शनिवार, दिसंबर 26, 2009

कुछ लाइनें माता-पिता के लिए...




शुक्रवार की रात को मैं एक किताब पढ़ रहा था। उस किताब का नाम है `एक पुस्तक माता पिता के लिए...। किताब के लेखक हैं सोवियत शिक्षाशास्त्री अंतोन सेम्योनोविच माकारेंको (1888-1939)। अंतोन माकारेंकों ने अपनी इस किताब को पारवारिक लालन पालन को समिर्पत किया है। उसमें लिखीं कुछ बातों ने मेरे अंदर एक सोच पैदा कर दी और उसी का नतीज़ा है कि मैं उन बातों का उल्लेख इस ब्लॉग में कर रहा हूं...
आप भी पढ़ें...

उन्होंने इस किताब में परिवार में बच्चों के भरण पोषण में आने वाली कठिनाइयों और उन पर काबू पाने के तरीकों का विश्लेषण किया है।

इस किताब में लिखी तमाम बातें बेहद गहराई से महसूस करते हुए लिखी गईं हैं। लेखक ने इन सब बातों को दिल की गहराइयों से एनालाइज किया है और बताया है कि माता-पिता को अपने बच्चे या बच्चों को पालने के लिए कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और किस तरह नेक माता-पिता सभी परेशानियों का हंसकर सामना करते हैं और अपने बच्चों को खुद से भी बेहतर बनाते हैं।

किताब के एक पैराग्राफ में माकारेंको लिखते हैं : यह नितांत आवश्यक है कि सभी माता-पिता अपने बच्चों को सुखी देखना चाहते हैं, लेकिन उनमें से सभी लोग यह नहीं समझ पाते कि सुख, सबसे पहले वैयक्तिक और सामाजिक के बीच सामंजस्य है और यह सामंजस्य एक दीर्घकालिक, कुशलतापूर्ण तथा कष्टसाध्य लालन-पालन के ज़रिए ही हासिल हो सकता है।

उन्होंने यह भी लिखा कि जो माता-पिता इस तथ्य से समझौता नहीं करना चाहते कि विवाह बंधन में बंधकर और मात्र एक ही बच्चे को जन्म देकर भी वे शिक्षक बन चुके हैं। उन माता-पिताओं का व्यापक रूप से प्रयुक्त बहाना `समय की कमी` होता है, लेकिन उनकी पसंद का दायरा काफ़ी संकीर्ण होता है। या तो वे हर कठिनाई के बावजूद अपने बच्चों का अच्छी तरह लालन पालन कर सकते हैं या बहाने की शक्ल में तरह तरह की `वस्तुगत कठिनाइयों` का हवाला देकर खराब ढंग से यह काम पूरा कर सकते हैं।

इसके बाद उन्होंने उल्लेख किया कि अनुभवहीन माता-पिता की सबसे बड़ी ग़लती यह होती है कि वे हर प्रकार के नैतिक प्रवचनों पर भरोसा करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि इस तरह के माता-पिता बच्चों को हर समय एक ज़जीर में बांधे रखते हैं। उनके बच्चों का हर कदम, कोई भी हऱकत, सविस्तार अनुदेशों का विषय बन जाती है। इस यह कोई ता़ज्जुब की बात नहीं है कि बच्चे का स्वस्थ शरीर भी इस मौखिक दबाव को बर्दाश्त नहीं कर पाता और वैसे भी बच्चे तो हैं ही...

फलत: एक दिन उनका बच्चा `ज़ंजीर` तोड़ देता है और जिसका उसके माता-पिता को सर्वाधिक डर था, उसी बुरी सोहबत में जा फंसता है। माता और पिता दोनों भयाक्रांत हो उठते हैं। वे सहायता के लिए पुकारते हैं, वे मांग करते हैं कि उनके बच्चे को ``शिक्षा की ज़ंजीर`` से बांध दिया जाए, जिसके बिना वे बच्चे का लालन पालन नहीं कर सकते...

वे आगे लिखते हैं कि इस प्रकार के लालन पालन के लिए मुक्त समय की ज़रूरत होती है और साफ ज़ाहिर कि यह समय बर्बाद किया जाता है।

अंत में उन्होंने अपनी सारी की सारी विश्लेषण और पूरे अनुभव का प्रयोग करते हुए लिखा कि सफल पारिवारिक लालन पालन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण शर्त है बच्चों की आवश्यकताओं का सही नियमन करने की माता-पिता की दक्षता..। बच्चे की हर सनक को उसकी ज़रूरत नहीं समझा जाना चाहिए। बच्चों को ऐसी सुख सुविधाएं पेश करना अननुज्ञेय है, जिन्हें माता-पिता कष्टसाध्य श्रम से प्राप्त करते हैं..।

शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009

सपने में भगवान...

एक दिन मेरे आराध्य देव मेरे सपने में आए और कहने लगे - वत्स! तुम कैसे हो ?

पहले तो मैं चौंका, फिर ज़रा संभला और बोला - आप कौन हैं? इतनी रात को कैसे? कोई विशेष काम है क्या?



उन्होंने कहा - आज मुझे नींद नहीं आ रही थी, तो सोचा थोडा तफरीह हो जाए. सोचा किस "मूर्ख" को इतनी रात को जगाऊँ? सब के सब "बेवकूफ" गहरी नींद में सो रहे होंगे, मेरी लिस्ट में सबसे अव्वल दर्जे के मूर्ख तुम ही हो, तो चला आया तुम्हारे पास, कुछ बात करनी है तुमसे, कहो तुम्हारे पास टाइम है क्या?


मैंने कहा - पहले तो ये बताइए कि आप मुझे "मूर्ख" (वो भी अव्वल दर्जे का) क्यों कह रहे हैं, मैंने क्या मूर्खता कर दी है प्रभु?


उन्होंने कहा - यार देखो मेरा सिंपल सा फंडा है. दुनिया मे ऐसे बहुत से लोग हैं जो मुझसे रोज़-रोज़ अनगिनत शिकायत करते हैं. कोई कहता है मैं बहुत परेशान हूँ, कोई अपने दुःख गिनाता है, कोई भी मुझे ऐसा नहीं दिखता जो काहे प्रभु आप आगे जाओ, मुझे कुछ नहीं चाहिए मैं तो बेहद खुश हूँ...


एक तू ही दिखा "मूर्ख" जिसने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा, कभी कोई शिकायत नहीं कि तूने... मैंने जब भी तुझे देखा, खुश ही पाया, इसीलिए मेरी लिस्ट में तू सबसे बड़ा "मूर्ख" बन गया... और यही वज़ह थी कि इतनी रात को मैं तेरे सपने में आ पहुंचा...


उन्होंने कहा - चलो कुछ बातें करते हैं...


मैं अवाक होकर उनकी बातें सुन रहा था और सोच रहा था कि आज दिन में मैंने ऐसा कौन सा बेहतर काम कर दिया है जिससे मैं ऐसा सपना देख रहा हूँ कि स्वयं मेरे आराध्य ही मेरे सपनों में आए हुए हैं...


मैं ये सोच ही रहा था कि अचानक उन्होंने जम्हाई लेनी शुरू कर दी... मैंने पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं... उन्होंने उत्तर दिया अरे "मूर्ख" मुझे नींद आ रही है, चल उठ, अब मुझे सोने दे...
मैंने आश्चर्य से कहा कि आप तो भगवान् हैं, आपको भला नींद कैसे आ सकती है...

वो जोर से हँसे और बोले - "मूर्ख", तू बहुत बड़ा "मूर्ख" है, मेरे यहाँ, तेरे पास आने का प्रयोजन तू अभी तक नहीं समझ नहीं पाया... मैंने तुझसे बातें करने को कहा और तू है कि इस सोच में पड़ा है कि तुने दिन भर में ऐसा कौन सा बेहतर काम किया है कि मैं यहाँ आ पहुंचा... तू बोर कर रहा है यार, इसलिए मुझे नींद आने लगी...


अरे पागल! तुझे मुझसे बात करना चाहिए, तू खुशकिस्मत है कि मैं खुद तेरे सामने बैठकर तुझसे बात कर रहा हूँ, मैं ऐसे हर किसी से बात नहीं करता... तू मुझे अच्छा लगता है इसलिए ही तो मैं तेरे पास आया हूँ, अगर मैं सच में तेरे सामने आता तो तू घोर आश्चर्य के मारे बेहोश हो जाता, इसलिए मैं तेरे सपनों में आया हूँ...


चल शुरू हो जा और बता कि तुझे क्या चाहिए?


मैंने कहा - प्रभु सबसे पहले तो मुझे एक उचित कारण बताइए कि आपने मेरे पास आना ही ठीक क्यों समझा?


उन्होंने कहा कि मैं ऐसे हर किसी के पास नहीं जा सकता क्योंकि कोई मेरी क़दर नहीं करता, कोई मुझसे बात करना तक पसंद नहीं करता... सब मुझे केवल दुःख में ही याद करते हैं... और खुशियों में किसी को मेरी खबर ही नहीं होती... सब मुझे भूल जाते हैं... एक तू ही है जो मुझे हर पल याद करता है... यही नहीं तुने मुझे अपने "बटुए" और अपनी "लोकेट" में भी जगह दे रखी है... वैसे ये बटुए और लोकेट वाला काम कई लोग करते हैं, मगर वो महज़ उनका शौक होता है... लेकिन मैं जानता हूँ कि तू ये सब शौक या दिखावे के लिए नहीं बल्कि खुद की श्रृद्धा के चलते करता है... इसीलिए मैं तेरे पास आया... और मेरा तेरे पास आना सार्थक भी हुआ। तूने मेरा सम्मान किया और मुझे "प्रभु" कहकर भी बुलाया, मैंने तुझे "मूर्ख" कहा फिर भी तूने कुछ नहीं कहा बल्कि तूने बड़े आदर से पूछा की मैं तुझे "मूर्ख" क्यों कहा रहा हूँ?


अब तू समझ गया न, कि मैंने तुझे ही क्यों चुना?


अब लोगों के मन में मेरे लिए जगह नहीं बची बेटे, वो मुझे भूल चुके हैं, उनका सारा का सारा ध्यान मात्र "लक्ष्मी" की ओर है, वो पूरी तरह से व्यावसायिक हो चुके हैं, तभी तो अब मेरा और मेरे नाम का ता व्यवसाय करने लगे हैं... पर मुझे ख़ुशी है कि तुझ जैसे चंद लोग अभी दुनिया में हैं, तुम जैसे "मूर्खों" के बल पर ही मैं "उचक" रहा हूँ...

तेरा भला हो गौतम...


उन्होंने इतना कहा और चल दिए...

शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009

पल दो पल की शायरी...



जो बीत गई वो बात गई
सूरज निकला और रात गई

अब जीने की ख्वाहिश क्या करना
मरने की तमन्ना कौन करे


जब प्यास बुझाने की खातिर
प्यासा पनघट को जाता है



ऐसे में प्यासा क्यों मरना
और... पानी-पानी कौन करे!...

शनिवार, दिसंबर 12, 2009

अपनी मर्जी से कहां अपनी मर्जी के हम हैं...

वक्त बदलता है और बदलता रहेगा... किसी के रोकने से न तो रुका है और न ही रुकेगा... जिसने भी रोकने की कोशिश की वह इसके प्रवाह में आकर बह गया।

किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि इंसान पैदा होने के बाद बच्चा बनेगा, फिर जवान और अंत में बूढ़ा होकर वक्त की बनाई हुई जंजीरों में कैद हो जाएगा। यह शाश्वत सत्य है कि जिसने जन्म लिया है उसे मरना भी है और जो जन्म लेता है उसे मरने से पहले बहुत सारे काम करने पड़ते हैं... काम कई तरह के हो सकते हैं। कोई अच्छा काम करता है तो कोई बुरा और कुछ ऐसे भी होते हैं जो बहुत अच्छे काम कर जाते हैं और बन जाते हैं गांधी, नेहरू, लिंकन या ओबामा!...

ये वो लोग हैं जो कभी एक दायरा बनाकर नहीं रखते। इनकी नजर ज़िन्दगी केवल जीने का नाम नहीं होता, बल्कि ये मानते हैं कि ज़िन्दगी हमेशा कुछ न कुछ बेहतर करते रहने का काम है और यही वजह कि हमें हमारे पड़ोसी तक ढंग से नहीं जानते और इन्हें पूरी दुनिया जानती है और तब तक जानती है जब तक वक्त चलता है।

कौन जानता था कि 4 अगस्त 1961 को होनोलूलू में किन्याई मूल के एक साधारण से परिवार में जन्मे बराक हुसैन ओबामा को 20 जनवरी 2009 से पूरी दुनिया, दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में (अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति, अश्वेत मूल के पहले) जानने लगेगी। मामला साफ है कि ओबामा ने अपने जीवनकाल में बहुतेरे असाधारण कार्य किए हुए होंगे और वक्त के आगे चलना पसंद किया होगा, न कि वक्त के साथ।

आज की वर्तमान पीढ़ी से अगर उनके चहेते या उन्हें चाहने वाले आधुनिकता से बचने की सलाह देते हैं तो उनका एक ही साधारण और रटा-रटाया ज़वाब होता है `इंसान को वक्त के साथ चलना चाहिए!` शायद यही वजह है कि `वक्त के साथ चलना` उनका दायरा बन जाता है और तमाम उम्र वो इसी दायरे को अपना संपूर्ण जीवन मानकर जीते हैं। एक दिन आता है जब उन्हें पता चलता है कि हम जिस दायरे को अपना जीवन समझ रहे थे वह एक धोखे और छलावे के सिवाय और कुछ नहीं था। पर जब वो इस दायरे को तोड़ने की कोशिश करने का प्रयास करते हैं तब तक रेलगाड़ी पटरी छोड़कर काफी दूर जा चुकी है यानि वक्त बदल चुका होता है।

कहने का मतलब साफ है कि वक्त बदलाता है और बदलता ही रेहगा और जिसने इसे पकड़ने की कोशिश की वह इसकी गिरफ़्त में जकड़ गया। कहा भी गया है `कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदलग गए, कुछ लोग हैं जो वक्त के सांचे में ढल गए!` स्पष्ट है कि वक्त के सांचे बदलने वाले गांधी, नेहरू, लिंकन और ओबामा बन जाते हैं, वक्त के सांचे में तो कोई भी ढल सकता है।वक्त को बदला जा सकता है अपने चरित्र से। इसे रोका नहीं जा सकता। रोकने की कोशिश तो महाज्ञानी, महापराक्रमी और महाबलशाली रावण ने भी की थी, अंजाम रामायण में लिखा है, जानने के लिए पढ़ सकते हैं। मैंने पढ़ी है इसलिए बता रहा हूं कि रावण भी वक्त को नहीं रोक पाया। श्रीराम ने वक्त को बदला था, अपने चरित्र से, अपने पौरुष से और अपने स्वाभाव से। इसलिए श्रीराम हमारे हीरो हैं और रावण विलेन... श्रीराम की हम पूजा करते हैं और रावण का पुतला जलाते हैं।

वक्त बदलने का काम हममें से कोई भी या हम सभी कर सकते हैं। अब ये मत पूछिएगा कि कैसे?... मैं नहीं जानता क्योंकि मैंने वक्त नहीं बदला है और न ही अभी सोच रहा हूं फिलहाल तो मैं कोशिश में हूं कि वक्त से मेरी दोस्ती या फिर मुझसे उसे प्यार हो जाए ताकि उसे कहीं डेट पर ले जा सकूं और दिल की बात कह दूं।

फ़िर शायद मुझे वक्त बदलने की जरूरत ही न पड़े। पर ये भी सच है न कि हम जो चाहते हैं ठीक वही नहीं हो सकता। ठीक वैसा ही पाने के लिए हमें बहुतेरे जतन करने पड़ते हैं, और वैसे भी `अपनी मर्जी से कहां अपनी मर्जी के हम हैं, वक्त ले जाए जहां भी वहीं के हम हैं!...`

बुधवार, दिसंबर 09, 2009

क्षणिकाएं

एक...

कभी हवा के झोके से तेरे छूने का अहसास होता है
कभी दूर होने पर भी तू मेरे दिल के पास होता है
बेशक कलम मेरी, स्याही मेरी, ये अहसास मेरा है
पर कभी कभी इनमे तेरी आवाज़, तेरा ही हर अल्फाज़ होता है।

दो...

न कोई शिकवा है खुदा से और न ही जमाने से
दर्द और भी बढ़ जाता है जख्म छुपाने से
शिकायत तो खुद से है के मैं कुछ न कर सका
वरना मैं जानता हूँ आता मेरे बुलाने
से।

तीन...

गर कभी तन्हा हो तो याद करना
गर कोई परेशानी हो तो बात करना
बातें करना कभी हमारी भी
कभी खुद से कभी लोगों साथ करना।

मंगलवार, दिसंबर 08, 2009

मुंबई ब्लॉगर मीट

पांचवा खम्बा: मुंबई ब्लॉगर मीट

शनिवार, दिसंबर 05, 2009

सिगरेट के डिब्बों में फ्री कूपन जल्द...


हाल ही में एक खबर आई है कि अब सिगरेट के पैकेटों में एक फ्री कूपन मिलेगा जो किसी भी कैंसर अस्पताल में फ्री कैंसर चैकअप में मददगार होगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह पहल सिगरेट के पैकेट्स के 40 प्रतिशत भाग में पूर्व दिए गए 'स्मोकिंग किल्स' के विज्ञापन की असफलता के बाद शुरू की है।

उल्लेखनीय है कि भारत में हर साल करीब 9 लाख लोग सिगरेट की वजह से कैंसर के शिकार होकर दम तोड़ देते हैं। अब भारत के आंकड़ों में हम हर साल 9 लाख लोगों को स्वर्गीय बनता देख रहे हैं तो पूरे विश्व के आंकड़े तो हमें बेहोश ही कर देंगे। शायद यही वजह कि मैं दुनिया भर में सिगरेट की वजह से मरने वालों के आंकड़े पेश नहीं कर रहा हूं।

स्वास्थ्य मंत्रालय और परिवार कल्याण मंत्रालय ने मिलकर इस मुहीम को शुरू किया है। मेनका गांधी ने सुझाव दिया है कि सिगरेट बेचने वाली कंपनियों को पैकेट में फ्री कूपन देना चाहिए। इससे पहले लोगों को तम्बाकू उत्पादों के खतरे से आगाह करने के लिए डिब्बों पर बिच्छू की तस्वीर छापने का फैसला किया जा चुका है लेकिन ये तरीका भी बहुत कारगर साबित नहीं हुआ। ज्यादातर लोगों का मानना है कि सिर्फ तस्वीरें दिखाकर किसी को खतरे का एहसास नहीं कराया जा सकता। हो सकता है सरकार की इस नई पहल से लोग सिगरेट से होने वाले खतरों के प्रति जागरूक हो जाएं और सिगरेट छोड़ दें।

खैर!... खुदा खैर करे इन सिगरेट पीने वालों की!... और सद्बुद्धि दे ताकि ये सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना छोड़ें और एक बेहतर भविष्य का जाला बुनने की ओर ध्यान दें!...


तमाम शुभकामनाओं के साथ

राम कृष्ण गौतम

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009

मीडिया : द फोर्थ कॉलम!...

कुछ दिनों पहले तक लोकतंत्र के केवल तीन ही स्तंभ थे। उनके साथ कदम से मिलाकर जिम्मेदारपूर्वक कार्य करते हुए मीडिया ने अपने हाथ दिखाए और शामिल हुआ चौथे स्तंभ के रूप में! और... कहलाने लगा लोकतंत्र का चौथा स्तंभ... लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ ने देश, दुनिया ही नहीं बल्कि गांव और शहरों के भी छोटे-छोटे इलाकों को कवर करते हुए समाज में अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई।

शायद! यही वजह थी कि इसे संविधान के चौथे स्तंभ का दर्जा दिया गया और कहा जाने लगा... मीडिया : द फोर्थ कॉलम! इसने हर अच्छे और बुरे समय में घर के एक लायक बड़े बेटे की भूमिका निभाई। यही वजह है कि इसे घर के मुखिया यानि देश के संविधान ने बड़े बेटे की ताकत और रुतबा प्रदान किया... लेकिन हाल के कुछ दिनों से देखने में आ रहा है कि यह बड़ा बेटा अब शायद पहले की तरह अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रहा है। मेरा मतलब खबरों के प्रस्तुतिकरण से है।

वर्तमान में मीडिया के पास क्या समुचित खबरों की कमी है जो वह अश्लीलता, फूहड़पन और भूत-प्रेत आधारित खबरों को बहुत ही प्रधानता से प्रस्तुत कर रहा है। क्या वज़ह कि अब शायद यह बड़ा बेटा अपनी जिम्मेदारियों को भूलने लगा है?

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

अरे! तुम कब आए...

सुबह के लगभग सवा पांच बज रहे थे, हवा की सरसराहट सीधे कानों से टकरा रही थी, पक्षियों का झुण्ड नीले आसमान की सुन्दरता बढ़ा रही थी, सूरज की लालिमा अपने चरम पर थी और आसपास के वातावरण में स्वर्णिम प्रकाश फ़ैल रहा था, ऊपर आसमान में नज़रें उठाकर देखने पर एसा लग रहा था मानो धरती और आकाश के बीच का दायरा ही ख़त्म हो गया है, सारा का सारा आकाश धरती की आगोश में नज़र आ रहा था, पेड़ों की पत्तियों की आवाज़ कानों के पर्दों से होकर सीधे ह्रदय में स्पंदन कर रही थी, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सूर्यदेव ने अभी-अभी ही आकाश में अपने घोड़े विचरण के लिए छोड़े हों...

ठीक उसी वक़्त केशव अपनी बहन और बहनोई के घर के गलियारे में दाखिल हुआ। अपनी बहन और बहनोई के मुखमंडल को देखने के लिए उत्साहित उसका मन, मन ही मन खुश हो रहा था और होगा भी क्यों नहीं, वो पूरे दो साल और सात महीनों के बाद अपनी कीर्ति और सचिन से मिलने जो वाला था। उसकी दूसरी ख़ुशी का राज़ तो पूछिए ही मत। उसकी इस ख़ुशी के आगे फिलहाल तो कोई भी दूसरी ख़ुशी टिक ही नहीं सकती और उसकी यह ख़ुशी है ही खुश होने लायक। आज वो अपने प्यारे भांजे से भी मिलेगा जो आज पूरे दो साल का हो गया है. इन्ही खुशियों को मन के एक कोने में संजोए केशव दबे क़दमों से धीरे-धीरे अपनी बहन के कमरे की ओर बढ़ रहा था।

उसके हाथ में एक झोला था जिसमे बहन और बहनोई के लिए कपडे और प्यारे भांजे के लिए मुंहदिखाई और जन्मदिन के तोहफे, खिलौने इत्यादि थे. मन में भांजे की सुन्दर सूरत की कल्पना और दिल में बहन से मिलने का उत्साह केशव को भीतर ही भीतर एक अनुपम ख़ुशी दे रहा था... वह ख़ुशी और उत्साह की इन्ही बातों को सोचते हुए अपनी बहन के कमरे के दरवाजे के सामने पहुंचा... वह दरवाज़े की कुण्डी बजाने ही वाला था कि... उसकी सारी कि सारी खुशी, सारा का सर उत्साह धुआं हो गया, एक ही पल में उस पर वज्रपात सा हो गया, हे! भगवान क्या मैंने इतनी खुशी और इतना उत्साह इसी दुरूह क्षण के लिए संजोया था, उसका ह्रदय एक अनकहे दर्द की चोट से कराह उठा।

उसने सुना कि उसकी प्यारी बहन कीर्ति अपने पति पर ज़ोरों से चिल्ला रही है और उससे भी जोर से उसका बहनोई सचिन दहाड़ मार रहा है. उनके बीच सुबह-सुबह छिड़े इस संवाद ने केशव की तमाम खुशियों को धता बता दिया। ऐसी स्थिति में केशव का मन व्याकुल हो उठा। इधर केशव के मन में कशमकश जारी था तो उधर उसकी बहन और बहनोई का संवाद... उसका बहनोई उसकी बहन से कह रहा था कि देखो तुम्हारे परिवार को तुम्हारी कोई चिता तो है नहीं, आज पूरे ढाई साल हो रहे हैं, किसी ने यह भी नहीं जानना चाहा कि हम मर गए या जिंदा हैं. कम से कम इस नन्हे को तो देखने कोई आ जाता. तुम्हारा भाई तो बस अपनी बीवी की पल्लू में ही छिपा रहता है. उसे तुम्हारी फिक्र क्यों होगी॥? इस पर कीर्ति ने ज़वाब दिया- खबरदार! जो मेरे पिता समान भाई और मेरी भाभी के बारे में कुछ बुरा-भला कहा तो! मैं फिर ये भूल जाउंगी कि आप मेरे पति हैं।

इन सब बातों ने केशव को जैसे प्राणहीन बना दिया था. उसका शरीर किसी पत्थर के स्तम्भ की तरह जड़ हो गया था लेकिन उसके कान अभी भी सतर्क थे, वह सचिन और कीर्ति दोनों के संवाद सुन रहा था. उन दोनों के संवाद ने केशव को उसके अतीत की और धकेल दिया जब नन्ही सी कीर्ति को महज़ चार साल की उम्र में उसके पिता और कुछ ही दिन बाद उसकी माँ भी चल बसीं. फिर कीर्ति की पूरी ज़वाबदारी केशव पर ही थी. उसे याद आ रहा था कि कैसे उसने दिन-रात, हर एक पल मेहनत-मजूरी करके कीर्ति का पेट भरा, उसे पढे और समाज में रहने लायक संस्कार दिए।

वह याद कर रहा था कि किस तरह शादी के बाद केशव ने अपनी पत्नी कृष्णा के साथ कड़ी मेहनत करते हुए कीर्ति का ध्यान रखा, उसने और उसकी पत्नी ने कीर्ति के पैर तक ज़मीन में न पड़ने दिए. किस तरह उन दोनों ने एक आदर्श माँ और पिता की भूमिका निभाई. कीर्ति को विदा करने के लिए केशव ने अपनी आजीविका का एकमात्र साधन अपनी एक एकड़ ज़मीन तक बेच डाली. इन सब कुरबानियों के बाद भी केशव ने कभी यह नहीं सोचा कि वह कितने कष्ट सह रहा है कीर्ति के लिए... इसके बावजूद भी वह कीर्ति की ख़ुशी के लिए ही सोचता रहा. दामाद को भी उसने वो हर वस्तु दी जो उसने मांग की थी।

कहने का मतलब है कि केशव ने वो हर जिम्मेदारी निभाई जो अपनी बेटी के लिए एक पिता करता है। केशव अपने अतीत में ही खोया हुआ था कि अचानक उसकी बहन चीखती हुई दरवाजे से बाहर की ओर भागी और उसका हाथ केशव के झोले पर तेजी से लगा, केशव का झोला ज़मीन पर गिरा और बच्चे के खिलौने टूटकर धरती बिखर गए। खिलौनों के टूटने की आवाज से उसका बहनोई बाहर आया, उसने केशव को एक कोने पर खड़ा पाया और केशव के कानों को चीरने वाली आवाज में बोला - अरे! तुम कब आए...

इन आंखों की मस्ती के...









जिनकी ये ख़ूबसूरत आँखें हैं, उन्हें आप सब बहुत बेहतरी से जानते हैं। अब जानना ये है कि क्या आप इन खूबसूरत आंखों की मलिका-ऐ-हुस्न का नाम बता पाते हैं या नही..?

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