शनिवार, अक्टूबर 31, 2009

मुझे कुछ और कहना था...


वो सुनता तो मैं कुछ कहता, मुझे कुछ और कहना था।
वो पल को जो रुक जाता, मुझे कुछ और कहना था।


कहाँ उसने सुनी मेरी, सुनी भी अनसुनी कर दी।
उसे मालूम था इतना, मुझे कुछ और कहना था।


रवां था प्यार नस-नस में, बहुत क़ुर्बत थी आपस में।
उसे कुछ और सुनना था, मुझे कुछ और कहना था।


ग़लतफ़हमी ने बातों को बढ़ा डाला यूँही वरना
कहा कुछ था, वो कुछ समझा, मुझे कुछ और कहना था।
मुझे कुछ और कहना था...

गुरुवार, अक्टूबर 22, 2009

बोले तो! एकदम झक्कास...!

बहुत दिनों से सोच रहा था कि क्या लिखूं? कुछ सूझ ही नहीं रहा था. अभी कुछ दिन पहले ही मैंने रेडियो पर एफएम सुनना शुरू किया. जबसे सुन रहा हूँ तबसे दिन भर मज़े के साथ बस सुनता ही रहता हूँ. कभी रेड एफएम पर "बड़बोले चाचा" की "चाचा बतोले" सुनाई देता है तो कभी धमाल पर दे दना दन गाने. कभी रेडियो मिर्ची पर "बड्डा भैया" के साथ होता हूँ तो कभी माई एफएम पर बढ़िया संगीत का तड़का लगाता हूँ. वैसे एफएम's के मामले में मैंने कोई दायरा नहीं बनाया है कि कौन सा एफएम चैनल मेरा सबसे प्रिय चैनल है या किसे सर्वाधिक सुनता हूँ लेकिन फिर भी इससे हटकर मैंने रेड एफएम को चुना है. रेड एफएम मेरी पहली पसंद है. वो इसलिए क्योंकि जब यह पहले पहल हमारे शहर में एस एफएम के नाम से आया था तब इसके लिए आरजे's की व्यवस्था की जा रही थी यानि Interview चल रहा था और इस एक शुरूआती दौर का मैं भी हिस्सा बना था यानि मैंने भी Interview दिया था. इसलिए यह तो मेरा Favorite रहेगा ही. दूसरे इसे मैं इसलिए भी पसंद करता हूँ क्योकि इसमें मेरे बड़े भाई (जैसे) भी हैं. हालाँकि एफएम सुनते मुझे अभी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ है लेकिन सुनने में ऐसा लगता है कि जैसे मेरा इनसे बहुत पुराना नाता है. हालाँकि ऐसा नहीं है कि मनोरंजन की गाड़ियों को लगातार खींचते रहने वाले इन एफएम's को सुनने के केवल फायदे ही हैं. इनके नुकसान भी बराबर हैं. मैं भी एक श्रोता हूँ और श्रोता होने के नाते मैंने इसकी समीक्षा की है. उस समीक्षा में ये सामने आया है कि इनमे पेश किये जाने वाले कई प्रोग्राम's कहीं न कहीं आम जन को कु-प्रभावित करती हैं. मेरे सर्वाधिक प्रिय एफएम के एक प्रोग्राम का ज़िक्र करना चाहूँगा. इसमें रात के वक़्त एक शो आता है जिसका सम्बन्ध लोगों के "सीक्रेट" से है. इस शो में लोगों के सीक्रेट's शहरवासियों के सामने उजागर किये जाते हैं और इस शो को होस्ट करने वाली आरजे मोहतरमा अपनी आकर्षक अंदाज़ में चुटकियाँ लेते हुए उस सीक्रेट को ठीक उसी अंदाज़ में पेश करती हैं जैसे कि वह है. हालाँकि मैं उन मोहतरमा की इस अदा का इस्तकबाल करता हूँ. यह एक बेहतर आरजे का परिचय भी है. लेकिन जिस चैनल को मैं सुनता हूँ उसके और भी बहुत से श्रोता होंगे. अन्य श्रोताओं ने भी यह चीज़ महसूस कि होगी जिसे मैं अपने ब्लॉग पर लिख रहा हूँ. ये शो या इस तरह के तमाम ऐसे शो'z हैं जिससे आम लोगों के बीच फूहड़ता भरा सन्देश जाता है. हालाँकि हर दिन ऐसा सन्देश नहीं जाता लेकिन कई प्रस्तुतियां ऐसी भी होती हैं जिन्हें सुनने के बाद हंसी कम क्रोध अधिक आता है. अब हंसने वाले सीक्रेट's पर क्रोध क्यों आता है ये बताना तो मुस्किल है लेकिन आता है. हालाँकि शो के दौरान ये ऐलान ज़रूर किया जाता है कि "इन तमाम फूहड़ताओं का उद्देश्य महज़ मनोरंजन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. लेकिन आप ही बताइए कि सिगरेट के पैकेट में "Its Injirious to Health" लिख देने से क्या सिगरेट का कु-प्रभाव कम हो जाता है. नहीं न? ठीक इसी तरह इन प्रोग्राम्स के सम्बन्ध में भी सम्पुट नहीं बैठता. अगर ऐसा कुछ होता है तो मैं भी लिख देता हूँ कि "मेरे इस लेख से अगर किसी व्यक्ती या एक समूह को ज़रा भी कष्ट हुआ हो तो मैं अपने दोनों हाथ जोड़कर माफ़ी चाहता हूँ."

दिल की बात...

मैंने ज़माने के एक बीते दौर को देखा है,
दिल के सुकून और गलियों के शोर को देखा है,

मैं जानता हूँ की कैसे बदल जाते हैं इंसान अक्सर,
मैंने कई बार अपने अंदर किसी और को देखा है!!!

बुधवार, अक्टूबर 14, 2009

गिरीश जी का आभार...

आज से कुछ महीने पहले तक में अपने ब्लॉग पर एकदम निष्क्रिय सा हो गया था. ये कहा जा सकता है कि मैने ब्लॉगिंग लगभग बंद ही कर दी थी. एक दिन अचानक गिरीश जी (गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल') मेरे दफ़्तर आए. उन्होने मुझसे मुलाक़ात की और मेरे ब्लॉग पर निष्क्रियता का कारण पूछा! मैने कहा कि दफ़्तर के काम व्यस्तताओं के कारण में ब्लॉग परा समय नही दे पा रहा हूँ. इस पर उन्होने मुझे ब्लॉग और ब्लॉगिंग का महत्‍व बताते हुए कहा कि मैं हर दिन भले एक पोस्ट ही करूँ, पर लगातार ब्लॉग पर बना रहूं. साथ ही मुझे उन्होंने मुझे आने वेल समय मे ब्लॉग के महत्‍व से भी अवगत कराया. उन्होने ही मुझे लगातार ब्लॉग पर बने रहने के लिए प्रेरित किया था. तब से मैं लगातार अपने ब्लॉग पर सक्रिय हूँ. मैं सदा उनका आभारी रहूँगा कि उन्होने मुझे इस बात के लिए प्रेरित किया और हमेशा ही कुछ न कुछ सिखाते रहते हैं. धन्यवाद गिरीश जी!

रविवार, अक्टूबर 11, 2009

चार दिन की ज़िन्दगी...

ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी

खुदा को पा गया वाईज़, मगर है
जरुरत आदमी को आदमी की

मिला हूं मुस्कुरा कर उस से हर बार
मगर आंखों में भी थी कुछ नमी सी

मोहब्बत में कहें क्या हाल दिल का
खुशी ही काम आती है ना गम ही

भरी महफ़िल में हर इक से बचा कर
तेरी आंखों ने मुझसे बात कर ली

रकीब-ए-गमजदा अब सब्र कर ले
कभी उस से मेरी भी दोस्ती थी



बुधवार, अक्टूबर 07, 2009

न अब हौसला है न अब रस्ते हैं

रुखसत होकर बैठे हैं ऐसे
के खुशियाँ मिली हों ज़माने की जैसे,
नुमाइश भी कोई नहीं करने वाला
सूरत भी नहीं मेरी दीवाने के जैसे,
मैं चुपचाप सहमा हूँ बैठा कहीं पे
कोई भी नहीं है मुझे सुनने वाला,
सभी पूछते हैं हुआ क्या है तुझको
तेरी शक्ल क्यों है रुलाने के जैसे,
जब निकला था घर से बहुत हौसला था
के पा लूँगा मंजिल डगर चलते-चलते,
न अब हौसला है न अब रस्ते हैं
सफर भी लगे अब फसाने के जैसे!

सोमवार, अक्टूबर 05, 2009

ज़हन में कौंधती एक सोच...

कहते हैं कि दुनिया में इंसानों को कभी भी मन माफ़िक चीज़ें नहीं मिलतीं क्योंकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है. सामाजिक प्राणी होने का इंसानों के लिए यह दायरा बहुत सोच समझकर बनाया गया है. अगर इंसानों को उनकी मांग के हिसाब से चीज़ें मिलने लगें तो यह दायरा सिमटने लगता है और शायद यह सही नहीं है इसलिए ऐसा नहीं होता कि इंसान अपनी मन मांगी चीज़ पा ले. इंसान ही एक ऐसा प्राणी है जो सोच सकता है और उस सोच को सच में बदलने के लिए प्रयास कर सकता है. इसलिए उसके मन में कुछ या शायद बहुत सारी तमन्नाएं पनपती हैं. उन्ही इच्छाओं की पूर्ति के लिए उसे सारे अच्छे या बुरे या फिर या फिर दोनों काम करने पड़ते हैं. गणितीय अवधारणा के मुताबिक अच्छी सोच या तमन्ना अच्छे काम के और बुरी तमन्ना बुरे काम के समानुपाती होते हैं. इसी तरह अच्छी सोच और बुरे काम एक-दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती होंगे. यही वज़ह है कि चोरी करने वाले को सज़ा और कहीं पर पड़ी मिली रक़म को उसके मालिक तक पहुँचने वाले को तारीफें या संभवतः इनाम मिलता है. हालाँकि अच्छी सोच के साथ काम करने में बुरी सोच के साथ किए गए काम की अपेक्षा ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. लेकिन अच्छे काम के बाद के सुकून और बुरे काम के बाद के सुकून में भी भारी फर्क होता है. जैसे अच्छे काम के बाद हमारी नज़रें आसमान की ओर होती हैं जबकि बुरे काम के बाद हम शायद ही आँखें खोलना पसंद करेंगे..? जो हमेशा से ही नीम के स्वाद का आदी होता है उसे शक्कर की मिठास का पता तक नहीं होता. ठीक इसी तरह हमेशा गुड़ की खान में रहने वाला कड़वाहट पसंद नहीं करेगा. कहने का अर्थ स्पस्ट है कि अच्छाई और बुराई में ज़मीन और आसमान का फासला तो है, साथ ही ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी भी हैं. मुझे नहीं पता कि मैं इनमे से किसके साथ जीवन बिता रहा हूँ लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि कोई भी काम खत्म करने के बाद मुझे बेहद आश्चर्यजनक और अद्वितीय सुकून मिलता है..!!!

किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी...

इन आँखों से दिन-रात बरसात होगी
अगर ज़िंदगी सर्फ़-ए-जज़्बात होगी

मुसाफ़िर हो तुम भी, मुसाफ़िर हैं हम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी

सदाओं को अल्फाज़ मिलने न पायें
न बादल घिरेंगे न बरसात होगी

चराग़ों को आँखों में महफूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी

अज़ल-ता-अब्द तक सफ़र ही सफ़र है
कहीं सुबह होगी कहीं रात होगी


रचनाकार: बशीर बद्र

देखा है ज़िन्दगी को...

देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना क़रीब से ।

चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से ।।


कहने को दिल की बात जिन्हें ढूंढ़ते थे हम,

महफ़िल में आ गए हैं वो अपने नसीब से ।


नीलाम हो रहा था किसी नाज़नीं का प्यार,

क़ीमत नहीं चुकाई गई एक ग़रीब से ।


तेरी वफ़ा की लाश पर ला मैं ही डाल दूँ,

रेशम का यह कफ़न जो मिला है रक़ीब से ।


रचनाकार: साहिर लुधियानवी

रविवार, अक्टूबर 04, 2009

मौत तू एक कविता है...

मौत तू एक कविता है...
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझे
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लेकर जब चाँद उफ़क़ तक पहुंचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के क़रीब
न अँधेरा न उजाला हो, न अभी रात न दिन
ज़िस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आये
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझे!!!

(इस कविता को हिन्दी फ़िल्म "आनंद" में डा. भास्कर बैनर्जी नामक चरित्र के
लिये लिखा गया था। इस चरित्र को फ़िल्म में अमिताभ बच्चन ने निभाया था)

शनिवार, अक्टूबर 03, 2009

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया...

कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया ।

बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया ॥


हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को ।

क्या हुआ आज, यह किस बात पे रोना आया ?


किस लिए जीते हैं हम, किसके लिए जीते हैं ?

बारहा ऐसे सवालात पे रोना आया ॥


कौन रोता है किसी और की ख़ातिर, ऐ दोस्त !

सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया ॥


रचनाकार: साहिर लुधियानवी

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