रविवार, नवंबर 08, 2009

यादें...

बात आज से लगभग पंद्रह साल पुरानी है। तब मैं महज़ आठ साल का था। उस वक़्त मैं अपने होम टाऊन (डिंडोरी) में अपने पिताजी के साथ रहता था। पिताजी के साथ था इसलिए सुबह जल्दी उठ जाता था या यूँ कही कि उठना पड़ना था। एक दिन तडके हमारा दूध वाला दूध देने आया। उस दिन उसका बिल भी पेड करना था। इसलिए उसने पिताजी को आवाज़ लगाई- महाराज, ओ! महाराज (हमारे यहाँ ब्राह्मणों को महाराज बुलाते हैं, और महाराज बुलाने की दूसरी वज़ह यह भी है कि मेरे दादा जी अपने समय के ज़मींदार थे।) पिता जी स्नान के लिए नर्मदा जी गए हुए थे इसलिए दूध वाले से मैं ही रु-ब-रु हुआ। उसने मुझसे पूछा "छोट महाराज, तुम्हार बाप कहाँ हैं?" (ये हमारे गाँव की बोली है) मुझे ये बात कुछ ठीक नहीं लगी इसलिए मैंने उससे कहा- क्या हुआ? इस बार तो उसने हद कर दी और कहा -डुक्कर को बुलाओ, आज हिसाब करना है। इतना सुनते ही मैं गुस्से से आगबबूला हो गया। मुझे कुछ न सूझा सो मैंने वहीँ पर रखा हुआ दूध का डिब्बा उठाया और उसके सिर पर जोर से दे मारा। पलभर में उसका सिर खून से लाल हो गया। वो तुरंत ही सबकुछ छोड़कर वहां से भागा। कुछ देर बाद पिताजी आए। मैंने उनसे कुछ नहीं बताया। जब उन्होंने मुझसे चाय बनाने को कहा तो मैंने ज़वाब दिया कि काली चाय बनाऊं? पिताजी ने कहा -क्यों, दूध नहीं आया क्या? मैंने कहा- नहीं! ऐसी बात नहीं है, दूध वाला आया था लेकिन...
इतना कहना हुआ ही था, सामने से दूध वाला सर पर पट्टी बांधे चला आ रहा था. मुझे देखकर थोडा ठिठका लेकिन पिताजी के बैठे होने से उसकी हिम्मत बनी रही. पिताजी ने उसकी चोट का कारण पूछा तो उसने झूठ कह दिया कि भैंस ने लात मार दी. इसके बाद मैंने भी कुछ नहीं कहा. उसने दूध का हिसाब किया और अपने इलाज के लिए पिताजी कुछ अतिरिक्त रूपए लिए, फिर वहा से चला गया. तकरीबन नौ साल तक ये बात पिताजी से छिपी रही. न मैंने बताया और न ही उस दूध वाले ने. वो आज भी हमारे यहाँ दूध पहुंचाता है. नौ साल बाद उसकी चोट देखकर अचानक पिताजी ने वो वाकया पूछ लिया. इत्तेफाक देखिए कि उस वक़्त भी मैं वहीँ था. इस बार उससे पहले मैंने ही अपनी जुबान खोल दी और सब सच-सच बता दिया. पहले पिताजी काफी नाराज़ हुए, खूब फटकारा उन्होंने, फिर उन्होंने मेरी उस नादानी के लिए दूध वाले से माफ़ी मांगी. जब दूध वाला चला गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि "बेटा! ऐसा करना ठीक नहीं, अब मेरी इतना उम्र ही इतनी हो गई है तो कोई भी मुझे बूढा या सयाना कहेगा." इसके बाद मैंने कभी पिताजी से उस मुद्दे पर बात नहीं की. अब सोचता हूँ कि अगर सही मायनों में देखा जाए तो मेरा बचपना मेरी आज की अवस्था से काफी बेहतर था. आज मैं अपने पिताजी से, अपनी माँ से, अपने परिवार से कोसों दूर हूँ... मैं चाह कर भी उनके साथ हरपल नहीं गुजार सकता...

तुम याद आए...

जब दिन निकला
तुम याद आए
जब सांझ ढली
तुम याद आए
जब चलूँ अकेले
तन्हा मैं
सुनसान सड़क के
बीचों बीच
धड़कन भी जोरों
से भागे
लगता मुझको
कि यहीं कहीं
अब भी तुम हो
मेरे आसपास
जब कोयल
मेरे कानों में
एक मधुर सी तान
सुना जाए
लगता मुझको ऐसा जैसे
तुम याद आए
तुम याद आए

ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई

ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई
हो सकी जो न वो मेरी आस बनकर रह गई
कुछ दिनों तक ये थी मेरी बंदगी
अब महज़ एक अनकही एहसास बनकर रह गई
जुस्तजूं थी ये मेरी उम्मीद थी
गुनगुनाता था जिसे वो गीत थी
अब तमन्नाओं के फूल भी मुरझा गए
नाउम्मीदी की झलक विश्वास बनकर रह गई
सोचता हूँ तोड़ दूँ रश्में ज़माने ख़ास के
ज़िन्दगी भी लेकिन इनकी दास बनकर रह गई
एक अज़नबी मिला था मुझको
राह-ऐ-महफ़िल में कहीं
ज़िन्दगी भर साथ रहने का सबब वो दे गया
एक दिन ऐसे ही उसने मुझसे नाता तोड़कर
संग किसी अनजान के वो हँसते-हँसते हो गया
अब फ़क़त इस टूटे दिल में याद उसकी रह गई
ज़िन्दगी अब एक अधूरी प्यास बनकर रह गई

LATEST:


विजेट आपके ब्लॉग पर

Blogspot Templates by Isnaini Dot Com. Powered by Blogger and Supported by Best Architectural Homes