रविवार, अगस्त 30, 2009

शिद्दत से आज दिल ने...

घर जिसने किसी ग़ैर का आबाद किया है
शिद्दत से आज दिल ने उसे याद किया है

जग सोच रहा था कि है वो मेरा तलबगार
मैं जानता था उसने ही बरबाद किया है

तू ये ना सोच शीशा सदा सच है बोलता
जो ख़ुश करे वो आईना ईजाद किया है

सीने में ज़ख्म है मगर टपका नहीं लहू
कैसे मगर ये तुमने ऐ सैय्याद किया है

तुम चाहने वालों की सियासत में रहे गुम
सच बोलने वालों को नहीं शाद किया है


शनिवार, अगस्त 29, 2009

ज़िन्दगी तूने बहुत रोज़ बचाया मुझको...

जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको
याद आया बहुत एक पेड़ का साया मुझको

अब भी रौशन है तेरी याद से घर के कमरे
रोशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको

मेरी ख़्वाहिश थी कि मैं रौशनी बाँटूँ सबको
ज़िन्दगी तूने बहुत जल्द बुझाया मुझको

चाहने वालों ने कोशिश तो बहुत की लेकिन
खो गया मैं तो कोई ढूँढ न पाया मुझको

सख़्त हैरत में पड़ी मौत ये जुमला सुनकर
आ, अदा करना है साँसोंका किराया मुझको

शुक्रिया तेरा अदा करता हूँ जाते-जाते
ज़िन्दगी तूने बहुत रोज़ बचाया मुझको


रचनाकार: मुनव्वर राना

सोमवार, अगस्त 24, 2009

मुझे माफ़ करना...

मैं जानता हूँ मेरी वजह से तुम दुखी हो. तुम ये बात स्वीकार नहीं करोगी लेकिन ये सच है कि कहीं न कहीं मैंने तुम्हें परेशानी में डाल दिया है. ग़लती मेरी है, मुझे तुम्हें मजबूर नहीं करना चाहिए था. मेरी भावनाओं को समझने के लिए तुमने खुद की भावनाओं की कुर्बानी देदी. मुझे ख़ुशी देने के लिए तुमने खुद की खुशियाँ कुर्बान कर दीं. मुझे पता है कि मुझे माफ़ भी नहीं किया जा सकता. मैंने तो झट तुमने माफ़ी मांग ली लेकिन शायद मैं ये भूल गया कि "माफ़ी मांगने से ज्यादा कष्टदायक होता है माफ़ करना!" मैं ये भी जानता हूँ कि तुम दुखी होने के बावजूद भी मेरे बारे में, मेरी ख़ुशी के बारे में ही सोच रही हो. तुम्हारी यही बातें तो मुझे रह-रहकर रुलाती रहती हैं. तुम ऐसी क्यों हो? ऐसा क्यों करती हो तुम? तुम्हें मेरी इतनी चिंता क्यों है? क्यों तुम हमेशा मुझे खुश देखना चाहती हो? ये सवाल अगर मैं तुमसे करुँ तो तुम यही कहोगी न कि "मैं जानता हूँ!" सच भी तो है. मैं जानता हूँ कि तुम ऐसा क्यों करती हो? पर अगर तुम्हारी जगह कोई और होता तो शायद मेरे लिए इतना नहीं करता! करता भी तो वो महज़ एक औपचारिकता होती..! बस! अब और नहीं! बहुत हो चुका! मैं तुम्हें और अधिक दुखी नहीं देख सकता. तुमसे मेरी गुज़ारिश है कि मुझे और कुश रखने की कोशिश मत करो. मैं ये चाहता हूँ कि तुम हमेशा खुश रहो. मेरी चिंता छोड़ दो. मेरे लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण तुम्हारा मेरे लिए चिंता करना है. जब भी मैं ये सोचता हूँ कि तुम मेरे बारे में कितना सोचती हो तो मेरे पास पलकें भिगोने के आलावा और कोई रास्ता नहीं बचता. और हाँ! सबसे अहम् बात : आजतक मेरी वज़ह से जानते हुए या अनजाने में तुम्हें कोई भी हुआ है तो मुझे माफ़ कर देना. मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हारे उन दुखों को कम नहीं कर सकता लेकिन मेरी ये कोशिश ज़रूर रहेगी कि आने वाले समय में अब तुम्हें कोई दुःख. कोई परेशानी न हो..!

हमेशा ही तुम्हारा
"राम"

जीने की तमन्ना कौन करे..?

मरने की दुआएँ क्यूँ मांगूँ ,
जीने की तमन्ना कौन करे|
यह दुनिया हो या वह दुनिया,
अब ख्वाहिश-ए-दुनिया कौन करे|

जो आग लगाई थी तुमने,
उसको तो बुझाया अश्कों से|
जो अश्कों ने भड़्काई है,
उस आग को ठन्डा कौन करे|


दुनिया ने हमें छोड़ा जज़्बी,
हम छोड़ न दें क्यूं दुनिया को|
दुनिया को समझ कर बैठे हैं
अब दुनिया दुनिया कौन करे||


रविवार, अगस्त 23, 2009

तुमने मेरे पथरीले घर में क़दम रखा..!

तुमने मेरे पथरीले घर में क़दम रखा
और वहाँ से एक मीठे पानी का झरना फूट पड़ा



मैं इस करिश्मे से ख़ुश हूँ और परेशान भी
अगर मुझे मालूम होता कि इस ख़ुशी की एवज़ में
उदासी तुम्हारे दिल में घर कर जाएगी
तो मैं...

गुरुवार, अगस्त 20, 2009

मुस्कुराने की आदत कविताएँ..!

आदत बना लो
हमेशा मुस्कुराने की।
कठिनाई परेशानी में
किसी के काम आने की।
परिश्रम से कर्तव्य से
जी न चुराने की।
जरा-जरा सी बात पर
हल्ला न मचाने की।
निन्दा न करने की
चुगली न करने की।
किए हुए वादे को
हमेशा निभाने की |


साभार : वेबदुनिया (The First Hindi Web Portal)

मंगलवार, अगस्त 18, 2009

संस्कारों की पाबन्दी और दिखावे का धुंध...

इंसान को अपनी ज़िन्दगी में न जाने कितने समझौते करने पड़ते हैं... कभी ख़ुद के लिए, कभी औरों के लिए तो कभी पता नही किसके लिए... लेकिन समझौता करना एक आदत बन जाती है। इंसान जब बच्चा होता है तो उसे अपने माता पिता के लिए समझौता करना पड़ता है, जब कुछ बड़ा होता है और स्कूल में जाता है तो शिक्षक के लिए, किसी से दोस्ती करता है तो दोस्तों के लिए भी समझौता करना पड़ता है। फ़िर एक दिन आता है जब उसकी शादी हो जाती है, शादी के बाद पत्नी के लिए उसे समझौता करना पड़ता है। धीरे-धीरे वक्त बढ़ता है और उसके बच्चे हो जाते हैं, फ़िर बच्चों के लिए समझौता... नवजात अवस्था, लड़कपन, किशोरावस्था, जवानी और यहाँ तक कि उम्र का अन्तिम पड़ाव बुढापा भी समझौता करने में ही बीत जाता है। फ़िर सोचिए कि इंसान की निजी ज़िन्दगी, उसकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं और तमाम अभिलाषाएं कहाँ गुम हो जाती हैं? सवाल कठिन है लेकिन इतना भी कठिन नही कि ज़वाब न हो? इसका भी ज़वाब है... और ज़वाब ये है कि उसकी सारी उमर संस्कारों के बंधन में बंधकर रह जाती है और उसे अपनी निजी ज़िन्दगी का एहसास ही नही हो पाता, वह तमाम उम्र उन्ही संस्कारों को निभाने का दिखावा करता है और उसकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं उसी दिखावे की धुंध में कहीं गुम हो जाती हैं और उसकी तमाम उम्र उन्हें तलाशने में गुज़र जाती है लेकिन धुंध इतना गहरा हो जाता है कि कुछ भी हाथ नहीं आता, सिवा दो गज ज़मीन और एक टुकडा कफ़न के...

शनिवार, अगस्त 15, 2009

तुम मुझसे जुदा नहीं...

आज उसने फिर मुझे निराश कर दिया. मैंने उसे कितनी बार कहा है कि तुम मुझसे झूठ मत कहा करो, लेकिन वो मानती ही नहीं. पता नहीं क्यों उसे मुझसे झूठ बोलना बहुत भाता है. मैंने उसे ये भी बहुत बेहतरी से समझाया है कि देखो मैं अपनी ज़िन्दगी की बड़ी से बड़ी कड़वी बात सुन सकता हूँ, सह सकता हूँ लेकिन तुम्हारा एक झूठ मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता. वह कई बार उल्टे मुझसे ही पूंछ बैठती है कि आप ऐसा क्यों कहते रहते हैं..? अरे! इसमें पूछने वाली कोई बात है क्या..? तुम बहुत अच्छे से जानती हो कि मैं ऐसा क्यों कहता हूँ. हम जिस रिश्ते को मजबूती देने जा रहे हैं, उसकी आधारशिला है हम दोनों के बीच विश्वास का होना. अगर हमारे बीच विश्वास नहीं होगा तो हम इस रिश्ते को लेकर दो कदम भी साथ नहीं चल पाएँगे. हमें ज़िन्दगी भर साथ चलना है और अगर संभव हो सका तो ज़िन्दगी के बाद भी साथ-साथ चलेंगे. पर अगर वो मुझसे ऐसे झूठ कहते रहेगी तो मैं कहाँ तक इस रिश्ते को मजबूती दें पाऊंगा..? खैर! मैं उस पर कोई दबाव भी तो नहीं डाल सकता..! ये वो भी बहुत अच्छे से जानती है. न तो मैं कभी उससे ज़बरदस्ती कोई बात कह सकता हूँ. इस बात का भी उसे बहुत अच्छे से पता है. मुझे ये पता है कि वो तभी झूठ बोलती है जब उसमे मेरी कोई बेहतरी जुडी होती है. उसने मुझसे कई बार कहा भी है. मैंने भी उसे बहुत दफा समझाया है कि देखो अगर मेरी अच्छाई के कारण तुम्हें झूठ बोलने के लिए मजबूर होना पड़े या तुम झूठ बोलो तो ये मुझे कतई रास नहीं आएगा. मैं कभी नहीं चाहूँगा कि मेरी भलाई के लिए तुम्हें झूठ का सहर लेना पड़े. लेकिन जब भी वो मेरी भलाई के बारे सोचती है तो उसे मेरी बातों कि भी कोई परवाह नहीं होती. वो वाकई में बेहद मासूम है. तभी तो उसकी मासूमियत मेरी पलकें भिगो देती है. जब कभी उदास होती है और मैं उससे पूछता हूँ कि क्या हुआ? तो झट से आंसू पोंछते हुए बोलेगी - किसे क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं!! मैं बिलकुल ठीक हूँ. जबकि उसे बहुत अच्छे से पट होता है कि मैं ये बहुत अच्छे से जानता हूँ कि मुझे उसकी उदासी कि वज़ह मालूम है. फिर भी वो खुद अपनी जुबान से बोलकर मुझे परेशान नहीं करना चाहती. उसकी इन्ही बातों ने आज मुझे रुला दिया. आज मेरी अंतरात्मा ने मुझसे कहा कि मैं बेहद स्वार्थी हूँ. मैं स्वार्थी हूँ इसलिए क्योंकि वो मेरी ख़ुशी के लिए खुद दुखों के समुन्दर में छलांग देती है. मैं स्वार्थी हूँ क्योंकि ख़ुशी को मेरा पता बताने के लिए वो ग़मों का स्वागत अपनी चौखट पर करती है. मैं स्वार्थी हूँ क्योंकि उसे मेरी ख़ुशी के लिए रोना पड़ता है.क्यों आखिर क्यों..?? वो ऐसा क्यों कर रही है..? वो क्यों मेरे बारे में सोचती है..?? वो ये क्यों नहीं सोचती कि मैं भी उसकी उतनी ही परवाह करता हूँ जितना कि वो मेरा..!!

बुधवार, अगस्त 12, 2009

अंधियारी रात और उजियारे की आस...

कई दिनों से मेरा मन मेरे दिमाग पर हावी हो रहा है. कारण जानने की कोशिश की तो कुछ ख़ास हाथ नहीं आया. बस बेबसी और मायूसी के सिवा. मैंने अपने मन पर काबू पाने के सारे उपाय अपना लिए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. रोज़ रात को यह सोचकर सोता हूँ कि अगली सुबह एक नई ताजगी और स्फूर्ति के साथ दिन की शुरुआत करूंगा लेकिन हर अगली सुबह ठीक वैसी ही होती है जैसे कि पिछली सुबह थी, उदास और ग़मगीन. धीरे-धीरे समय बीतता जा रहा है और समय के साथ बढ़ता जा रहा है तनाव. एक ऐसा तनाव जो पता नहीं कब ख़त्म होगा. खत्म होगा भी या नहीं..? ये वक्त की बात है, फिलहाल तो यह ख़त्म होने का नाम ही ले रहा है. इतना तनाव मेरे जीवन में कभी नहीं आया. शायद इसीलिए मैं ज़रा विचलित सा हो गया हूँ. क्या ऐसा सबके साथ होता है या फिर मैं इसका पहला शिकार हूँ..? हालाँकि खुद के बनाए हुए रिश्तों को निभाने के लिए इतना तनाव झेलना लाजिमी है. माँ, बाप, भाई, बहन जैसे रिश्ते तो खून के रिश्ते हैं, इन्हें तो रोकर या हंसकर, मरकर या जीतेजी निभाना ही पड़ेगा, लेकिन खुद के बनाए हुए, निजी रिश्तों को निभाने के लिए बहुत सारी झंझटों और अनावश्यक तनावों का सामना करना पड़ता है. इन रिश्तों को हंसते हुए और जीतेजी ही निभाना पड़ता है. फिलहाल तो वही कर रहा हूँ. शायद कोशिशों में कुछ कमी है. इसीलिए वक़्त मुझसे ज़रा आगे है. खैर! अब जब दिल लगाने की जुर्रत कर ही ली है तो अंजाम की परवाह करना कायरता होगी. मैं महज़ तनाव के गिरफ्त में जकडा हुआ हूँ. हारा नहीं हूँ और न ही हारूँगा. अगर इस रिश्ते की बुनियाद मैंने रखी है तो इसे एक बेहतर अंजाम तक पंहुचाकर ही दम लूँगा. इसमे कई रोडे आएँगे, मैं इससे भलीभांति परिचित हूँ. इसके लिए मैंने अपने मन को तैयार करना भी धुरु कर दिया. बस दुआ कीजिए कि मेरा मन मेरे आदेशों का पालन करे और वक्त आने पर मुझे मार्गदर्शित करे. बाकी मैं संभाल लूँगा.
शुभरात्रि!!!

गुरुवार, अगस्त 06, 2009

काश! ये न होता..??





क्यों किसी की याद रुलाती है बार-बार?
क्यों किसी की याद सताती है बार-बार?

जो साथ हो दिल में उमड़ती है ख्वाहिशें!
जो दूर हो तो पलकें भीगती हैं बार-बार?

परछाइयों में भी उसका ही चेहरा उभरता है!
सूरज की रौशनी में भी दिखता उसी का प्यार!

कुछ सोचकर अचानक सिहर जाता है ये दिल!
क्यों हर घडी तुम्ही पे आता है ये बार-बार?

हर बार कहता हूँ कि भुला दूंगा अब तुम्हें!
पर सच कहूं तो झूठ ही कहता हूँ बार-बार!

रविवार, अगस्त 02, 2009

इस पराए शहर में...

कई साल पहले

अपने समय के

तमाम जवान लड़कों की तरह

मैं भी निकला था घर से

झोले में कुछ

काग़ज के टुकड़े डालकर

पर छोड़िए

इस कहानी में

कुछ भी नया नहीं है

आप बतलाइये

आप कब

और क्यों आए

इस पराये शहर में।॥?

शनिवार, अगस्त 01, 2009

कॉलेज का तीसरा दिन और...

बात उन दिनों की है जब मैंने अपने Home Town डिंडोरी के एकमात्र महाविद्यालय सीवी कॉलेज में BSc फर्स्ट इयर में दाखिला लिया था. मैं पत्रकारिता जगत और पत्रकारिता के कोर्स में आने से पहले BSc का छात्र था. कॉलेज में तीसरा दिन था. मैंने अभी तक किताबे नहीं खरीदी थी. इसलिए महज़ एक कोरे पन्नो वाली कापी लेकर Chemistry की क्लास में बैठ गया. आगे लिखने से पहले मैं बता दूं कि स्कूल लाइफ में मेरा रिकार्ड एकदम साफ़ था यानि पढने लिखने के साथ-साथ अन्य गतिविधिओं में भी मैं A+ ग्रेड लाता था (मात्र डांसिंग छोड़कर). मेरी क्लास में लगभग सभी क्लासमेट्स 12th के ही थे. सब मुझे बहुत अच्छे से जानते थे. हमारी क्लास में Chemistry रचना मेडम पढाती थी. उन्होंने सबसे पहले नए छात्रों का Intro लिया फिर Logrithem पढाना शुरू किया. हमारी क्लास में रचना मेडम का पहला दिन था. इसलिए उन्होंने Basic से पढाना शुरू किया. सबसे पहले उन्होंने Log10 का मान पूछा. हम में से बहुतों को उसका मान मालूम था लेकिन नई नवेली मेडम को देखकर कोई भी हाथ नहीं उठा पाया. मैं भी नहीं. हम लोग न तो उनके स्वभाव से परिचित थे और न ही उनकी बोली-भाषा से. इसलिए हम सभी चुप बैठे थे और अपना नंबर आने का इंतज़ार कर रहे थे. मैं भी उन्ही में से था और सोच रहा था की मेडम मुझसे पूछें। काफी देर हो गई पर मेरा नम्बर नहीं आया. अचानक मेरा ध्यान क्लासरूम से निकल बाहर क्रिकेट ग्राउंड की ओर चला गया और मैं खिड़की से बाहर झाँककर Match देखने लगा. ठीक उसी वक़्त मुझे ऐसा सुनाई पड़ा मानो किताबों का ज़िक्र चल रहा है. मेरे एक मित्र ने भी मुझसे ऐसा ही कुछ कहा. उसी समय मेडम की मेरी ओर निगाहें पड़ी. मैं बाहर की ओर झांकता हुआ उन्हें खेल देखने में व्यस्त नज़र आया. उन्होंने बड़ी जोर से मेरा नाम पुकारते हुए Log10 का मान पूछा! चूंकि मेरा ध्यान कही और था और ठीक उसी वक़्त किताब खरीदने का ज़िक्र हो रहा था तो मुझे ऐसा लगा जैसे मेडम मुझसे किताबों के बारे में पूछ रही हैं. मैंने झट ही उत्तर दिया - No Maam! मेरा No कहते ही मेरे सारे क्लासमेट्स टकटकी लगाए मेरी ओर देखने लगे. उनके चेहरे पर आश्चर्य की छाया थी. वो सोच रहे थे की जिसने हमें Log का पूरा Table याद कराया है वही Log10 का मान नहीं बता पा रहा है. लेकिन बात तो कुछ और ही थी. खैर! मेडम को मेरा उत्तर सटीक नहीं लगा और उन्होंने मुझे ust Get Out Of The Classroom का आदेश दें डाला. इतना सुनते ही मैं दंग रहा गया और अपने चारों ओर देखने लगा. ठीक उसी वक़्त एक ने झट ही मुझसे कहा - भाई! मेडम Log10 का मान पूछ रही हैं. मैंने मेडम को कोई सफाई न देते हुए Log10 is equal to ONE कहते हुए क्लासरूम से बाहर निकल गया.

यादें...!


यादें... यादें दो तरह की होती हैं; एक अच्छी यादें, दूसरी बुरी यादें. अच्छी यादें उन खुशबूदार फूलों की तरह होती हैं जिन्हें अगर कोई हमारी तरफ फेंकता है तो वो हमारी धडकनों से टकराकर हमारी रूह को तक महका देती हैं. बुरी यादें; बुरी यादें उन कंटीले पत्थरों की तरह होती हैं जो हमसे टकराकर एक अनकहा और कभी न भुला सकने वाला दर्द पैदा करती हैं. पर विडंबना ये है कि हम मनुष्य हैं और हमारी ज़िन्दगी इन दोनों यादों के बगैर नहीं चल सकती.

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