड बाद मैं उसका पर्स लेकर उतरा, वह झट ही मेरे तरफ दौड़ी और थैंक यू वैरी-वैरी मच कहते हुए मुझसे पर्स ले लिया और बॉय बोलते हुए वहां से चली गई।
अब उसके जाने के बाद नियत स्थान का टोकन न होने की वजह मुझे जो झेलना पड़ा वह तो पूछिए ही मत! खैर! बाल-बाल बचे थे उस दिन।
उसी दिन के बाद वह अचानक मुझे जीटीबी नगर की एक पुस्तक के दुकान पर मिली थी और वहीं से उसके प्रश्नों की झड़ी शुरू हुई थी। वैसे उसका मोबाइल नंबर अभी भी मेरे पास ही है, हालांकि अभी तक बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी, एकाध मैसेज ज़रूर किए थे, उसने ज़वाब भी दिए। पर बात नहीं की अभी तक, अभी मैं फिर से दिल्ली जा रहा हूँ, इस बार उससे जरूर मिलूंगा और फिर बताऊंगा... क्या बात हुई...।)
शनिवार, जनवरी 02, 2010
फिर मिलेंगे चलते चलते...
Writer रामकृष्ण गौतम पर शनिवार, जनवरी 02, 2010
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1 Responzes:
Badhia hai dost... To Kab mil Rahe ho usse?
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