शनिवार, दिसंबर 12, 2009

अपनी मर्जी से कहां अपनी मर्जी के हम हैं...

वक्त बदलता है और बदलता रहेगा... किसी के रोकने से न तो रुका है और न ही रुकेगा... जिसने भी रोकने की कोशिश की वह इसके प्रवाह में आकर बह गया।

किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि इंसान पैदा होने के बाद बच्चा बनेगा, फिर जवान और अंत में बूढ़ा होकर वक्त की बनाई हुई जंजीरों में कैद हो जाएगा। यह शाश्वत सत्य है कि जिसने जन्म लिया है उसे मरना भी है और जो जन्म लेता है उसे मरने से पहले बहुत सारे काम करने पड़ते हैं... काम कई तरह के हो सकते हैं। कोई अच्छा काम करता है तो कोई बुरा और कुछ ऐसे भी होते हैं जो बहुत अच्छे काम कर जाते हैं और बन जाते हैं गांधी, नेहरू, लिंकन या ओबामा!...

ये वो लोग हैं जो कभी एक दायरा बनाकर नहीं रखते। इनकी नजर ज़िन्दगी केवल जीने का नाम नहीं होता, बल्कि ये मानते हैं कि ज़िन्दगी हमेशा कुछ न कुछ बेहतर करते रहने का काम है और यही वजह कि हमें हमारे पड़ोसी तक ढंग से नहीं जानते और इन्हें पूरी दुनिया जानती है और तब तक जानती है जब तक वक्त चलता है।

कौन जानता था कि 4 अगस्त 1961 को होनोलूलू में किन्याई मूल के एक साधारण से परिवार में जन्मे बराक हुसैन ओबामा को 20 जनवरी 2009 से पूरी दुनिया, दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में (अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति, अश्वेत मूल के पहले) जानने लगेगी। मामला साफ है कि ओबामा ने अपने जीवनकाल में बहुतेरे असाधारण कार्य किए हुए होंगे और वक्त के आगे चलना पसंद किया होगा, न कि वक्त के साथ।

आज की वर्तमान पीढ़ी से अगर उनके चहेते या उन्हें चाहने वाले आधुनिकता से बचने की सलाह देते हैं तो उनका एक ही साधारण और रटा-रटाया ज़वाब होता है `इंसान को वक्त के साथ चलना चाहिए!` शायद यही वजह है कि `वक्त के साथ चलना` उनका दायरा बन जाता है और तमाम उम्र वो इसी दायरे को अपना संपूर्ण जीवन मानकर जीते हैं। एक दिन आता है जब उन्हें पता चलता है कि हम जिस दायरे को अपना जीवन समझ रहे थे वह एक धोखे और छलावे के सिवाय और कुछ नहीं था। पर जब वो इस दायरे को तोड़ने की कोशिश करने का प्रयास करते हैं तब तक रेलगाड़ी पटरी छोड़कर काफी दूर जा चुकी है यानि वक्त बदल चुका होता है।

कहने का मतलब साफ है कि वक्त बदलाता है और बदलता ही रेहगा और जिसने इसे पकड़ने की कोशिश की वह इसकी गिरफ़्त में जकड़ गया। कहा भी गया है `कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदलग गए, कुछ लोग हैं जो वक्त के सांचे में ढल गए!` स्पष्ट है कि वक्त के सांचे बदलने वाले गांधी, नेहरू, लिंकन और ओबामा बन जाते हैं, वक्त के सांचे में तो कोई भी ढल सकता है।वक्त को बदला जा सकता है अपने चरित्र से। इसे रोका नहीं जा सकता। रोकने की कोशिश तो महाज्ञानी, महापराक्रमी और महाबलशाली रावण ने भी की थी, अंजाम रामायण में लिखा है, जानने के लिए पढ़ सकते हैं। मैंने पढ़ी है इसलिए बता रहा हूं कि रावण भी वक्त को नहीं रोक पाया। श्रीराम ने वक्त को बदला था, अपने चरित्र से, अपने पौरुष से और अपने स्वाभाव से। इसलिए श्रीराम हमारे हीरो हैं और रावण विलेन... श्रीराम की हम पूजा करते हैं और रावण का पुतला जलाते हैं।

वक्त बदलने का काम हममें से कोई भी या हम सभी कर सकते हैं। अब ये मत पूछिएगा कि कैसे?... मैं नहीं जानता क्योंकि मैंने वक्त नहीं बदला है और न ही अभी सोच रहा हूं फिलहाल तो मैं कोशिश में हूं कि वक्त से मेरी दोस्ती या फिर मुझसे उसे प्यार हो जाए ताकि उसे कहीं डेट पर ले जा सकूं और दिल की बात कह दूं।

फ़िर शायद मुझे वक्त बदलने की जरूरत ही न पड़े। पर ये भी सच है न कि हम जो चाहते हैं ठीक वही नहीं हो सकता। ठीक वैसा ही पाने के लिए हमें बहुतेरे जतन करने पड़ते हैं, और वैसे भी `अपनी मर्जी से कहां अपनी मर्जी के हम हैं, वक्त ले जाए जहां भी वहीं के हम हैं!...`

2 Responzes:

Unknown ने कहा…

bahut khoob kaha...........

andaaz bhi
alfaaz bhi....

zabardast aur rochak.........

Vicky ने कहा…

Very Well Done yaar...
Badhia likhte ho...
Abhi tak to sirf aapki poetries padhi thi, Lekh pahli baar padha. Bahut Badhia likhte ho. Best of luck..

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