सोमवार, सितंबर 21, 2009

...क्योंकि सपना है अभी भी!

कभी-कभी ज़िन्दगी हमें एक पल में इतना सिखा देती है कि शायद उतना सीखना पूरे उम्र में संभव न हो पाए. ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ. इंसान तमाम उम्र एक छलावे में जीता है. अगर उसके सामने कुछ बेहतर है तो वो उसी को सबसे बेहतर मानकर जीता चला जाता है. वो फिर यह नहीं सोच पाता कि इससे भी कुछ बेहतर होता है. उसके लिए महज़ "बेहतर" ही "सबसे बेहतर" होता है. खुशियाँ, आंसू, हंसी, ग़म ये सब वो मुसाफिर हैं जो हमें ज़िन्दगी के सफ़र में मिलते हैं. खैर! कुछ भी हो पर मैंने भी कुछेक महीने एक छलावे को लेकर गुज़ारा है. वैसे छलावा वाकई सबसे बेहतर था. मुझे नहीं लगता कि इससे बेहतर छलावा अब कभी मुझे मिल पाएगा. हालाँकि उस छलावे ने मुझे यह सिखा दिया है कि "कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल, किन्तु कायम खुद का संकल्प है अपना अभी भी, ...क्योंकि सपना है अभी भी!" उसने मुझे सिखाया कि हज़ार चाहने वालों से एक न चाहने वाला ही बेहतर होता है, क्योंकि हज़ार चाहने वाले आपको अपनी चाहत जब तक देते हैं तब तक ही आप खुद को खुश रख पाते हैं जबकि न चाहने वाला कमसे कम आपके विचारों, आपकी भावनाओं को बदलता तो नहीं. वह हमेशा एक ही बात की गारंटी देता है और वो यह कि वो आपको कभी नहीं चाहेगा. जबकि आपके हज़ार चाहने वाले इस बात की गारंटी कतई नहीं देते कि वो आपको हमेशा ही चाहते रहेंगे!
जब छोटे थे तो बड़े होने की बड़ी तमन्ना थी, लेकिन बड़े होकर जाना कि अधूरे अहसास और टूटे हुए सपनों से बेहतर अधूरे होम वर्क और टूटे हुए खिलौने ही थे...

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