हमने अपने जीवन में कई ऐसे उदाहरण देखे हैं जिनसे हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है...
रामायण तो हम सभी ने देखी है... हाँ! ज़रूर देखी है... उसमे हमने देखा है कि श्रीराम अपने कर्मों के बल पर मर्यादापुरुषोत्तम कि उपाधी से नवाजे जाते हैं... " रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाये पर वचन न जाई! " वाली बात शायद उन्ही के जीवनकाल से चरितार्थ हुई... उन्होंने अपनी आने वाली पीढी के लिए कई मील के पत्थर स्थापित किये... और सन्देश दिया कि जिंदगी मिली है तो इसका सदुपयोग करो... मानव जीवन ऐसे ही नहीं मिलता... उसके मिलने के पीछे बहुत बड़ा उद्देश्य छिपा होता है... पिता के आदेश के पालन के लिए उन्होंने अपना जीवन बलिदान करने की ठान ली... और चल पड़े चौदह साल का बनवास काटने... एक ही पत्नी को लेकर पूरा जीवन काट दिया... पत्नी दूर हो गयी फिर भी दूसरी शादी नहीं की... भाई भी बने तो बेमिसाल... कहने का मतलब है कि उन्होंने हर क्षेत्र में मिसाल कायम किया... बचपन से लेकर जवानी के सुनहरे युग तक उन्होंने कभी अपने मन को नहीं सुना... सदा ही माता-पिता, पत्नी-भाई और प्रजा कि सुनते रहे... कभी भी अपना जीवन नहीं जिया... अपना जीवन उन्होंने दूसरों के नाम कर दिया... तभी तो इतने महान बने कि दुनिया ने उन्हें भगवान् कहना शुरू कर कर दिया... और अब तो उनकी पूजा भी होने लगी है (मैंने जब से अनुभव किया है तब की बात कर रहा हूँ, इससे पहले का मुझे नहीं पता, मैं खुद उन्हें अपना इष्ट मानता हूँ!)... इतना सब बताकर मैं ये नहीं कहना चाहता कि दुनिया हर इंसान भगवान् बनने की कोशिश में लग जाए... ऐसा कतई संभव नहीं है... प्रकृति का नियम टूट जाएगा... मेरे कहने का मतलब है कि जीवन का सदुपयोग होना चाहिए... हम सभी को अपने अन्दर छिपी शक्ति को पहचानना चाहिए...एक उदाहरण देता हूँ... आज की युवा वर्ग का (उनमे मैं खुद भी शामिल हूँ)... अक्सर ऐसा देखने में आया है कि हम युवा जितनी फिक्र अपनी गर्लफ्रेंड या पत्नी की करते हैं... उसका दस फीसदी भी अपने माता-पिता या परिवार की फिक्र करते हैं...?? शायद नही! पापा या भैया का काल यदि गर्लफ्रेंड के सामने आ जाता है तो उठाते ही नहीं... और यदि गर्लफ्रेंड ने पूरे परिवार के सामने काल किया तो उसका काल काटकर उसे कालबेक करेंगे और बड़ी ही बेशर्मी के साथ घर वालों के सामने उससे बात करने लगेंगे... क्या यह घर के संस्कारों का नतीजा है? कतई नहीं! यह हमारी दूषित मानसिकता और अपने अन्दर छिपे SplitPersonality (दोहरा स्वाभाव) को अपने पर हावी होने देने का परिणाम है... यह सब देखकर मुझे शर्म आती है कि मैं भी आज की युवा पीढी में गिना जाता हूँ... मुझे जब कोई युवा या जवान कहता है तो मुझे लगता है मानो कोई मेरे "मानव" होने का मजाक उड़ा रहा है... धिक्कार है ऐसी ज़वानी पर जो माँ की आँचल और पिता के स्नेह से विमुख होकर पत्नी या गर्लफ्रेंड की पल्लू से चिपका रहता है... धिक्कार है ऐसे जीवन पर जो भाई के प्यार को छोड़कर किसी गार्डन में एक अजनबी लड़की के कंधे पर हाथ डालकर बैठा है... छी!! क्या करना ऐसे जीवन और ऐसी जवानी का॥ जो खुद के परिवार को छोड़कर कहीं और अपना दुःख-सुख बाँट रहा है...?? अरे रामजी भी तो जवान थे... और वो तो कुछ भी कर सकते थे... राजा के बेटे थे... उनके पास अपार सम्पत्ति भी थी... पर उन्होंने हमेशा ही अपने परिवार को लेकर चलना उचित समझा... अब कुछ लोग कहेंगे कि भाई! वो तो भगवान् थे... उन्हें तो रावन का नाश करके अपना काम करना था... लीला कर रहे थे वो... ऐसा सोचने वालों को एक बात बता दूं कि वो भगवान् बनकर पैदा नहीं हुए थे... उन्होंने खुद में ऐसे गुण पैदा किये जिनसे उन्हें भगवान् कहा जाने लगा... हम भी ऐसा कर सकते है॥ पर गर्लफ्रेंड से बतियाने से फुरसत मिले तब न... मैं किसी युवा भाई पर आक्षेप नही कर रहा हूँ... अगर किसी युवा भाई को मेरे इस लेख से दुःख हो तो मैं क्षमा चाहूँगा... मैं तमाम युवा बंधुओं से गुजारिश करूंगा की मेरे प्यारे! भाइयो गर्लफ्रेंड के बीस मिनट के प्यार के लिए माँ की बीस साल की ममता को मत ठुकराओ... अगर अपनी माँ, अपने पिता को ही नहीं मानोगे तो ऐसे जीवन का करना ही क्या..??
ऐसे जीवन से मौत ही भली...!!!
न माया चाहिये;
2 Responzes:
" aapke is aalekh ne bhut impress kiya....bhut achaa sandesh diya hai aapne or stya likha hai.."
regards
जीवन में सफल वही होता है जो प्रत्येक सन्दर्भ को संतुलित ढंग से सम्हाल लेता (मैनेज कर लेता है)है.प्रत्येक सम्बन्ध के लिए आदर और यथोचित स्नेह और सम्मानजनक व्यवहार से ही परिवार समाज में संतुलन बना रहता है.
किसी एक का आवश्यकता से अधिक आदर या अनावश्यक उपेक्षा से ही वातावरण असंतुलित और कष्टकारक बनता है.
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