मंगलवार, जुलाई 28, 2009

सभ्यता की शक्ल...

आज हर होनी अनहोनी हो रही है।
सभ्यता की शक्ल रोनी हो रही है॥

बढ़ रही है खजूरों की ऊँचाई।
हर गुलाबी नस्ल बौनी हो रही है॥

अब साँसों का कोई शौक नही...

अब साँसों का कोई शौक नही, परवश लेते हैं।
जिन्हें दूध देकर पालो वो खेल-खेल में डंस लेते हैं॥

आ लगी अब ज़िन्दगी शर्मिंदगी की मोड़ पर।
जिन बातों पर रोना आए, हम उन पर अब हंस देते हैं॥

धिक्कार सौ सौ बार...

धिक्कार सौ-सौ बार इस इंसान को।
नीलाम करने जो खड़ा ईमान को॥

स्वर्ण की लंका की सुरक्षा के लिए अपनी।
इसी ने पत्थरों में बो दिया भगवान् को॥

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