शनिवार, जून 27, 2009

मर्द-ए-बाख़ुदा...

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है
जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है
मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है
बन्दे की वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत है
कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्द'अ हो जा
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा हो जा
उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई
भरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना हो जा

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