मंगलवार, सितंबर 22, 2009

दिल में इक लहर सी उठी है अभी..!

दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी

शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी

कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नई है अभी

भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या
हम-सुख़न तेरी ख़ामोशी है अभी

याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी

शहर की बेचराग़ गलियों में
ज़िन्दगी तुझ को ढूँढती है अभी

सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी

तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी

वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी

कौन घूंघट उठाएगा सितमगर कह के..?

ज़िन्दगी को न बना दें वो सज़ा मेरे बाद
हौसला देना उन्हें मेरे ख़ुदा मेरे बाद

कौन घूंघट उठाएगा सितमगर कह के
और फिर किस से करेंगे वो हया मेरे बाद

हाथ उठते हुए उनके न देखेगा
किस के आने की करेंगे वो दुआ मेरे बाद

फिर ज़माना-ए-मुहब्बत की न पुरसिश होगी
रोएगी सिसकियाँ ले-ले के वफ़ा मेरे बाद

वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूं
उसका क्या जानिए, क्या हाल हुआ मेरे बाद

रचनाकार: नासिर काज़मी

सोमवार, सितंबर 21, 2009

...क्योंकि सपना है अभी भी!

कभी-कभी ज़िन्दगी हमें एक पल में इतना सिखा देती है कि शायद उतना सीखना पूरे उम्र में संभव न हो पाए. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ. इंसान तमाम उम्र एक छलावे में जीता है. अगर उसके सामने कुछ बेहतर है तो वो उसी को सबसे बेहतर मानकर जीता चला जाता है. वो फिर यह नहीं सोच पाता कि इससे भी कुछ बेहतर होता है. उसके लिए महज़ "बेहतर" ही "सबसे बेहतर" होता है. खुशियाँ, आंसू, हंसी, ग़म ये सब वो मुसाफिर हैं जो हमें ज़िन्दगी के सफ़र में मिलते हैं. खैर! कुछ भी हो पर मैंने भी कुछेक महीने एक छलावे को लेकर गुज़ारा है. वैसे छलावा वाकई सबसे बेहतर था. मुझे नहीं लगता कि इससे बेहतर छलावा अब कभी मुझे मिल पाएगा. हालाँकि उस छलावे ने मुझे यह सिखा दिया है कि "कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल, किन्तु कायम खुद का संकल्प है अपना अभी भी, ...क्योंकि सपना है अभी भी!" उसने मुझे सिखाया कि हज़ार चाहने वालों से एक न चाहने वाला ही बेहतर होता है, क्योंकि हज़ार चाहने वाले आपको अपनी चाहत जब तक देते हैं तब तक ही आप खुद को खुश रख पाते हैं जबकि न चाहने वाला कमसे कम आपके विचारों, आपकी भावनाओं को बदलता तो नहीं. वह हमेशा एक ही बात की गारंटी देता है और वो यह कि वो आपको कभी नहीं चाहेगा. जबकि आपके हज़ार चाहने वाले इस बात की गारंटी कतई नहीं देते कि वो आपको हमेशा ही चाहते रहेंगे!
जब छोटे थे तो बड़े होने की बड़ी तमन्ना थी, लेकिन बड़े होकर जाना कि अधूरे अहसास और टूटे हुए सपनों से बेहतर अधूरे होम वर्क और टूटे हुए खिलौने ही थे...

शुक्रवार, सितंबर 18, 2009

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का...

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का

ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का

ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का

वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का

ज़मीं पे किस लिये ज़ंजीर हो गये साये
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का

रचनाकार: शहरयार

बुधवार, सितंबर 16, 2009

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे...

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हूज़ूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे

कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे

रचनाकार: अहमद फ़राज़

मंगलवार, सितंबर 15, 2009

उम्र भर का सहारा बनो तो बनो...

ऐ मेरे हमनशीं
चल कहीं और चल
इस चमन में
हमारा गुज़ारा नहीं
बात होती गुलों तक
तो सह लेते हम
अब तो काँटों पे भी
हक हमारा नहीं
आज आए हो और
कल चले जाओगे
ये मोहब्बत को मेरी
गंवारा नहीं
उम्र भर का सहारा
बनो तो बनो
चार दिन का सहारा
सहारा नहीं
है मुझे ये यकीं
हम मिलेंगे
किसी न किसी
मोड पर
राहें गुलशन में होंगी
सदा ही खुली
वो यक़ीनन सुनेगा
दुआएं मेरी
क्या ख़ुदा है तुम्हारा
हमारा नहीं..!

रविवार, सितंबर 13, 2009

हिंदी-दिवस..! एक दर्पण...

साल के प्रत्येक 14 सितम्बर को "हिंदी-दिवस" मनाया जाता है... क्यों मनाया जाता है, कहना मुश्किल है... लेकिन मनाया जाता है... शायद इसीलिए मनाया जाता है क्योंकि 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी... इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये सन् 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष "हिन्दी-दिवस" के रूप में मनाया जाता है... स्वतंत्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान की धारा 343(1) में लिखा है: संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी... संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा... और हर सरकारी संस्था अपने लेखन कार्यों में इसका उपयोग करेगी... बस यहीं आकर बात ख़त्म हो जाती है... संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिए जाने के कारण ही हम "हिंदी-दिवस" मनाते आ रहे हैं... और 14 सितम्बर के दिन सरकारी कार्यालयों का आलम तो देखने लायक होता है... हर सरकरी दफ्तर में हिदी से संदर्भित ढेर सारे आयोजन किये जाते हैं... भाषण, निबंध लेखन, परिचर्चा इत्यादि... चलिए कुछ भी हो... एक दिन ही सही लेकिन "बेचारी हिंदी" की लज्जा तो रख ली जाती है... मैं यह नहीं कहना चाहता की "हिंदी-दिवस" महज़ सरकारी दफ्तरों का एक तामझाम है... मैं तो सरकारी कर्मचारियों का ह्रदय से आभारी हूँ... कि वो कम से कम हमारी मातृभाषा की इतनी इज्ज़त तो कर रहे हैं... ये सभी पूरे एक दिन हिंदी की पूजा करते हैं... पूरे एक दिन हिंदी पर ही इनका ध्यान होता है... लेकिन ज़रा सोचिए कि हमारे देश की यह कैसी विडंबना है कि हिंदी यानि राष्ट्रभाषा की महत्ता महज़ सरकारी दफ्तरों तक ही सीमित है... क्यों बजरंग दल, शिवसेना और ऐसे ही तमाम "कथित समाज सुधारक दल" इसका प्रचार प्रसार नहीं करते... ये दल और सेना जिस तरह से मंत्रियों का पुतला जलाते हैं... जिस तरह से Velentines Day का विरोध करते हैं उस तरह से हिंदी भाषा की महत्ता का गुणगान क्यों नहीं करते..? आज नौकरी के हर क्षेत्र में हिंदी को प्रधानता क्यों नहीं दी जाती..? क्यों हिंदी भाषियों की उपेक्षा की जाती है..? अन्य जगहों पर भी "हिंदी-दिवस" क्यों नहीं मनाया जाता..? क्यों हम एक दूसरे से मिलने पर केवल अंग्रेजी के शब्दों को संबोधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं..? बस यही तो समस्या है... इन प्रश्नों के उत्तर अगर मिल जाएँ तो आप समझ जाएँगे कि केवल 14 सितम्बर ही हिंदी के गुणगान का दिन नहीं है... फिर तो हर एक दिन "हिंदी-दिवस" मनाया जाने लगेगा... महज़ एक दिन नहीं!

उफ़! ये विवशता...

संविधान के जाल में हिरनी सी लाचार...
किसी अँधेरी नीति की हिंदी हुई शिकार...

शनिवार, सितंबर 12, 2009

ये कोई तुम सा है के तुम हो..?

जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है के तुम हो
ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है के तुम हो

ये ख़्वाब है ख़ुश्बू है के झोंका है के पल है
ये धुंध है बादल है के साया है के तुम हो

देखो ये किसी और की आँखें हैं के मेरी
देखूँ ये किसी और का चेहरा है के तुम हो

इक दर्द का फैला हुआ सहरा है के मैं हूँ
इक मौज में आया हुआ दरिया है के तुम हो

वो वक़्त न आये के दिल-ए-ज़ार भी सोचे
इस शहर में तन्हा कोई हम सा है के तुम हो

बुधवार, सितंबर 09, 2009

न मंदिर में सनम होते...

न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में खुदा होता
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता

न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेरे-पा होता
ज़ेरे-पा: under feet

घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तज़किरा होता
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मे-दिल हरा होता

बुलाकर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से उठवाया
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर दिया होता

तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लॉट गये
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी थी, कुछ कहा होता


रचनाकार: नौशाद लखनवी

शनिवार, सितंबर 05, 2009

वो जिधर जाए जन्नत उधर देखिये!!

उनकी नजरे-करम का असर देखिये!
प्यार देता हुआ, हर वशर देखिये!!
..............देखती तक न थी जिसको कोई नजर!
........................बेकरार देखने हर नज़र देखिये!!
उनकी नजरे-करम छु गई है जिसे!
उसको बदला हुआ हर कदर देखिये!!
..............उसने सोना बनाया है लोहे को छु!
..............वह दमकता देखेगा जिधेर देखिये!!
उनकी नजरे-करम पर जिसे फक्र है!
उसको भटका, इधर न उधर देखिये!!
...............प्यार देता देखेगा सभी को अरे!
..............प्यार से छल-छलाता जिगर देखिये!!
देखिएगा उसे अपना सुख बाटते!
दुःख बाटने को नजरो को तर देखिये!!
..............बस यही है फरिश्तो की पहचान भी!
..............वो जिधर जाए जन्नत उधर देखिये!!


आप सभी को शिक्षक दिवस की तहेदिल से शुभकामनाएं!!!

शुक्रवार, सितंबर 04, 2009

मुबारक ज़िंदगी के वास्ते...

झलक यूँ यास में उम्मीद की मालूम होती है।
कि जैसे दूर से इक रोशनी मालूम होती है॥
मुबारक ज़िंदगी के वास्ते दुनिया को मर मिटना।
हमें तो मौत में भी ज़िंदगी मालूम होती है॥

रज़्म रदौलवी

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